महाभारतम्-12-शांतिपर्व-275
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति गोकपिलसंवादानुवादः।। 1।।
कपिल उवाच। | 12-275-1x |
एतावदनुपश्यन्तो यतयो यान्ति मार्गगाः। नैषां सर्वेषु लोकेषु कश्चिदस्ति व्यतिक्रमः।। | 12-275-1a 12-275-1b |
निर्द्वन्द्वा निर्नमस्कारा निराशीर्बन्धना बुधाः। विमुक्ताः सर्वपापेभ्यश्चरन्ति शुचयोऽमलाः।। | 12-275-2a 12-275-2b |
अपवर्गेऽथ संत्यागे बुद्धौ च कृतनिश्चयाः। ब्रह्मिष्ठा ब्रह्मभूताश्च ब्रह्मण्येव कृतालयाः।। | 12-275-3a 12-275-3b |
येऽशोका नष्टरजसस्तेषां लोकाः सनातनाः। तेषां गतिं परां प्राप्य गार्हस्थ्ये किं प्रयोजनम्।। | 12-275-4a 12-275-4b |
स्यूमरश्मिरुवाच। | 12-275-5x |
यद्येषां परमा निष्ठा यद्येषां परमा गतिः। गृहस्थानव्यपाश्रित्य नाश्रमोऽन्यः प्रवर्तते।। | 12-275-5a 12-275-5b |
यथा मातरमाश्रित्य सर्वे जीवन्ति जन्तवः। एवं गार्हस्थ्यमाश्रित्य वर्तन्त इतराश्रमाः।। | 12-275-6a 12-275-6b |
गृहस्थ एव यजते गृहस्थस्तप्यते तपः। गार्हस्थ्यमस्य धर्मस्य मूलं यत्किंचिदेव हि।। | 12-275-7a 12-275-7b |
प्रजनाद्यभिनिर्वृत्ताः सर्वे प्राणभृतो मुनेः। प्रजनं चाप्युतान्यत्र न कथंचन विद्यते।। | 12-275-8a 12-275-8b |
यास्तु स्युर्बहिरोषध्यो बहिरन्यास्तथाऽद्रिजाः। ओषधिभ्यो बहिर्यस्मात्प्राणी कश्चिन्न विद्यते।। | 12-275-9a 12-275-9b |
कस्यैषा वाग्भवेत्सत्या मोक्षो नास्ति गृहादिति। अश्रद्दधानैरप्राज्ञैः सूक्ष्मदर्शनवर्जितैः।। | 12-275-10a 12-275-10b |
निराशैरलसैः श्रान्तैस्तप्यमानैः स्वकर्मभिः। शमस्योपरमो दृष्टः प्रव्रज्यायामपण्डितैः।। | 12-275-11a 12-275-11b |
त्रैलोक्यस्येव हेतुर्हि मर्यादा शाश्वती ध्रुवा। ब्राह्मणो नाम भगवाञ्जन्मप्रभृति पूज्यते।। | 12-275-12a 12-275-12b |
प्राग्गर्भाघानमन्त्रा हि प्रवर्तन्ते द्विजातिषु। अविश्वस्तेषु वर्तन्ते विश्वस्तेष्वपि संश्रिताः।। | 12-275-13a 12-275-13b |
दाहे पुनः संश्रयणे संश्रिते पात्रभोजने। दानं गवां पशूनां वा पिण्डानामप्सु मज्जनम्।। | 12-275-14a 12-275-14b |
अर्चिष्मन्तो बर्हिषदः क्रव्यादाः पितरस्तथा। मृतस्याप्यनुमन्यन्ते मन्त्रा मन्त्राश्च कारणम्।। | 12-275-15a 12-275-15b |
एवं क्रोशत्सु वेदेषु कुतो मोक्षोऽस्ति कस्यचित्। ऋणवन्तो यदा मर्त्याः पितृदेवद्विजातिषु।। | 12-275-16a 12-275-16b |
श्रिया विहीनैरलसैः पण्डितैश्च पलायितम्। वेदवादापरिज्ञानं सत्याभासमिवानृतम्।। | 12-275-17a 12-275-17b |
न वै पापैर्हियते कृष्यते वा यो ब्राह्मणो यजते वेदशास्त्रैः। ऊर्ध्वं यजन्पशुभिः सार्धमेति ततः पुनस्तर्कयते न कामान्।। | 12-275-18a 12-275-18b 12-275-18c 12-275-18d |
न वेदानां परिभवान्न शाठ्येन न मायया। महत्प्राप्नोति पुरुषो ब्राह्मणो ब्रह्म विन्दति।। | 12-275-19a 12-275-19b |
