महाभारतम्-12-शांतिपर्व-121
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति दण्डस्वरूपादिकथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-121-1x |
अयं पितामहेनोक्तो राजधर्मः सनातनः। कीदृशश्च महादण्डो दण्डे सर्वं प्रतिष्ठितम्।। | 12-121-1a 12-121-1b |
देवतानामृषीणां च पितॄणां च महात्मनाम्। यक्षरक्षः पिशाचानां मर्त्यानां च विशेषतः।। | 12-121-2a 12-121-2b |
सर्वेषां प्राणिनां लोके तिर्यक्ष्वपि निवासिनाम्। सर्वस्यापि महातेजा दण्डः श्रेयानिति प्रभो।। | 12-121-3a 12-121-3b |
इत्येतदुक्तं भवता दण्डे वै सचराचरम्। पश्यतां लोक आयत्तं ससुरासुरमानुषम्। एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं तत्त्वेन भरतर्षभ।। | 12-121-4a 12-121-4b 12-121-4c |
को दण्डः कीदृशो दण्डः किंरूपः किंपरायणः। किमात्मकः कथंभूतः कतिमूर्तिः कथं प्रभुः।। | 12-121-5a 12-121-5b |
जागर्ति च कथं दण्डः प्रजासु विहितात्मकः। कश्च पूर्वापरमिदं जागर्ति प्रतिपालयन्।। | 12-121-6a 12-121-6b |
कश्च विज्ञायते पूर्वः को वरो दण्डसंज्ञितः। किंसंस्थश्चाभवद्दण्डः का चास्य गतिरिष्यते।। | 12-121-7a 12-121-7b |
भीष्म उवाच। | 12-121-8x |
शृणु कौरव्य यो दण्डो व्यवहारो यथा च सः। यस्मिन्हि सर्वमायत्तं स धर्म इति केवलः।। | 12-121-8a 12-121-8b |
धर्मस्यार्थे महाराज व्यवहार इतीष्यते। तस्य लोपः कथं न स्याल्लोकेष्विह महात्मनः।। | 12-121-9a 12-121-9b |
इत्यर्थं व्यवाहरस्य व्यवहारत्वमिष्यते। अपि चैतत्पुरा राजन्मनुना प्रोक्तमादितः।। | 12-121-10a 12-121-10b |
सुप्रणीतेन दण्डेन प्रियाप्रियसमात्मना। प्रजा रक्षति यः सम्यग्धर्म एव स केवलः।। | 12-121-11a 12-121-11b |
यथोक्तमेतद्वचनं प्रागेव मनुना पुरा। यन्मयोक्तं वसिष्ठेन ब्रह्मणो वचनं महत्।। | 12-121-12a 12-121-12b |
प्रागिदं वचनं प्रोक्तमतः प्राग्वचनं विदुः। व्यवहारस्य चाख्यानाद्व्यवहार इहोच्यते।। | 12-121-13a 12-121-13b |
दण्डान्त्रिवर्गः सततं सुप्रणीतात्प्रवर्तते। दैवं हि परमो दण्डो रूपतोऽग्निरिवोत्थितः।। | 12-121-14a 12-121-14b |
नीलोत्पलदलश्यामश्चतुर्दंष्ट्रश्चतुर्भुजः। अष्टपान्नैकनयनः शङ्कुकर्णोर्ध्वरोमवान्।। | 12-121-15a 12-121-15b |
जटी द्विजिह्वस्ताम्रास्यो मृगराजतनुच्छदः। एतद्रूपं बिभर्त्युग्रं दण्डो नित्यं दुरासदः।। | 12-121-16a 12-121-16b |
असिर्धनुर्गदा शक्तिस्त्रिशूलं मुद्गरः शरः। मुसलं परशुश्चक्रं प्रासदण्डर्ष्टितोमराः।। | 12-121-17a 12-121-17b |
सर्वप्रहरणीयानि यानि यानीह कानिचित्। दण्ड एव स सर्वात्मा लोके चरति मूर्तिमान्।। | 12-121-18a 12-121-18b |
