महाभारतम्-12-शांतिपर्व-086
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति पुरलक्षणादिकथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-86-1x |
कथंविधं पुरं राजा स्वयमावस्तुमर्हति। कृतं वा कारयित्वा वा तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-86-1a 12-86-1b |
भीष्म उवाच। | 12-86-2x |
वस्तव्यं यत्र कौन्तेय सपुत्रज्ञातिबन्धुना। न्याय्यं च परिप्रष्टुं वृत्तिं गुप्तिं च भारत।। | 12-86-2a 12-86-2b |
तस्मात्ते र्तयिष्यामि दुर्गकर्म विशेषतः। श्रुत्वा तथा विधातव्यमनुष्ठेयं च यत्नतः।। | 12-86-3a 12-86-3b |
षङ्विधं दुर्गमास्थाय पुराण्यथ निवेशयेत्। सर्वसंपत्प्रधानं च बाहुल्यं चापि संभवेत्।। | 12-86-4a 12-86-4b |
धन्वदुर्गं महीदुर्गं गिरिदुर्गं तथैव च। मनुष्यदुर्गं मृद्दुर्गं वनदुर्गं च तानि षट्।। | 12-86-5a 12-86-5b |
यत्पुरं दुर्गसंपन्नं धान्यायुधसमन्वितम्। दृढप्राकारपरिखं हस्त्यश्वरथसंकुलम्।। | 12-86-6a 12-86-6b |
विद्वांसः शिल्पिनो यत्र निचयाश्च सुसंचिताः। धार्मिकश्च जनो यत्र दाक्ष्यमुत्तममास्थितः।। | 12-86-7a 12-86-7b |
ऊर्जस्विनरनागाश्वं चत्वरापणशोभितम्। प्रसिद्धव्यवहारं च प्रशान्तमकुतोभयम्।। | 12-86-8a 12-86-8b |
सुप्रभं सानुनादं च सुप्रशस्तनिवेशनम्। शूराढ्यं प्राज्ञसंपूर्णं ब्रह्मघोषानुनादितम्।। | 12-86-9a 12-86-9b |
समाजोत्सवसंपन्नं सदापूजितदैवतम्। वश्यामात्यबलो राजा तत्पुरं स्वयमाविशेत्।। | 12-86-10a 12-86-10b |
तत्र कोशं बलं मित्रं व्यवहारं च वर्धयेत्। पुरे जनपदे चैव सर्वदोषान्निवर्तयेत्।। | 12-86-11a 12-86-11b |
भाण्डागारायुधागारं प्रयत्नेनाभिवर्धयेत्। निचयान्वर्धयेत्सर्वांस्तथा यन्त्रकटंकटान्।। | 12-86-12a 12-86-12b |
काष्ठलोहतुषाङ्गारदारुशृङ्गास्थिवैणवान्। मज्जास्नेहवसाक्षौद्रमौषधग्राममेव च।। | 12-86-13a 12-86-13b |
शणं सर्जरसं धान्यमायुधानि शरांस्तथा। चर्म स्नायुं तथा वेत्रं मुञ्जवल्वजदंध्वनान्।। | 12-86-14a 12-86-14b |
आशयाश्चोदपानाश्च प्रभूतसलिलाकराः। निरोद्धव्याः सदा राज्ञा क्षीरिणश्च महीरुहाः।। | 12-86-15a 12-86-15b |
सत्कृताश्च प्रयत्नेन आचार्यर्त्विक्पुरोहिताः। महेष्वासाः स्थपतयः सांवत्सरचिकित्सकाः।। | 12-86-16a 12-86-16b |
प्राज्ञा मेधाविनो दान्ता दक्षाः शूरा बहुश्रुताः। कुलीनाः सत्वसंपन्ना युक्ताः सर्वेषु कर्मसु।। | 12-86-17a 12-86-17b |
पूजयेद्धार्मिकान्राजा निगृह्णीयादधार्मेकान्। नियुञ्ज्याच्च प्रयत्नेन सर्ववर्णान्स्वकर्मसु।। | 12-86-18a 12-86-18b |
बाह्यमाभ्यन्तरं चैव पौरजानपदं तथा। चारैः सुविदितं कृत्वा ततः कर्म प्रयोजयेत्।। | 12-86-19a 12-86-19b |
चरान्मन्त्रं च कोशं च दण्डं चैव विशेषतः। अनुतिष्ठेत्स्वयं राजा सर्वं ह्यत्र प्रतिष्ठितम्।। | 12-86-20a 12-86-20b |