कपिल उवाच। | 12-275-20x |
दर्शश्च पूर्णमासश्च अग्निहोत्रं च धीमताम्। चातुर्मास्यानि चैवासंस्तेषु यज्ञः सनातनः।। | 12-275-20a 12-275-20b |
अनारम्भाः सुधृतयः शुचयो ब्रह्मसंज्ञिताः। ब्राह्मणा एव ते देवांस्तर्पन्त्यमृतैरिव।। | 12-275-21a 12-275-21b |
सर्वभूतात्मभूतस्य सर्वभूतानि पश्यतः। देवाऽपि मार्गे मुह्यन्ति ह्यपदस्य पदैषिणः।। | 12-275-22a 12-275-22b |
चतुर्द्वारं पुरुष चर्तुर्मुखं चतुर्मुखो नैनमुपैति निन्दा। बाहुभ्यां पद्भ्यामुदरादुपस्था त्तेषां द्वारं द्वारपालो बुभूषेत्।। | 12-275-23a 12-275-23b 12-275-23c 12-275-23d |
नाक्षैर्दीव्येन्नाददीतान्यवित्तं न वाऽयोनीयस्य शृतं प्रगृह्णात्। क्रुद्धो न चैव प्रहरेत धीमां स्तथास्य तत्पाणिपादं सुगुप्तम्।। | 12-275-24a 12-275-24b 12-275-24c 12-275-24d |
नाक्रोशमृच्छेन्न वृथा वदेच्च न पैशुनं जनवादं च कुर्यात्। सत्यव्रतो मितभाषोऽप्रमत्त स्तथाऽस्य वाग्द्वारमथो सुगुप्तम्।। | 12-275-25a 12-275-25b 12-275-25c 12-275-25d |
नानाशनः स्यान्न महाशनः स्या न्न लोलुपः साधुभिरागतः स्यात्। यात्रार्थमाहारमिहाददीत तथाऽस्य स्याज्जाठरद्वारगुप्तिः।। | 12-275-26a 12-275-26b 12-275-26c 12-275-26d |
न वीरपत्नीं विहरेत नारीं न चापि नारीमनृतावाह्वयीत। भार्याव्रतं ह्यात्मनि धारयीत तथास्योपस्थद्वारगुप्तिर्भवेत्।। | 12-275-27a 12-275-27b 12-275-27c 12-275-27d |
द्वाराणि यस्य सर्वाणि सुगुप्तानि मनीषिणः। उपस्थमुदरं पाणी वाक्चतुर्थी स वै द्विजः।। | 12-275-28a 12-275-28b |
मोघान्यगुप्तद्वारस्य सर्वाण्येव भवन्त्युत। किं तस्य तपसा कार्यं किं यज्ञेन किमात्मना।। | 12-275-29a 12-275-29b |
अनुत्तरीयवसनमनुपस्तीर्णशायिनम्। बाहूपधानं शाम्यन्तं तं देवा ब्राह्मणं विदुः।। | 12-275-30a 12-275-30b |
द्वन्द्वारामेषु सर्वेषु य एको रमते मुनिः। परेषामननुध्यायंस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः।। | 12-275-31a 12-275-31b |
येन सर्वमिदं बुद्धं प्रकृतिर्विकृतिश्च या। गतिज्ञः सर्वभूतानां तं देवा ब्राह्मणं विदुः।। | 12-275-32a 12-275-32b |
अभयं सर्वभूतेभ्यः सर्वेषामभयं यतः। सर्वभूतात्मभूतो यस्तं देवा ब्राह्मणं विदुः।। | 12-275-33a 12-275-33b |
नान्तरेणानुजानाति वेदानां यत्क्रियाफलम्। अविज्ञाय च तत्सर्वमन्यद्रोचयते फलम्।। | 12-275-34a 12-275-34b |
स्वकर्मभिः संश्रितानां तपो घोरत्वमागमत्। तं सदाचारमाश्चर्यं पुराणं शाश्वतं ध्रुवम्।। | 12-275-35a 12-275-35b |
अशक्नुवन्तश्चरितुं किंचिद्धर्मेषु सूत्रितम्। निरापद्धर्म आचारो ह्यप्रमादो पराभवः।। | 12-275-36a 12-275-36b |
फलवन्ति च कर्माणि व्युष्टिमन्ति ध्रवाणि च। विगुणानि च पश्यन्ति तथा नैकानि केन च।। | 12-275-37a 12-275-37b |