भिन्दंश्छिन्दन्रुजन्कृन्तन्दारयन्पाटयंस्तथा। घातयन्नभिधावंश्च दण्ड एव चरत्युत।। | 12-121-19a 12-121-19b |
असिर्विशसनो धर्मस्तीक्ष्णवर्मा दुरासदः। श्रीगर्भो विजयः शास्ता व्यवहारः प्रजागरः।। | 12-121-20a 12-121-20b |
शास्त्रं ब्राह्मणमन्त्राश्च शास्ता प्रवचनं परम्। धर्मपालोऽक्षरो गोपः सत्यगो नित्यगो गृहः।। | 12-121-21a 12-121-21b |
असङ्गो रुद्रतनयो मनुर्ज्येष्ठः शिवंकरः। नामान्येतानि दण्डस्य कीर्तितानि युधिष्ठिर।। | 12-121-22a 12-121-22b |
दण्डो हि भगवान्विष्णुर्यज्ञो नारायणः प्रभुः। शश्वद्रुपं महद्बिभ्रन्महात्पुरुष उच्यते।। | 12-121-23a 12-121-23b |
तथोक्ता ब्रह्मकन्येति लक्ष्मीर्नीतिः सरस्वती। दण्डनीतिर्जगद्धात्री दण्डो हि बहुविग्रहः।। | 12-121-24a 12-121-24b |
अर्थानर्थौ सुखं दुःखं धर्माधर्मौ बलाबले। दौर्भाग्यं भागधेयं च पुण्यापुण्ये गुणागुणौ।। | 12-121-25a 12-121-25b |
कामाकामावृतुर्मासः शर्वरी दिवसः क्षणः। अप्रमादः प्रमादश्च हर्षशोकौ शमो दमः।। | 12-121-26a 12-121-26b |
दैवं पुरुषकारश्च मोक्षामोक्षौ भयाभये। हिंसाहिंसे तपो यज्ञः संयमोऽथ विषामृते।। | 12-121-27a 12-121-27b |
अन्तश्चादिश्च मध्यं च कृतानां च प्रपञ्चनम्। मदः प्रमोदो दर्पश्च दम्भो धैर्यं नयानयौ।। | 12-121-28a 12-121-28b |
अशक्तिः शक्तिरित्येवं मानस्तम्भौ व्ययाव्ययौ। विनयश्च विसर्गश्च कालाकालौ च कौरव।। | 12-121-29a 12-121-29b |
अनृतं चाज्ञता सत्यं श्रद्धाश्रद्धे तथैव च। क्लीबता व्यवसायश्च लाभालाभौ जयाजयौ।। | 12-121-30a 12-121-30b |
तीक्ष्णता मृदुतात्युग्रमागमानागमौ तथा। विरोधश्चाविरोधश्च कार्याकार्ये बलाबले।। | 12-121-31a 12-121-31b |
असूया चानसूया च धर्माधर्मौ तथैव च। अपत्रपानपत्रपे ह्रीश्च संपद्विपच्च ह।। | 12-121-32a 12-121-32b |
तेजः कर्माणि पाण्डित्यं वाक्शक्तिर्बुद्धितत्वता। एवं दण्डस्य लोकेऽस्मिञ्जागर्ति बहुरूपता।। | 12-121-33a 12-121-33b |
न स्याद्यदीह दण्डो वै प्रमथेयुः परस्परम्। भयाद्दण्डस्य नान्योन्यं घ्नन्ति चैव युधिष्ठिर।। | 12-121-34a 12-121-34b |
दण्डेन रक्ष्यमाणा हि राजन्नहरहः प्रजाः। राजानं वर्धयन्तीह तस्माद्दण्डः परायणम्।। | 12-121-35a 12-121-35b |
व्यवस्थापयते नित्यमिमं लोकं नरेश्वर। सत्ये व्यवस्थितो धर्मो ब्राह्मणेष्ववतिष्ठते।। | 12-121-36a 12-121-36b |
धर्मयुक्ता द्विजश्रेष्ठा देवयुक्ता भवन्ति च। बभूव यज्ञो देवेभ्यो यज्ञः प्रीणाति देवताः।। | 12-121-37a 12-121-37b |
प्रीताश्च देवता लोकमिन्द्रे प्रतिददत्युत। अत्रं ददाति शक्रश्चाप्यनुगृह्णन्निमाः प्रजाः।। | 12-121-38a 12-121-38b |
