महाभारतम्-12-शांतिपर्व-323
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति जनकयाज्ञवल्क्यसंवादानुवादः।। 1।।
याज्ञवल्क्य उवाच। | 12-323-1x |
अव्यक्तस्थं परं यत्तत्पृष्टस्तेऽहं नराधिप। परं गुह्यमिमं प्रश्नं शृणुष्वावहितो नृप।। | 12-323-1a 12-323-1b |
यथार्षेणेह विधिना चरताऽवमतेन ह। मयाऽऽदित्यादवाप्तानि यजूंषि मिथिलाधिप।। | 12-323-2a 12-323-2b |
महता तपसा देवस्तपिष्णुः सेवितो मया। प्रीतेन चाहं विभुना सूर्येणोक्तस्तदाऽनघ।। | 12-323-3a 12-323-3b |
वरं वृणीष्व विप्रर्षे यदिष्टं ते सुदुर्लभम्। तं ते दास्यामि प्रीतात्मा मत्प्रसादो हि दुर्लभः।। | 12-323-4a 12-323-4b |
ततः प्रणम्य शिरसा मयोक्तस्तपतांवरः। यजूंषि नोपयुक्तानि क्षिप्रमिच्छामि वेदितुम्।। | 12-323-5a 12-323-5b |
ततो मां भगवानाह वितरिष्यामि ते द्विज। सरस्वतीह वाग्भूता शरीरं ते प्रवेक्ष्यति।। | 12-323-6a 12-323-6b |
ततो मामाह भगवानास्यं स्वं विवृतं कुरु। विवृतं च ततो मेऽऽस्यं प्रविष्टा च सरस्वती।। | 12-323-7a 12-323-7b |
ततो विदह्यमानोऽहं प्रविष्टोऽम्भस्तदाऽनघ। अविज्ञानादमर्षाच्च भास्करस्य महात्मनः।। | 12-323-8a 12-323-8b |
ततो विदह्यमानं मामुवाच भगवान्रविः। मुहूर्तं सह्यतां दाहस्ततः शीतीभविष्यति।। | 12-323-9a 12-323-9b |
शीतीभूतं च मां दृष्ट्वा भगवानाह भास्करः। प्रतिभास्यति ते वेदः सखिलः सोत्तरो द्विज।। | 12-323-10a 12-323-10b |
कृत्स्नं शतपथं चैव प्रणेष्यसि द्विजर्षभ। तस्यान्ते चाषुनर्भावे बुद्धिस्तव भविष्यति।। | 12-323-11a 12-323-11b |
प्राप्स्यसे च यदिष्टं तत्साङ्ख्ययोगेप्सितं पदम्। एतावदुक्त्वा भगवानस्तमेवाभ्यवर्तत।। | 12-323-12a 12-323-12b |
ततोऽनुव्याहृतं श्रुत्वा गते देवे विभावसौ। गृहमागत्य संहृष्टोऽचिन्तयं वै सरस्वतीम्।। | 12-323-13a 12-323-13b |
ततः प्रवृत्ताऽतिशुभा स्वरव्यञ्जनभूषिता। ओंकारमादितः कृत्वा मम देवी सरस्वती।। | 12-323-14a 12-323-14b |
ततोऽहमर्ध्यं विधिवत्सरस्वत्यै न्यवेदयम्। परं यत्नमवाप्यैव निषण्णस्तत्परायणः।। | 12-323-15a 12-323-15b |
ततः शतपथं कृत्स्नं सरहस्यं ससंग्रहम्। चक्रे सपरिशेषं च हर्षेण परमेण ह।। | 12-323-16a 12-323-16b |
कृत्वा चाध्ययनं तेषां शिष्याणां शतमुत्तमम्। विप्रियार्थं सशिष्यस्य मातुलस्य महात्मनः।। | 12-323-17a 12-323-17b |
ततः सशिष्येण मया सूर्येणेव गभस्तिभिः। व्यस्तो यज्ञो महाराज पितुस्तव महात्मनः।। | 12-323-18a 12-323-18b |
मिषतो देवलस्यापि ततोऽर्धं हृतवान्वसु। स्ववेददक्षिणायार्थे विमर्दे मातुलेन ह।। | 12-323-19a 12-323-19b |