गुणाश्चात्र सुदुर्ज्ञेया ज्ञाताश्चात्र सुदुष्कराः। अनुष्ठिताश्चान्तवन्त इति त्वमनुपश्यसि।। | 12-275-38a 12-275-38b |
स्यूमरश्मिरुवाच। | 12-275-39x |
यथा च वेदप्रामाण्यं त्यागश्च सफलो यथा। तौ पन्थानावुभौ व्यक्तौ भगवंस्तद्ब्रवीहि मे।। | 12-275-39a 12-275-39b |
कपिल उवाच। | 12-275-40x |
प्रत्यक्षमिह पश्यन्ति भवन्तः सत्पथे स्थिताः। प्रत्यक्षं तु किमत्रास्ति यद्भवन्त उपासते।। | 12-275-40a 12-275-40b |
स्यूमरश्मिरुवाच। | 12-275-41x |
स्यूमरश्मिरहं ब्रह्मञ्जिज्ञासार्थमिहागतः। श्रेयस्कामः प्रत्यवोचमार्जवान्न विवक्षया।। | 12-275-41a 12-275-41b |
इमं च संशयं घोरं भगवान्प्रब्रवीतु मे। प्रत्यक्षमिह पश्यन्तो भवन्तः सत्पथे स्थिताः। किमत्र प्रत्यक्षतमं भवन्तो यदुपासते।। | 12-275-42a 12-275-42b 12-275-42c |
अन्यत्र तर्कशास्त्रेभ्य आगमार्थं यथागमम्। आगमो वेदवादास्तु तर्कशास्त्राणि चागमः।। | 12-275-43a 12-275-43b |
यथाश्रममुपासीत आगमस्तत्र सिध्यति। सिद्धिः प्रत्यक्षरूपा च दृश्यत्यागमनिश्ययात्।। | 12-275-44a 12-275-44b |
नौर्नावीव निबद्धा हि स्रोतसा सनिबन्धना। ह्रियमाणा कथ विप्र कुबुद्धींस्तारयिष्यति।। | 12-275-45a 12-275-45b |
एतद्ब्रवीतु भगवानुपपन्नोऽस्म्यधीहि भो। नैव त्यागी न संतुष्टो नाशोको न निरामयः। नानिर्विवित्सो नावृत्तो नापवृत्तोऽस्ति कश्चन।। | 12-275-46a 12-275-46b 12-275-46c |
भवन्तोऽपि च हृष्यन्ति शोचन्ति च यथा वयम्। इन्द्रियार्थाश्च भवतां समानाः सर्वजन्तुषु।। | 12-275-47a 12-275-47b |
एवं चतुर्णां वर्णानामाश्रमाणां प्रवृत्तिषु। एकमालम्बमानानां निर्णये किं निरामयम्। `एतद्ब्रवीतु भगवानुपपन्नोस्य्यधीहि भो।।' | 12-275-48a 12-275-48b 12-275-48c |
कपिल उवाच। | 12-275-49x |
यद्यदाचरते शास्त्रमर्थ्यं सर्वप्रवृत्तिषु। यस्य यत्र ह्यनुष्ठानं तस्य तत्तु निरामयम्।। | 12-275-49a 12-275-49b |
सर्वं प्रापयति ज्ञानं ये ज्ञानं ह्यनुवर्तते। ज्ञानादपेत्य या वृत्तिः सा विनाशयति प्रजाः।। | 12-275-50a 12-275-50b |
भवन्तो ज्ञानिनो नित्यं सर्वतश्च निरमयाः। ऐकात्म्यं नाम कश्चिद्धि कदाचिदभिपद्यते।। | 12-275-51a 12-275-51b |
शास्त्रं ह्यबुद्ध्वा तत्त्वेन केचिद्वादबलाज्जनाः। कामद्वेषाभिभूतत्वादहंकारवशं गताः।। | 12-275-52a 12-275-52b |
याथातथ्यमविज्ञाय शास्त्राणां शास्त्रदस्यवः। ब्रह्मस्तेना निरारम्भा अपक्वमनसोऽशिवाः।। | 12-275-53a 12-275-53b |
नैर्गुण्यमेव पश्यन्ति न गुणाननुयुञ्जते। तेषां तमः शरीराणां तम एव परायणम्।। | 12-275-54a 12-275-54b |
यो यथाप्रकृतिर्जन्तुः प्रकृतेः स्याद्वशानुगः। तस्य द्वेषश्च कामश्च क्रोधो दम्भोऽनृतं मदः। नित्यमेवानुवर्तन्ते गुणाः प्रकृतिसंभवाः।। | 12-275-55a 12-275-55b 12-275-55c |
ये तद्बुद्ध्वाऽनुपश्यन्तः संत्यजेयुः शुभाशुभम्। परां गतिमभीप्सन्तो यतयः संयमे रताः।। | 12-275-56a 12-275-56b |