प्राणाश्च सर्वभूतानां नित्यमन्ने प्रतिष्ठिताः। तस्मात्प्रजाः प्रतिष्ठन्ते दण्डो जागर्ति तासु च।। | 12-121-39a 12-121-39b |
एवंप्नयोजनश्चैव दण्डः क्षत्रियतां गतः। रक्षप्रजाः स जागर्ति नित्यं स्ववहितोक्षरः।। | 12-121-40a 12-121-40b |
ईश्वरः पुरुषः प्राणः सत्वं वृत्तं प्रजापतिः। भूतात्मा जीव इत्येवं नामभिः प्रोच्यतेऽष्टभिः।। | 12-121-41a 12-121-41b |
अददद्दण्डमेवास्मै धृतमैश्वर्यमेव च। बले नयश्च संयुक्तः सदा पञ्चविधात्मकः।। | 12-121-42a 12-121-42b |
कुलं बहुधनामात्याः प्रज्ञा प्रोक्ता बलानि तु। आहार्यमष्टकैर्द्रव्यैर्बलमन्यद्युधिष्ठिर।। | 12-121-43a 12-121-43b |
हस्तिनोऽश्वा रथाः पत्तिर्नावो विष्टिस्तथैव च। देशिकाश्चादिकाश्चैव तदष्टाङ्गं बलं स्मृतम्।। | 12-121-44a 12-121-44b |
अथ चाङ्गस्य युक्तस्य रथिनो हस्तियायिनः। अश्वारोहाः पदाताश्च मन्त्रिणो रसदाश्च ये।। | 12-121-45a 12-121-45b |
भिक्षुकाः प्राड्विवाकाश्च मौहूर्ता दैवचिन्तकाः। कोशो मित्राणि धान्यं च सर्वोपकरणानि च।। | 12-121-46a 12-121-46b |
सप्तप्रकृति चाष्टाङ्गं शरीरमिह तं विदुः। राज्यस्य दण्डमेवाङ्गं दण्डः प्रभव एव च।। | 12-121-47a 12-121-47b |
ईश्वरेण प्रसन्नेन कारणात्क्षत्रियस्य च। दण्डो दत्तः सदा गोप्ता दण्डो हीदं सनातनम्।। | 12-121-48a 12-121-48b |
राजा पूज्यतमो नान्यो यथा धर्मः प्रदर्शितः। ब्रह्मणा लोकरक्षार्थं स्वधर्मस्थापनाय च।। | 12-121-49a 12-121-49b |
भर्तृप्रत्यय उत्पन्नो व्यवहारस्तथाविधः। तस्याद्य सहितो दृष्टो भर्तृप्रत्ययलक्षणः।। | 12-121-50a 12-121-50b |
व्यवहारस्तु वेदात्मा वेदप्रत्यय उच्यते। मौलश्च नरशार्दूल शास्त्रोक्तश्च तथाऽपरः।। | 12-121-51a 12-121-51b |
उक्तो यश्चापि दण्डोऽसौ भर्तृप्रत्ययलक्षणः। ज्ञेयो नः स नरेन्द्रस्थो दण्डः प्रत्यय एव च।। | 12-121-52a 12-121-52b |
दण्डप्रत्ययदृष्टोऽपि व्यवहारात्मकः स्मृतः। व्यवहारः स्मृतो यश्च स वेदविषयात्मकः।। | 12-121-53a 12-121-53b |
यश्च वेदप्रसूतात्मा स धर्मो गुणदर्शनः। धर्मप्रत्यय उद्दिष्टो यश्च धर्मः कृतात्मभिः।। | 12-121-54a 12-121-54b |
व्यवहारः प्रजागोप्ता ब्रह्मदृष्टो युधिष्ठिर। त्रीन्धारयति लोकान्वै सत्यात्मा भूतिवर्धनः।। | 12-121-55a 12-121-55b |
यश्च दण्डः स दृष्टो नो व्यवहारः सनातनः। व्यवहारश्च दृष्टो यः स वेद इति नः श्रुतिः।। | 12-121-56a 12-121-56b |
यश्च वेदः स वै धर्मो यश्च धर्मः स सत्पथः। ब्रह्मा पितामहः पूर्वं भगवांश्च प्रजापतिः।। | 12-121-57a 12-121-57b |