उदासीनारिमित्राणां सर्वमेव चिकीर्षितम्। पुरे जनपदे चैव ज्ञातव्यं चारचक्षुषा।। | 12-86-21a 12-86-21b |
ततस्तेषां विधातव्यं सर्वमेवाप्रमादतः। भक्तान्पूजयता नित्यं द्विषतश्च निगृह्णता।। | 12-86-22a 12-86-22b |
यष्टव्यं क्रतुभिर्नित्यं दातव्यं चाप्यपीडया। प्रजानां रक्षणं कार्यं न कार्यं धर्मबाधकम्।। | 12-86-23a 12-86-23b |
कृपणानाथवृद्धानां विधवानां च योषिताम्। योगक्षेमं च वृत्तिं च नित्यमेव प्रकल्पयेत्।। | 12-86-24a 12-86-24b |
आश्रमेषु यथाकालं चैलभाजनभोजनम्। सदैवोपहरेद्राजा सत्कृयाभ्यर्च्य मान्य च।। | 12-86-25a 12-86-25b |
आत्मानं सर्वकार्याणि तापसे राष्ट्रमेव च। निवेदयेत्प्रयत्नेन तिष्ठेत्प्रह्वश्च सर्वदा।। | 12-86-26a 12-86-26b |
` ते कस्यांचिदवस्थायां शरणं शरणार्थिने। राज्ञे दद्युर्यथाकामं तापसाः शंसितव्रताः।।' | 12-86-27a 12-86-27b |
सर्वार्थत्यागिनं राजा कुले जातं बहुश्रुतम्। पूजयेत्तादृशं दृष्ट्वा शयनासनभोजनैः।। | 12-86-28a 12-86-28b |
तस्मिन्कुर्वीत विश्वासं राजा कस्यांचिदापदि। तापसेषु हि विश्वासमपि कुर्वन्ति दस्यवः।। | 12-86-29a 12-86-29b |
तस्मिन्निधीनादधीत पुनः प्रत्याददीत च। न चाप्यभीक्ष्णं सेवेत भृशं वा प्रतिपूजयेत्।। | 12-86-30a 12-86-30b |
अन्यः कार्यः स्वराष्ट्रेषु परराष्ट्रेषु चापरः। अटवीषु परः कार्यः सामन्तनगरेष्वपि।। | 12-86-31a 12-86-31b |
तेषु सत्कारमानाभ्यां संविभागांश्च कारयेत्। परराष्ट्राटवीस्थेषु यथा स्वविषये तथा।। | 12-86-32a 12-86-32b |
ते कस्यांचिदवस्थायां शरणं शरणार्थिने। राज्ञे दद्युर्थथाकामं तापसाः संशितव्रताः।। | 12-86-33a 12-86-33b |
एष ते लक्षणोद्देशः संक्षेपेण प्रकीर्तितः। यादृशे नगरे राजा स्वयमावस्तुमर्हति।। | 12-86-34a 12-86-34b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि षडशीतिममोऽध्यायः।। 86।। |
12-86-5 धन्वा निर्जलदेशस्तदेव परितश्च दुर्गं धन्वदुर्गम्। महीदुर्गं कोटः।। 12-86-9 सानुनादं मीतवादित्रध्वनिमत्।। 12-86-12 निचयान् धान्यादिसंग्रहान्। तथा यन्त्रालयायुधान्। इति झ. पाठः।। 12-86-14 दंध्वनान् ध्वनिमतो निःसाणादीन्। बन्धनानिति पाठान्तरे स्पष्टोऽर्थः।। 12-86-15 आशयाः निपानानि। उदपानाः कूपाः। निरोद्धव्या रक्षणीयाः।। 12-86-17 प्रज्ञा ग्रन्थार्थग्रहणसामर्थ्यम्। मेधा ऊहापोहकौशलम्।। 12-86-20 अतुतिष्ठेदालोचयेत्।। 12-86-22 विधातव्यं प्रतिकर्तव्यम्।। 12-86-26 तापसे तपस्विजने।। 12-86-29 विश्वासं नाधिकुर्वन्ति दस्यव इति ड.थ. पाठः।।। 12-86-30 निधीन् धनभाण्डानि। अभीक्ष्णं न सेवेत्। दस्यूनां तत्सूचने तपस्विनाशापत्तेः न प्रतिपूजयेच्च।। 12-86-31 अन्यस्तापसः कार्यः सखित्वेन संपादनीयः।। 12-86-32 तेषु तत्तत्स्थानस्थेषु तापसेषु।।
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