स्यूमरश्मिरुवाच। | 12-275-57x |
सर्वमेतत्त्वया ब्रह्मञ्शास्त्रतः परिकीर्तितम्। न ह्यविज्ञाय शास्त्रार्थं प्रवर्तन्ते प्रवृत्तयः।। | 12-275-57a 12-275-57b |
यः कश्चिन्न्याय्य आचारः सर्वं शास्त्रमिति श्रुतिः। यदन्याय्यमशास्त्रं तदित्येषा श्रूयते श्रुतिः।। | 12-275-58a 12-275-58b |
न प्रवृत्तिर्ऋते शास्त्रात्काचिदस्तीति निश्चयः। यदन्यद्वेदवादेभ्यस्तदशास्त्रमिति श्रुतिः।। | 12-275-59a 12-275-59b |
शास्त्रादपेतं पश्यन्ति बहवोऽत्यर्थमानिनः। शास्त्रदोषान्न पश्यन्ति इह चामुत्र चापरे। [इन्द्रियार्थाश्च भवतां समानाः सर्वजन्तुषु।। | 12-275-60a 12-275-60b 12-275-60c |
एवं चतुर्णां वर्णानामाश्रमाणां प्रवृत्तिषु। एकमालम्बमानानां निर्णये सर्वतो दिशम्।। | 12-275-61a 12-275-61b |
आनन्त्यं वदमानेन शक्तेनावर्जितात्मना]। अविज्ञानहतप्रज्ञा हीनप्रज्ञास्तमोवृताः।। | 12-275-62a 12-275-62b |
शक्यं त्वेकेन युक्तेन कृतकृत्येन सर्वशः। पिण्डमात्रं व्यपाश्रित्य चरितुं सर्वतो दिशम्।। | 12-275-63a 12-275-63b |
`नात्यन्तं वन्दमानेन शक्तेन विजितात्मना।' वेदवादं व्यपाश्रित्य मोक्षोऽस्तीति प्रभापितुम्। अपेतन्यायशास्त्रेण सर्वलोकविगर्हिणा।। | 12-275-64a 12-275-64b 12-275-64c |
इदं तु दुष्करं कर्म कुटुम्बमभिसंश्रितम्। दानमध्ययनं यज्ञः प्रजासंतानमार्जवम्।। | 12-275-65a 12-275-65b |
यद्येतदेवं कृत्वाऽपि न विमोक्षोऽस्ति कस्यचित्। धिक्कर्तारं च कार्यं च श्रमश्चायं निरर्थकः।। | 12-275-66a 12-275-66b |
नास्तिक्यमन्यथा च स्याद्वेदानां पृष्ठतः क्रिया। एतस्यानन्त्यमिच्छामि भगवञ्श्रोतुमञ्जसा।। | 12-275-67a 12-275-67b |
तत्त्वं वदस्व मे ब्रह्मन्नुपसन्नोस्म्यधीहि भोः। यथा ते विदितो मोक्षस्तथेच्छाम्युपशिक्षितुम्।। | 12-275-68a 12-275-68b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पञ्चसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 275।। |
[सम्पाद्यताम्]
12-275-11 श्रमस्योपरमो दृष्ट इति ट.थ. पाठः।। 12-275-14 दानं पुनः संग्रहणं संश्रिता पात्रभोजनम्। इति ट. थ. पाठः। दाहः पुनः संचयनं संस्थितः पात्रभोजनमिति ध. पाठः।। 12-275-19 ब्रह्म ब्रह्मणि विन्दतीति ट. थ. पाठः।। 12-275-20 तेषु धर्मः सनातन इति झ. पाठः।। 12-275-22 सर्वज्ञानेन पश्यतः इति ट. पाठः।। 12-275-24 नायोनिजस्येह स्रुवं प्रगृह्णादिति ट.थ. पाठः। नायोनिजस्यैव सुतां प्रगृह्णादिति ध. पाठः।। 12-275-26 साधुरनागसः स्यादिति ट. थ. पाठः।। 12-275-27 धैर्यव्रतं ह्यात्मनीति ध. पाठः।। 12-275-39 यथा च देवब्राह्मण्यमत्यागश्च कलौ यथेति थ. पाठः।। 12-275-44 यथागममुपासीतेति थ. पाठः यथाकाममुपासीतेति ध.पाठः।।
शांतिपर्व-274 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-276 |