सुमन्तुनाऽथ पैलेन तथा जैमिनिना च वै। पित्रा ते मुनिभिश्चैव ततोऽहमनुमानितः।। | 12-323-20a 12-323-20b |
दश पञ्च च प्राप्तानि यजूंष्यर्कान्मयाऽनघ। तथैव रोमहर्षेण पुराणमवधारितम्।। | 12-323-21a 12-323-21b |
बीजमेतत्पुरस्कृत्य देवीं चैव सरस्वतीम्। सूर्यस्य चानुभावेन प्रवृत्तोऽहं नराधिप।। | 12-323-22a 12-323-22b |
कर्तुं शतपथं चेदमपूर्वं च कृतं मया। यथाभिलपितं मार्गं तथा तच्चोपपादितम्।। | 12-323-23a 12-323-23b |
शिष्याणामखिलं कृत्स्नमनुज्ञातं ससंग्रहम्। सर्वे च शिष्याः शुचयो गताः परमहर्षिताः।। | 12-323-24a 12-323-24b |
शाखाः पञ्चदशेमास्तु विद्या भास्करदर्शिता। प्रतिष्ठाप्य यथाकामं वेद्यं तदनुचितयम्।। | 12-323-25a 12-323-25b |
किमत्र ब्रह्मण्यमृतं किंच वेद्यमनुत्तमम्। चिन्तयंस्तत्र चागत्य गन्धर्वो मामपृच्छत।। | 12-323-26a 12-323-26b |
विश्वावसुस्ततो राजन्वेदान्तज्ञानकोविदः। चतुर्विशांस्ततोऽपृच्छत्प्रश्नान्वेदस्य पार्थिव।। | 12-323-27a 12-323-27b |
पञ्चविंशतिमं प्रश्नं पप्रच्छान्वीक्षिकीं तदा। `तथैव पुरुषव्याघ्र मित्रं वरुणमेव च।।' | 12-323-28a 12-323-28b |
ज्ञानं ज्ञेयं तथा ज्ञोऽज्ञः कस्तपा अतपास्तथा। सूर्यातिसूर्य इति च विद्याविद्ये तथैव च।। | 12-323-29a 12-323-29b |
वेद्यावेद्यं तथा राजन्नचलं चलमेव च। अव्ययं चाक्षरं क्षेम्यमेतत्प्रश्नमनुत्तमम्।। | 12-323-30a 12-323-30b |
अथोक्तश्च महाराज राजा गन्धर्वसत्तमः। पृष्टवानानुपूर्व्येण प्रश्नमर्थवदुत्तमम्।। | 12-323-31a 12-323-31b |
मुहूर्तमुष्यतां तावद्यावदेनं विचिन्तये। बाढमित्येव कृत्वा स तूर्ष्णीं गन्धर्व आस्थितः।। | 12-323-32a 12-323-32b |
ततोऽनुचिन्तयमहं भूयो देवीं सरस्वतीम्। मनसा स च मे प्रश्नो दध्नो धृतमिवोद्धृतः।। | 12-323-33a 12-323-33b |
तत्रोपनिषदं चैव परिशेषं च पार्थिव। मथ्नामि मनसा तात दृष्ट्वा चान्वीक्षिकीं पराम्।। | 12-323-34a 12-323-34b |
चतुर्थी राजशार्दूल विद्यैषा सांपरायिकी। उदीरिता मया तुभ्यं पञ्चविंशाऽधितिष्ठता।। | 12-323-35a 12-323-35b |
अथोक्तस्तु मया राजन्राजा विश्वावसुस्तदा। श्रूयतां यद्भवानस्मान्प्रश्नं संपृष्टवानिह।। | 12-323-36a 12-323-36b |
विश्वाविश्वेति यदिदं गन्धर्वेन्द्रानुपृच्छसि। विश्वाव्यक्तं परं विद्याद्भूतभव्यभयंकरम्।। | 12-323-37a 12-323-37b |
त्रिगुणं गुणकर्तृत्वाद्विश्वान्यो निष्कलस्तथा। विश्वाविश्वेति मिथुनमेवमेवानुदृश्यते।। | 12-323-38a 12-323-38b |
अव्यक्तं प्रकृतिः प्राहुः पुरुषेति च निर्गुणम्। तथैव मित्रं पुरुषं वरुणं प्रकृतिं तथा।। | 12-323-39a 12-323-39b |
