महाभारतम्-12-शांतिपर्व-274
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति फलानिच्छया यज्ञादेः कर्तव्यताप्रतिपादकगोकपिलसंवादानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-274-1x |
अविरोधेन भूतानां त्यागः षाङ्गुण्यकारकः। यः स्यादुमयभाग्धर्मस्तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-274-1a 12-274-1b |
गार्हस्थ्यस्य च धर्मस्य योगधर्मस्य चोभयोः। अदूरसंप्रस्थितयोः किंस्विच्छ्रेयः पितामह।। | 12-274-2a 12-274-2b |
भीष्म उवाच। | 12-274-3x |
उभौ धर्मौ महाभागावृभौ परमदुश्चरौ। उभौ नहाफलौ तौ तु सद्भिराचरितावुभौ।। | 12-274-3a 12-274-3b |
अव ते वर्तयिष्यासि प्रामाण्यमुभयोस्तयोः। शुणुष्वैकमताः पार्थ च्छिन्नधर्मार्थसंशयम्।। | 12-274-4a 12-274-4b |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। कपिलस्य गोश्च संवादं तन्निबोध युधिष्ठिर।। | 12-274-5a 12-274-5b |
आम्नायमनुपश्यन्हि पुराणं शाश्वतं ध्रुवम्। नहुषः पूर्वमालेभे त्वष्टुर्गामिति नः श्रुतम्।। | 12-274-6a 12-274-6b |
तां नियुक्तामदीनात्मा सत्वस्थः संयमे रतः। ज्ञानवान्नियताहारो ददर्श कपिलस्तथा।। | 12-274-7a 12-274-7b |
स बुद्धिमुत्तमां प्राप्तो नैष्ठिकीमकुतोभयाम्। स्वरेण शिथिलां सत्यां वेदा 3 इत्यब्रवीत्सकृत्।। | 12-274-8a 12-274-8b |
तां गामृषिः स्यूमरश्मिः प्रविश्य यतिमब्रवीत्। हंहो वेदा 3 यदि मता धर्माः केनापरे मताः।। | 12-274-9a 12-274-9b |
तपस्विनो धृतिमतः श्रुतिविज्ञानचक्षुषः। सर्वमार्षं हि मन्यन्ते व्याहृतं विदितात्मनः।। | 12-274-10a 12-274-10b |
तस्यैवं गततृष्णस्य विज्वरस्य निराशिषः। का विवक्षाऽस्ति वेदेषु निरारम्भस्य सर्वतः।। | 12-274-11a 12-274-11b |
कपिल उवाच। | 12-274-12x |
नाहं वेदान्विनिन्दामि न विवक्ष्यामि कर्हिचित्। पृथगाश्रमिणां कर्माण्येकार्थानीति नः श्रुतम्।। | 12-274-12a 12-274-12b |
गच्छत्येव परित्यागी वानप्रस्थश्च गच्छति। गृहस्थो ब्रह्मचारी च उभौ तावपि गच्छतः।। | 12-274-13a 12-274-13b |
देवयाना हि पन्थानश्चत्वारः शाश्वता मताः। नैषां ज्यायः कनीयस्त्वं फलेषूक्तं बलाबलम्।। | 12-274-14a 12-274-14b |
एवं विदित्वा सर्वार्थानारभेतेति वैदिकम्। नारभेतेति चान्यत्र नैष्ठिकी श्रूयते श्रुतिः।। | 12-274-15a 12-274-15b |
अनारम्भे ह्यदोषः स्यादारम्भे दोष उत्तमः। एवं स्थितस्य शास्त्रस्य दुर्विज्ञेयं बलाबलम्।। | 12-274-16a 12-274-16b |
