महाभारतम्-12-शांतिपर्व-253
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति अध्यात्मविषयकव्यासवाक्यानुवादः।। 1।।
शुक उवाच। | 12-253-1x |
अध्यात्मं विस्तरेणेह पुनरेव वदस्व मे। यदध्यात्मं यथा वेद भगवन्नृषिसत्तम।। | 12-253-1a 12-253-1b |
व्यास उवाच। | 12-253-2x |
अध्यात्मं यदिदं तात पुरुषस्येह विद्यते। तत्तेऽहं वर्तयिष्यामि तस्य व्याख्यामिमां शृणु।। | 12-253-2a 12-253-2b |
भूमिरापस्तथा ज्योतिर्वायुराकाश एव च। महाभूतानि भूतानां सागरस्योर्मयो यथा।। | 12-253-3a 12-253-3b |
प्रसार्येह यथाऽङ्गानि कूर्मः संहरते पुनः। तद्वन्महान्ति भूतानि यवीयःसु विकुर्वते।। | 12-253-4a 12-253-4b |
इति तन्मयमेवेदं सर्वं स्थावरजङ्गमम्। सर्गे च प्रलये चैव तस्मिन्निर्दिश्यते तथा।। | 12-253-5a 12-253-5b |
महाभूतानि पञ्चैव सर्वभूतेषु भूतकृत्। अकरोत्तात वैषम्यं यस्मिन्यदनुपश्यति।। | 12-253-6a 12-253-6b |
शुक उवाच। | 12-253-7x |
अकरोद्यच्छरीरेषु कथं तदुपलक्षयेत्। इन्द्रियाणि गुणाः केचित्कथं तानुपलक्षयेत्।। | 12-253-7a 12-253-7b |
व्यास उवाच। | 12-253-8x |
एतत्ते वर्तयिष्यामि यथावदनुपूर्वकः। शृणु तत्त्वमिहैकाग्रो यथा तत्त्वं यथा च तत्।। | 12-253-8a 12-253-8b |
शब्दः श्रोत्रं तथा खानि त्रयमाकाशसंभवम्। प्राणश्रेष्टा तथा स्पर्श एते वायुगुणास्त्रयः।। | 12-253-9a 12-253-9b |
रूपं चक्षुर्विपाकश्च त्रिधा ज्योतिर्विधीयते। रसोऽथ रसनं स्नेहो गुणास्त्वेते त्रयोऽम्भसः।। | 12-253-10a 12-253-10b |
घ्रेयं घ्राणं शरीरं च भूमेरेते गुणास्त्रयः। `श्रोत्रं त्वक्चक्षुषी जिह्वा नासिका चैव पञ्चमी।। | 12-253-11a 12-253-11b |
एतावानिन्द्रियग्रामो व्याख्यातः पाञ्चभौतिकः। वायोः स्पर्शो रसोऽद्भ्यश्च ज्योतिषो रुपमुच्यते। आकाशप्रभवः शब्दो गन्धो भूमिगुणः स्मृतः।। | 12-253-12a 12-253-12b 12-253-12c |
मनो बुद्धिः स्वभावश्च त्रय एते मनोमयाः। न गुणानतिवर्तन्ते गुणेभ्यः परमागताः।। | 12-253-13a 12-253-13b |
यथा कूर्म इहाङ्गानि प्रसार्य विनियच्छति। एवमेवेन्द्रियग्रामं बुद्धिः सृष्ट्वा नियच्छति।। | 12-253-14a 12-253-14b |
यदूर्ध्वं पादतलयोरवाङ्भूर्ध्नश्च पश्यति। एतस्मिन्नेव कृत्ये तु वर्तते बुद्धिरुत्तमा।। | 12-253-15a 12-253-15b |
गुणान्नेनीयते बुद्धिर्बुद्धिरेवेन्द्रियाण्यपि। मनः षष्ठानि सर्वाणि बुद्ध्य भावे कृतो गुणाः।। | 12-253-16a 12-253-16b |
इन्द्रियाणि नरे पञ्च षष्ठं तु मन उच्यते। सप्तमीं बुद्धिमेवाहुः क्षेत्रज्ञं पुनरष्टमम्।। | 12-253-17a 12-253-17b |
चक्षुरालोचनायैव संशयं कुरुते मनः। बुद्धिरध्यवसानाय साक्षी क्षेत्रज्ञ उच्यते।। | 12-253-18a 12-253-18b |
रजस्तमश्च सत्वं च त्रय एते स्वयोनिजाः। समाः सर्वेषु भूतेषु तान्गुणानुपलक्षयेत्।। | 12-253-19a 12-253-19b |
तत्र यत्प्रीतिसंयुक्तं किंचिदात्मनि लक्षयेत्। प्रशान्तमिव संशुद्धं सत्वं तदुपधारयेत्।। | 12-253-20a 12-253-20b |
यत्तु संतापसंयुक्तं काये मनसि वा भवेत्। प्रवृत्तं रज इत्येवं तत्र चाप्युपलक्षयेत्।। | 12-253-21a 12-253-21b |
यत्तु संमोहसंयुक्तमव्यक्तविषयं भवेत्। अप्रतर्क्यमविज्ञेयं तमस्तदुपधार्यताम्।। | 12-253-22a 12-253-22b |
प्रहर्षः प्रीतिरानन्दः साम्यं स्वस्थात्मचित्तता। अकस्माद्यदि वा कस्माद्वर्तन्ते सात्विका गुणाः।। | 12-253-23a 12-253-23b |
अभिमानो मृषावादो लोभो मोहस्तथाऽक्षमा। लिङ्गानि रजसस्तानि वर्तन्ते हेत्वहेतुतः।। | 12-253-24a 12-253-24b |
तथा मोहः प्रमादश्च निद्रा तन्द्रा प्रबोधिता। कथंचिदभिवर्तन्ते विज्ञेयास्तामसा गुणाः।। | 12-253-25a 12-253-25b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि त्रिपञ्चशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 253।। |
12-253-3 मिभूतानि भूतानामिति ध. पाठः।। 12-253-6 सुरनरतिर्यगादिरूण वैषम्यमकरोत्। तत्र हेतुः। यस्मिन्कर्मणि निमित्ते सति यदनुपश्यति अन्तकाले। यंयं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते परम्।। तंतमेवैतीति स्मृतेः।। 12-253-9 पर्शः स्पर्शनेन्द्रिय --- युगुणा वायु---।। 12-253-10 विपाको जाठरः।। 12-253-11 शरीरं कठिनांशबाहुल्यात्पार्थिवम्। इन्द्रियग्रामैः सह पाञ्चभौतिक्रो विकारः।। 12-253-12 स्पर्शादयो वाय्वादीनां गुणास्तद्विकारैः स्पर्शनादीन्द्रियैर्गृह्यन्ते। वायोः प्राण इति ध. पाठः।। 12-253-13 एतेत्मयोनिजा इति थ. पाठः।।
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