ज्ञानं तु प्रकृतिं प्राहुर्ज्ञेयं पुरुषमेव च। अज्ञमव्यक्तमित्युक्तं ज्ञस्तु निष्कल उच्यते।। | 12-323-40a 12-323-40b |
कस्तपा अतपाः प्रोक्तः कोसौ पुरुष उच्यते। तपास्तु प्रकृतिं प्राहुरतपा निष्कलः स्मृतः।। | 12-323-41a 12-323-41b |
`सूर्यमव्यक्तमित्युक्तमतिसूर्यस्तु निष्कलः। अविद्या प्रोक्तमव्यक्तं विद्या पुरुष उच्यते।।' | 12-323-42a 12-323-42b |
तथैवावेद्यमव्यक्तं वेद्यः पुरुष उच्यते। चलाचलमिति प्रोक्तं त्वया तदपि मे शृणु।। | 12-323-43a 12-323-43b |
चलां तु प्रकृतिं प्राहुः कारणं क्षेपसर्गयोः। अक्षेपसर्गयोः कर्ता निश्चलः पुरुषः स्मृतः।। | 12-323-44a 12-323-44b |
अज्ञावुभौ ध्रुवौ चैव अक्षयौ चाप्युभावपि।। | 12-323-45a |
अजौ नित्यावुभौ प्राहुरध्यात्मगतिनिश्चयाः। अक्षयत्वात्प्रजनने अजमत्राहुरव्ययम्। अक्षयं पुरुषं प्राहुः क्षयो ह्यस्य न विद्यते।। | 12-323-46a 12-323-46b 12-323-46c |
गुणक्षयत्वात्प्रकृतिः कर्तृत्वादक्षयं बुधाः। एषा तेऽन्वीक्षिकी विद्या चतुर्थी सांपरायिकी।। | 12-323-47a 12-323-47b |
विद्योपेतं धनं कृत्वा कर्मणा नित्यकर्मणि। एकान्तदर्शना वेदाः सर्वे विश्वावसो स्मृताः।। | 12-323-48a 12-323-48b |
जायन्ते च म्रियन्ते च यस्मिन्नेते यतश्च्युताः। वेदार्थं ये न जानीते वेद्यं गन्धर्वसत्तम।। | 12-323-49a 12-323-49b |
साङ्गोपाङ्गानपि यदि पञ्च वेदानधीयते। वेदवेद्यं न जानीते वेदभारवहो हि सः।। | 12-323-50a 12-323-50b |
यो घृतार्थी खराक्षीरं मथेद्गन्धर्वसत्तम। विष्ठां तत्रानुपश्येत न मण्डं न च वै घृतम्।। | 12-323-51a 12-323-51b |
तथा वेद्यमवेद्यं च वेदविद्यो न विन्दति। स केवलं मूढमतिर्वेदभारवहः स्मृतः।। | 12-323-52a 12-323-52b |
द्रष्टव्यौ नित्यमेवैतौ तत्परेणान्तरात्मना। यथाऽस्य जन्मनिधने न भवेतां पुनः पुनः।। | 12-323-53a 12-323-53b |
अजस्रं जन्मनिधनं चिन्तयित्वा त्रयीमिमाम्। परित्यज्य क्षयमिह अक्षयं धर्ममास्थितः।। | 12-323-54a 12-323-54b |
यदाऽनुपश्यतेऽत्यन्तमहन्यहनि काश्यप। तदा स केवलीभूतः षङ्विंशमनुपश्यति।। | 12-323-55a 12-323-55b |
अन्यश्च शाश्वतो व्यक्तस्तथाऽन्यः पञ्चविंशकः। तत्स्थं समनुपश्यन्ति तमेकमिति साधवः।। | 12-323-56a 12-323-56b |
तेनैतं नाभिनन्दन्ति पञ्चविंशकमच्युतम्। जन्ममृत्युभयाद्योगाः सांख्याश्च परमैषिणः।। | 12-323-57a 12-323-57b |
विश्वावसुरुवाच। | 12-323-58x |
पञ्चविंशं यदेतत्ते प्रोक्तं ब्राह्मणसत्तम। तदहं न तथा वेद्मि तद्भवान्वक्तुमर्हति।। | 12-323-58a 12-323-58b |
