महाभारतम्-12-शांतिपर्व-095
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति युद्धधर्मकथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-95-1x |
अथ यो विजिगीषेत क्षत्रियः क्षत्रियं युधि। कस्तस्य विजये धर्मो ह्येतं पृष्टो ब्रवीहि मे।। | 12-95-1a 12-95-1b |
भीष्म उवाच। | 12-95-2x |
ससहायोऽसहायो वा राष्ट्रमागम्य भूमिपः। ब्रूयादहं यो राजेति रक्षिष्यामि च वः सदा।। | 12-95-2a 12-95-2b |
मम धर्मबलिं दत्त किंवा मां प्रतिपत्स्यथ। ते चोक्तमागतं तत्र घृणीयुः कुशलं भवेत्।। | 12-95-3a 12-95-3b |
ते चेदक्षत्रियाः सन्तो विरुध्येरन्कथंचन। सर्वोपायैर्नियन्तव्या विकर्मस्था नराधिप।। | 12-95-4a 12-95-4b |
अशस्त्रं क्षत्रियं मत्वा शस्त्रं गृह्णात्यथापरः। त्राणायाप्यसमर्थं तं मन्यमानमतीव च।। | 12-95-5a 12-95-5b |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-95-6x |
अथः यः क्षत्रियो राजा क्षत्रियं प्रत्युपाव्रजेत्। कथं संप्रतियोद्धव्यस्तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-95-6a 12-95-6b |
भीष्म उवाच। | 12-95-7x |
नासन्नह्यो नाकवचो योद्धव्यः क्षत्रियो रणे। एक एकेन भाव्यश्च विसृजेति क्षिपामि च।। | 12-95-7a 12-95-7b |
स चेत्सन्नद्ध आगच्छेत्सन्नद्धव्यं ततो भवेत्। स चेत्ससैन्य आगच्छेत्ससैन्यस्तमथाह्वयेत्।। | 12-95-8a 12-95-8b |
स चेन्निकृत्या युध्येत निकृत्या प्रतियोधयेत्। अथ चेद्धर्मतो युध्येद्धर्मेणैव निवारयेत्।। | 12-95-9a 12-95-9b |
नाश्वेन रथिनं यायादुदियाद्रथिनं रथी। व्यसने न प्रहर्तव्यं न भीताय जिताय च।। | 12-95-10a 12-95-10b |
नेषुर्लिप्तो न कर्णी स्यादसतामेतदायुधम्। यथार्थमेव योद्धव्यं न क्रुद्ध्येत जिघांसतः।। | 12-95-11a 12-95-11b |
`नास्त्येकस्य गजो युद्धे गजश्चेकस्य विद्यते। न पदातिर्गजं युध्येन्न गतेन पदातिनम्।। | 12-95-12a 12-95-12b |
हस्तिना योधयेन्नागं कदाचिच्छिक्षितो हयः। दिव्यास्त्रबलसंपन्नः कामं युध्येत सर्वदा। नागे भूमौ समे चैव रथेनाश्वेन वा पुनः।। | 12-95-13a 12-95-13b 12-95-13c |
रामरावणयोर्युद्धे हरयो वै पदातयः। लक्ष्मणश्च महाभागस्तथा राजन्विभीषणः।। | 12-95-14a 12-95-14b |
रावणस्यान्तकाले च रथेनैन्द्रेण राधवः। निजघान दुराचारं रावणं पापकारिणम्।। | 12-95-15a 12-95-15b |
दिव्यास्त्रबलसंपन्ने सर्वमेतद्विधीयते। देवासुरेषु सर्वेषु दृष्टमेतत्पुरातनैः।।' | 12-95-16a 12-95-16b |
[साधूनां तु यदा भेदात्साधुश्चेद्व्यसनी भवेत्।] निष्प्राणो नाभिहन्तव्यो नानपत्यः कथंचन। भग्नशस्त्रो विपन्नश्च कृत्तज्यो हतवाहनः। | 12-95-17a 12-95-17b 12-95-17c |
चिकित्स्यः स्यात्स्वविषये प्राप्यो वा स्वगृहे भवेत्। निर्व्रणश्च स भोक्तव्य एष धर्मः सनातनः।। | 12-95-18a 12-95-18b |
तस्माद्धर्मेण योद्धव्यमिति स्वायंभुवोऽब्रवात्। सत्सु नित्यः सतां धर्मस्तमास्थाय न नाशयेत्।। | 12-95-19a 12-95-19b |
यो वै जयत्यधर्मेण क्षत्रियो धर्मसंगरः। आत्मानमात्मना हन्ति पापो निकृतिजीवनः।। | 12-95-20a 12-95-20b |
कर्म चैतदसाधूनां साधून्योऽसाधुना जयेत्। धर्मेण निधनं श्रेयो न जयः पापकर्मणा।। | 12-95-21a 12-95-21b |
नाधर्मश्चरितो राजन्सद्यः फलति गौरिव। मूलानि च प्रशाखाश्च दहन्समधिगच्छते।। | 12-95-22a 12-95-22b |
पापेन कर्मणा वित्तं लब्ध्वा पापः प्रहृष्यति। स वर्धमानस्तेनैव पापः पापे प्रसज्जति।। | 12-95-23a 12-95-23b |
न धर्मोऽस्तीति मन्वानः शुचीनवहसन्निव। अश्रद्दधानश्च भवेद्विनाशमुपगच्छति स बद्धो वारुणैः पाशैरमर्त्यैरवमन्यते। | 12-95-24a 12-95-24b 12-95-24c |
महादृतिरिवाध्मातः स्वकृतेनैव वर्धते। ततः समूलो ह्रियते नदीकूलादिव द्रुमा।। | 12-95-25a 12-95-25b |
अथैनमभिनिन्दन्ति भिन्नं कुम्भमिवाश्यानि। तस्माद्धर्मेण विजयं कोशं लिप्सेत भूमिपः।। | 12-95-26a 12-95-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि पञ्चनवतितमोऽध्यायः।। 95।। |
12-95-2 राष्ट्रं परकीयम्।। 12-95-5 त्राणायाप्यसमर्थं परं चातीव मन्यमानं क्षत्रियमशस्त्रं ज्ञात्वाऽपरो हीनोऽपि शस्त्रं गृह्णाति।। 12-95-11 लिप्तो विवदिग्धः। कर्णी ऋजुः प्रतीपकण्टकः।। 12-95-25 महादृतिर्महांश्चर्मकोशः। आध्मातो वायुना पूरितः।।
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