यदत्र किंचित्प्रत्यक्षमहिंसायाः परं मतम्। ऋते त्वागमशास्त्रेभ्यो ब्रूहि तद्यदि पश्यसि।। | 12-274-17a 12-274-17b |
स्यूमरश्मिरुवाच। | 12-274-18x |
स्वर्गकामो यजेतेति सततं श्रूयते श्रुतिः। फलं प्रकल्प्य पूर्वं हि ततो यज्ञः प्रतायते।। | 12-274-18a 12-274-18b |
अजश्चाश्वश्च मेषश्च र्गौश्च पक्षिगणाश्च ये। ग्राम्यारण्याश्चौषधयः प्राणस्यान्नमिति श्रुतिः।। | 12-274-19a 12-274-19b |
तथैवान्नं ह्यहरहः सायंप्रातर्निरूप्यते। पशवश्चाथ धान्यं च यज्ञस्याङ्गमिति श्रुतिः।। | 12-274-20a 12-274-20b |
एतानि सह यज्ञेन प्रजापतिरकल्पयत्। तेन प्रजापतिर्देवान्यज्ञेनायजत प्रभुः।। | 12-274-21a 12-274-21b |
तदन्योन्यवराः सर्वे प्राणिनः सप्तसप्त च।। | 12-274-22a |
`गौरजो मनुजः श्वा वा अश्वाश्वतरगर्दभाः। एते ग्राम्याः समाख्याताः पशवः सप्त साधुभिः।। | 12-274-23a 12-274-23b |
सिंहा व्याघ्रा वराहाश्च महिषा वारणास्तथा। हरिणः शललाश्चैव सप्तारण्यास्तथा स्मृताः।।' | 12-274-24a 12-274-24b |
यज्ञेषूपाकृतं विश्वं प्राहुरुत्तमसंज्ञितम्।। | 12-274-25a |
एतच्चैवाभ्यनुज्ञातं पूर्वैः पूर्वतरैस्तथा। को जातु न विचिन्वीत विद्वान्स्वां शक्तिमात्मनः।। | 12-274-26a 12-274-26b |
पशवश्च मनुष्याश्च द्रुमाश्चौषधिभिः सह। स्वर्गमेवाभिकाङ्क्षन्ते न च स्वर्गोस्ति ते मखात्।। | 12-274-27a 12-274-27b |
ओषध्यः पशवो वृक्षा वीरुदाज्यं पयो दधि। हविर्भूमिर्दिशः श्रद्धा कालश्चैतानि द्वादश।। | 12-274-28a 12-274-28b |
ऋचो यजूंषि सामानि ऋत्विजश्चापि षोडश। अग्निर्ज्ञेयो गृहपतिः स सप्तदश उच्यते।। | 12-274-29a 12-274-29b |
अङ्गान्येतानि यज्ञस्य यज्ञो मूलमिति श्रुतिः। आज्येन पयसा दध्ना शकृताऽऽमिक्षया त्वचा।। | 12-274-30a 12-274-30b |
बालैः शृङ्गेण पादेन संभवत्येव गौर्मखम्। एवं प्रत्यकेशः सर्वं यद्यदस्य विधीयते।। | 12-274-31a 12-274-31b |
यज्ञं वहन्ति संभूय सहत्विंग्भिः सदक्षिणैः। संहृत्यैतानि सर्वाणि यज्ञं निर्वर्तयन्त्युत।। | 12-274-32a 12-274-32b |
यज्ञार्थानि हि सृष्टानि यथार्था श्रूयते श्रुतिः। एवं पूर्वतराः पूर्वे प्रवृत्ताश्चैव मानवाः।। | 12-274-33a 12-274-33b |
न हिनस्ति नारभते नाभिद्रुह्यति किंचन। यज्ञैर्यष्टव्यमित्येव यो यजत्यफलेप्सया।। | 12-274-34a 12-274-34b |
यज्ञाङ्गान्यपि चैतानि यथोक्तान्यपि सर्वशः। विधिना विधियुक्तानि तारयन्ति परस्परम्।। | 12-274-35a 12-274-35b |