जैगीषव्यस्यासितस्य देवलस्य मया श्रुतम्। पराशरस्य विप्रर्षेर्वार्षगण्यस्य धीमतः।। | 12-323-59a 12-323-59b |
भिक्षोः पञ्चशिखस्यास्य कपिलस्य शुकस्य च। गौतमस्याष्टिंषेणस्य गर्गस्य च महात्मनः।। | 12-323-60a 12-323-60b |
नारदस्यासुरेश्चैव पुलस्त्यस्य च धीमतः। सनत्कुमारस्य ततः शुक्रस्य च महात्मनः।। | 12-323-61a 12-323-61b |
कश्यपस्य पितुश्चैव पूर्वमेव मया श्रुतम्। तदनन्तरं च रुद्रस्य विश्वरूपस्य धीमतः।। | 12-323-62a 12-323-62b |
दैवतेभ्यः पितृभ्यश्च दैतेयेभ्यस्ततस्ततः। प्राप्तमेतन्मया कृत्स्नं वेद्यं नित्यं वदन्त्युत।। | 12-323-63a 12-323-63b |
तस्मात्तद्वै भवद्बुद्ध्या श्रोतुमिच्छामि ब्राह्मण। भवान्प्रबर्हः शास्त्राणां प्रगल्भश्चातिबुद्धिमान्।। | 12-323-64a 12-323-64b |
न तवाविदितं किंचिद्भवाञ्श्रुतिनिधिः स्मृतः। कथ्यसे देवलोके च पितृलोके च ब्राह्मण।। | 12-323-65a 12-323-65b |
ब्रह्मलोकगताश्चैव कथयन्ति महर्षयः। पतिश्च तपतां शश्वदादित्यस्तव भाषिता।। | 12-323-66a 12-323-66b |
साङ्ख्यज्ञानं त्वया ब्रह्मन्नवाप्तं कृत्स्नमेव च। तथैव योगशास्त्रं च याज्ञवल्क्य विशेषतः।। | 12-323-67a 12-323-67b |
निःसंदिग्धं प्रबुद्धस्त्वं बुध्यमानश्चराचरम्। श्रोतुमिच्छामि तज्ज्ञानं घृतं मण्डमयं यथा।। | 12-323-68a 12-323-68b |
याज्ञवल्क्य उवाच। | 12-323-69x |
कृत्स्नधारिणमेव त्वां मन्ये गन्धर्वसत्तम। जिज्ञासमे च मां राजंस्तन्निबोध यथाश्रुतम्।। | 12-323-69a 12-323-69b |
बुध्यमानो हि प्रकृतिं बुध्यते पञ्चविंशकः। न तु बुध्यति गन्धर्वप्रकृतिः पञ्चविंशकम्।। | 12-323-70a 12-323-70b |
अनेन प्रतिबोधेन प्रधानं प्रवदन्ति तत्। साङ्ख्ययोगार्थतत्त्वज्ञा यथ्नाश्रुतिनिदर्शनात्।। | 12-323-71a 12-323-71b |
पश्यंस्तथैव चापश्यन्पश्यत्यन्यः सदाऽनघ। षङ्विंशं पञ्चविंशं च चतुर्विशं च पश्यति।। | 12-323-72a 12-323-72b |
न तु पश्यति पश्यंस्तु यश्चैनमनुपश्यति। पञ्चविंशोऽभिमन्येत नान्योऽस्ति परतो मम।। | 12-323-73a 12-323-73b |
न चतुर्विशको ग्राह्यो मनुजैर्ज्ञानदर्शिभिः। मत्स्यो वोदकमन्वेति प्रवर्तेत प्रवर्तनात्।। | 12-323-74a 12-323-74b |
यथैव बुध्यते मत्स्यस्तथैषोऽप्यनुबुध्यते। स स्नेहात्सहवासाच्च साभिमानाच्च नित्यशः।। | 12-323-75a 12-323-75b |
स निमज्जति कालस्य यदैकत्वं न बुध्यते। उन्मज्जति हि कालस्य समत्वेनाभिसंवृतः।। | 12-323-76a 12-323-76b |
यदा तु मन्यतेऽन्योऽहमन्य एष इति द्वजिः। तदा स केवलीभूतः षङ्विंशमनुपश्यति।। | 12-323-77a 12-323-77b |
अन्यश्च राजन्परमस्तथाऽन्यः पञ्चविंशकः। तत्स्थत्वादनुपश्यन्ति एक एवेति साधवः।। | 12-323-78a 12-323-78b |
तेनैतन्नाभिनन्दन्ति पञ्चविंशकमच्युतम्। जन्ममृत्युभयाद्भीता योगाः साङ्ख्याश्च काश्यप। षङ्विंशमनुपश्यन्तः शुचयस्तत्परायणाः।। | 12-323-79a 12-323-79b 12-323-79c |
यदा स केवलीभूतः षङ्विंशमनुपश्यति। तदा स सर्वविद्विद्वान्न पुनर्जन्म विन्दति।। | 12-323-80a 12-323-80b |
एवमप्रतिबुद्धश्च बुध्यमानश्च तेऽनघ। बुद्धिश्चोक्ता यथातत्त्वं मया श्रुतिनिदर्शनात्।। | 12-323-81a 12-323-81b |
पश्यापश्यं यो न पश्येत्क्षेम्यं तत्वं च काश्यप। केवलाकेवलं चान्यत्पञ्चविंशं परं च यत्।। | 12-323-82a 12-323-82b |
विश्वावसुरुवाच। | 12-323-83x |
तथ्यं शुभं चैतदुक्तं त्वया विभो। सम्यक्क्षेम्यं दैवताद्यं यथावत्। स्वस्त्यक्षयं भवतश्चास्तु नित्यं बुद्ध्या सदा बुद्धियुक्तं नमस्ये।। | 12-323-83a 12-323-83b 12-323-83c 12-323-83d |
याज्ञवल्क्य उवाच। | 12-323-84x |
एवमुक्त्वा संप्रयातो दिवं स विभ्राजन्वै श्रीमता दर्शनेन। दृष्टश्च तुष्ट्या परयाऽभिनन्द्य प्रदक्षिणं मम कृत्वा महात्मा।। | 12-323-84a 12-323-84b 12-323-84c 12-323-84d |
ब्रह्मादीनां खेचराणां क्षितौ च ये चाधस्तात्संवसन्ते नरेन्द्र। तत्रैव तद्दर्शनं दर्शयन्वै सम्यक्क्षेम्यं ये पथं संश्रिता वै।। | 12-323-85a 12-323-85b 12-323-85c 12-323-85d |
साङ्ख्याः सर्वे साङ्ख्यधर्मे रताश्च तद्वद्योगा योगधर्मे रताश्च। ये चाप्यन्ये मोक्षकामा मनुष्या स्तेषामेतद्दर्शनं ज्ञानदृष्टम्।। | 12-323-86a 12-323-86b 12-323-86c 12-323-86d |
ज्ञानान्मोक्षो जायते राजसिंह नास्त्यज्ञानादेवमाहुर्नरेन्द्र। तस्माज्ज्ञानं तत्त्वतोऽन्तेषितव्यं येनात्मानं मोक्षयेज्जन्ममृत्योः।। | 12-323-87a 12-323-87b 12-323-87c 12-323-87d |
प्राप्य ज्ञानं ब्राह्मणात्क्षत्रियाद्वा वैश्याच्छ्रद्रादपि नीचादभीक्ष्णम्। श्रद्धातव्यं श्रद्दधानेन नित्यं न श्रद्धिनं जन्ममृत्यू विशेताम्।। | 12-323-88a 12-323-88b 12-323-88c 12-323-88d |
सर्वं विश्वं ब्रह्म चैतत्समस्तम्।। | 12-323-89f |
ब्रह्मास्यतो ब्राह्मणाः संप्रसूता बाहुभ्यां वै क्षत्रियाः संप्रसूताः। नाभ्यां वैश्याः पादतश्चापि शूद्राः सर्वे वर्णा नान्यथा वेदितव्याः।। | 12-323-90a 12-323-90b 12-323-90c 12-323-90d |
अज्ञानतः कर्मयोनिं भजन्ते तांतां राजंस्ते यथा यान्त्यभावम्। तथा वर्णा ज्ञानहीनाः पतन्ते घोरादज्ञानात्प्राकृतं योनिजालम्।। | 12-323-91a 12-323-91b 12-323-91c 12-323-91d |