आम्नायमार्षं पश्यामि यस्मिन्वेदाः प्रतिष्ठिताः। तं विद्वांसोऽनुपश्यन्ति ब्राह्मणस्यानुदर्शनात्।। | 12-274-36a 12-274-36b |
ब्राह्मणप्रभवो यज्ञो ब्राह्मणार्पण एव च। अनुयज्ञं जगत्सर्वं यज्ञश्चानुजगत्सदा।। | 12-274-37a 12-274-37b |
ओमिति ब्रह्मणो योनिर्नमः स्वाहा स्वधा वषट्। यस्यैतानि प्रयुज्यन्ते यथाशक्ति कृतान्यपि।। | 12-274-38a 12-274-38b |
न तस्य त्रिषु लोकेषु परलोकभयं विदुः। इति वेदा वदन्तीह सिद्धाश्च परमर्षयः।। | 12-274-39a 12-274-39b |
ऋचो यजूंहि सामानि स्तोत्राश्च विधिचोदिताः। यस्मिन्नेतानि सर्वाणि भवन्तीह स वै द्विजः।। | 12-274-40a 12-274-40b |
अग्न्याधेये यद्भवति यच्च सोमे सुते द्विज। यच्चेतरैर्महायज्ञैर्वेद तद्भगवांस्तथा।। | 12-274-41a 12-274-41b |
तस्माद्ब्रह्मन्यजेच्चैव याजयेच्चाविचारयन्। यजतो यज्ञविधिना प्रेत्य स्वर्गफलं महत्।। | 12-274-42a 12-274-42b |
नायं लोकोस्त्ययज्ञानां परश्चेति विनिश्चयः। वेदवादविदश्चैव प्रमाणमुभयं तदा।। | 12-274-43a 12-274-43b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि चतुःसप्तत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 274।। |
[सम्पाद्यताम्]
12-274-1 योगः पाङ्गुण्यकारित इति ड. पाठः।। 12-274-3 उभौ गार्हस्थ्ययोगधर्मौ।। 12-274-6 त्वष्टुस्त्वष्ट्रे गृहागताय मधुपर्के गामालेभे। यष्टुं गामितीति ट. थ. पाठः।। 12-274-7 नियुक्तां हन्तुं पुरस्कृतां दृष्ट्वा वेदा इत्यव्रवीदिति द्वयोः संबन्धः।। 12-274-8 वेदा इति गर्हायां प्लुतिः।। 12-274-9 प्रविश्य योगबलेनेत्यर्थः। यतिं कपिलमुनिम्। हंहो इति विस्मये। वेदा यदि मताः गर्हितत्वेन संमताः। अत्रापि गर्हार्थायाः प्लुतेरनुवादः। अपरे हिंसाशून्याधर्माः केन मताः। प्रामाण्यमप्रामाण्यं वा कर्मज्ञानकाण्डयोस्तुल्यमतो नान्यतरन्निन्देत्प्रशंसेद्वेति भावः।। 12-274-10 विलक्षणपुरुषस्य भाषितं सत्यमिति जना मन्यन्ते। किं विदितात्मनः नित्यज्ञानवतः परमेश्वरस्य व्याहृतम्।। 12-274-12 विवक्ष्यामि विषमान् वक्ष्यामि।। 12-274-13 एकार्थत्वमाह गच्छत्येवेति। परित्यागी संन्यासी। गच्छत्येव परं पदमिति शेषः।। 12-274-14 देवयानाः देवमात्मानं यान्त्येभिरिति तथाभूताश्चत्वार आश्रमाः।। 12-274-22 तस्माद्यागपराः सर्वे इति ध. पाठः।। 12-274-34 नापि दूह्यति किंचनेति ट. ड. पाठः।। 12-274-39 इति लोका वदन्तीहेति ध. पाठः।। 12-274-41 यच्च सोमे स्थितं जगत्। इति ड. पाठः।।
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