तस्माज्ज्ञानं सर्वतो मार्गितव्यं सर्वत्रस्थं चैतदुक्तं मया ते। तत्स्थो ब्रह्मा तस्थिवांश्चापरो य स्तस्मै नित्यं मोक्षमाहुर्नरेन्द्र।। | 12-323-92a 12-323-92b 12-323-92c 12-323-92d |
यत्ते पृष्टं तन्मया चोपदिष्टं याथातथ्यं तद्विशोको भजस्व। राजन्गच्छस्वैतदर्थस्य पारं सम्यक्प्रोक्तं स्वस्ति ते त्वस्तु नित्यम्।। | 12-323-93a 12-323-93b 12-323-93c 12-323-93d |
भीष्म उवाच। | 12-323-94x |
स एवमनुशिष्टस्तु याज्ञवल्क्येन धीमता। प्रीतिमानभवद्राजा मिथिलाधिपतिस्तदा।। | 12-323-94a 12-323-94b |
गते मुनिवरे तस्मिन्कृते चापि प्रदक्षिणम्। दैवरातिर्नरपतिरासीनस्तत्र मोक्षवित्।। | 12-323-95a 12-323-95b |
गोकोटिं स्पर्शयामास हिरण्यस्य तथैव च। रत्नाञ्जलिमथैकैकं ब्राह्मणेभ्यो ददौ तदा।। | 12-323-96a 12-323-96b |
वेदहराज्यं च तदा प्रतिष्ठाप्य सुतस्य वै। यतिधर्ममुपास्यंश्चाप्यवसन्मिथिलाधिपः।। | 12-323-97a 12-323-97b |
साङ्ख्यज्ञानमधीयानो योगशास्त्रं च कृत्स्नशः। धर्माधर्मं च राजेन्द्र प्राकृतं परिगर्हयन्।। | 12-323-98a 12-323-98b |
अनन्त इति कृत्वा स नित्यं केवलमेव च। धर्माधर्मौ पुण्यपापे सत्यासत्ये तथैव च।। | 12-323-99a 12-323-99b |
जन्ममृत्यू च राजेन्द्र प्राकृतं तदचिन्तयत्। ब्रह्माव्यक्तस्य कर्मेदमिति नित्यं नराधिप।। | 12-323-100a 12-323-100b |
पश्यन्ति योगाः साङ्ख्याश्च स्वशास्त्रकृतलक्षणाः। इष्टानिष्टविमुक्तं हि तस्थौ ब्रह्म परात्परम्।। | 12-323-101a 12-323-101b |
नित्यं तदाहुर्विद्वांसः शुचि तस्माच्छुचिर्भव। दीयते यच्च लभते दत्तं यच्चानुमन्यते।। | 12-323-102a 12-323-102b |
`अव्यक्तेनेति तच्चिन्त्यमन्यथा मा विचन्तय।' ददाति च नरश्रेष्ठ प्रतिगृह्णाति यच्च ह। ददात्यव्यक्त इत्येतत्प्रतिगृह्णाति यच्च वै।। | 12-323-103a 12-323-103b 12-323-103c |
आत्मा ह्येवात्मनो ह्येकः कोऽन्यस्तस्मात्परो भवेत्। एवं मन्यस्व सततमन्यथा मा विचिन्तय।। | 12-323-104a 12-323-104b |
यस्याव्यक्तं न विदितं सगुणं निर्गुणं पुनः। तेन तीर्थानि यज्ञाश्च सेवितव्या विपश्चिता।। | 12-323-105a 12-323-105b |
न स्वाध्यायैस्तपोभिर्वा यज्ञैर्वा कुरुनन्दन। लभतेऽव्यक्तिकं स्थानं ज्ञात्वाऽव्यक्तं महीयते।। | 12-323-106a 12-323-106b |
तथैव महतः स्थानमाहंकारिकमेव च। अहंकारात्परं चापि स्थानानि समवाप्नुयात्।। | 12-323-107a 12-323-107b |
ये त्वव्यक्तात्परं नित्यं जानते शास्त्रतत्पराः। जन्ममृत्युविमुक्तं च विमुक्तं सदसच्च यत्।। | 12-323-108a 12-323-108b |
एतन्मयाऽऽप्तं जनकात्पुरस्ता त्तेनापि चाप्तं नृप याज्ञवल्क्यात्। ज्ञातं विशिष्टं न तथा हि यज्ञा ज्ञानेन दुर्गं तरते न यज्ञैः।। | 12-323-109a 12-323-109b 12-323-109c 12-323-109d |
दुर्गं जन्म निधनं चापि राज न्न भौतिकं ज्ञानविदो वदन्ति। यज्ञैस्तपोभिर्नियमैर्व्रतैश्च दिवं समासाद्य पतन्ति भूमौ।। | 12-323-110a 12-323-110b 12-323-110c 12-323-110d |
तस्मादुपासस्व परं महच्छुचि शिवं विमोक्षं विमलं पवित्रम्। क्षेत्रं ज्ञात्वा पार्थिव ज्ञानयज्ञ मुपास्य वै तत्त्वमृषिर्भविष्यसि।। | 12-323-111a 12-323-111b 12-323-111c 12-323-111d |
युदुपनिषदमुपाकरोत्तथाऽसौ जनकनृपस्य पुरा हि याज्ञवल्क्यः। यदुपगणितशाश्वताव्ययं त च्छुभममृतत्वमशोकमर्च्छति।। | 12-323-112a 12-323-112b 12-323-112c 12-323-112d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि त्रयोविंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 323।। |
[सम्पाद्यताम्]
12-323-2 चरतावनतेन हेति झ. ध. पाठः।। 12-323-3 देवः सविता तोषितो मयेति ध. पाठः।। 12-323-7 मेऽऽस्यं ममास्यम्। संधिरार्षः।। 12-323-8 मातुलस्य महात्मन इति ट. ड. ध. पाठः।। 12-323-9 प्रतिष्ठास्यति ते वेद इति झ. ध. पाठः। शीतीभविष्यतित्वद्देह इति शेषः।। 12-323-10 परशाखीयं स्वशाखायामपेक्षावशात् पठ्यते तत्खिलमित्युच्यते। सोत्तरः सोपनिषत्कः।। 12-323-11 अपुनर्भावे मोक्षे।। 12-323-16 चक्रे कर्मकर्तरि प्रयोगःष। स्वयमेवाविरभूदित्यर्थः।। 12-323-17 मातुलस्य वैशंपायनस्य।। 12-323-19 ततोर्ध्यं कृतवानहमिति ट. ड. थ. पाठः। देवलस्य मातुलपक्षीयस्य मिषतः पश्यतः पुरस्तात्। अर्थे अर्थनिमित्तं मातुलादिभिः सह विमर्दे सति समं विभज्य ग्राह्यमिति निर्बन्धे सति देवलसंमत्याहं दक्षिणाया अर्धं हृतवान् स्वीकृतवानित्यर्थः। दक्षिणायार्थे इति संधिरार्षः।। 12-323-23 कर्तुं प्रकटीकर्तुम्।। 12-323-26 ब्रह्मण्यं ब्राह्मणजातेहिंतम्।। 12-323-28 विश्वाविश्वं तथाश्वाश्वं मित्रं वरुणमेव चेति झ. पाठः।। 12-323-29 सूर्यातिसूर्यमिति चेति ट. थ. पाठः।। 12-323-37 विश्वमव्यक्तमित्युक्तमविश्वो निष्कलस्तथेति ट. ड. थ. पाठः।। 12-323-38 अश्वश्चाश्वा च मिथुनमिति झ. पाठः।। 12-323-40 अज्ञश्च ज्ञश्च पुरुषस्तस्मान्निष्कल इति ध. पाठः।। 12-323-48 विद्यापेतं धनं कृत्वेति ट. थ. पाठः। विद्योपेतं मनः कृत्वेति ड. पाठः। विद्यामेतां धनं कृत्वेति ध. पाठः।। 12-323-56 तस्माद्द्वावनुपश्येतिति ध. पाठः। तस्य द्वावनुपश्येतामिति झ. पाठः।। 12-323-69 कुत्स्नहारिणमेव त्वामिति ट. ड. थ. पाठः।। 12-323-70 अबुध्यमानः प्रकृतिमिति ड. पाठः।। 12-323-96 त्पर्शयामास ददौ।।
शांतिपर्व-322 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-324 |