लोकानां स हि सर्वेषां ससुरासुररक्षसाम्। स मनुष्योरगवतां कर्ता चैव स भूतकृत्।। | 12-121-58a 12-121-58b |
ततो नो व्यवहारोऽयं भर्तृप्रत्ययलक्षणः। तस्मादिदमवोचाम व्यवहारनिदर्शनम्।। | 12-121-59a 12-121-59b |
माता पिता च भ्राता च भार्या चैव पुरोहितः। नादण्ड्यो विद्यते राज्ञो यः स्वधर्मेण तिष्ठति।। | 12-121-60a 12-121-60b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि एकविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 121।। |
12-121-11 प्रजारक्षकत्वाद्व्यवहार एव धर्मपदवाच्योऽपीत्याह सुप्रणीतेनेति।। 12-121-12 ब्रह्मणएव वचनं मनुमुखाच्छ्रुतमित्यर्थः।। 12-121-13 दण्डएव उक्तवचनाद्धर्मशब्देन व्यवहारशब्देन चोच्यत इत्यर्थः। प्राग्वचनं धर्मवचनम्।। 12-121-16 एवं व्यवहाररूपिणो दण्डस्य रूपमुक्त्वा धर्माख्यदण्डरूपमाह। ताम्रास्यो मृगराजतनुच्छद इति। ताम्रो वह्निरेवाहनवनीयादिरास्यं यस्य स तथा। मृगराजः कृष्णमृगस्तत्संबन्धिचर्म तनुच्छदः शरीराच्छादकं प्रावरणमस्य। एतेन दीक्षाप्रधानो यज्ञ उक्तः। एतच्च सर्वेषां दानोपवासहोमादीनामुपलक्षणम्।। 12-121-23 मुख्यं दण्डस्य रूपमाह दण्डो हीति।। 12-121-24 तत्पत्न्या रूपमाह तथेति। दण्डेन सहिता नीतिर्दण्डनीतिः।। 12-121-25 किंपरायणमित्यस्योत्तरं अर्थानर्थावित्यादि।। 12-121-36 किमात्मकः कथंभूतः कथंमूर्तिरितिप्रश्नत्रयस्योत्तरमाह व्यवस्थापयतइति। लोकपालनात्मकः सत्यपक्षपाती ब्राह्मणमूर्तिस्वरूप इत्यर्थः।। 12-121-37 दण्डस्य ब्राह्मणभूर्तित्वं विवृण्वन् कथं जागर्ति इत्यस्योत्तरमाह धर्मयुक्ता इत्यादिना। ब्राह्मणमूर्तिर्दण्डो यज्ञादिद्वारान्नसृष्टिहेतुतया भूतानि पालयन् जागर्तीति श्लोकत्रयार्थः।। 12-121-42 अदददीश्वर इति शेषः। अस्मै राज्ञे। दण्डं दण्डनीतिम्। अतएवायं बलेन संयुक्तः पञ्चविध आत्मा यस्य स तथा। धर्मव्यवहारदण्डेश्वरजीवरूपेण पञ्चप्रकारात्मको राजा। बलं नथैश्च संयुक्तं सदा पञ्चविधात्मकमिति थ. द. पाठः।। 12-121-43 बहुधनसहिता अमात्या बहुधनामात्याः। बलानि तु तेजओजः सह आख्यानि देहेन्द्रियबुद्धिसमार्थ्यानि। अष्टकैरष्टसंख्याकैरनन्तरश्लोके वक्ष्यमाणैर्हस्त्यादिभिराहार्यमार्जनीयम्। अन्यद्वलं कोशवृद्धिरूपम्।। 12-121-45 अङ्गस्य सैन्यस्य युक्तस्य सन्नद्धस्य रथादिकं शरीरं विदुरिति तृतीयेनान्वयः। रसदाः वैद्याः। 12-121-46 प्राड्विवाकाः विवदमानयोर्द्वयोः प्रवृत्तिनिमित्तवेत्तारः।। 12-121-47 दण्डं सैन्यम्। दण्डः प्रसिद्धः।। 12-121-48 दण्डो दण्डादीनम्।। 12-121-50 भर्तृप्रत्ययः भर्तारौ द्वौ विवदमानौ प्रत्ययः कारणं यस्य स तथा वादिप्रतिवादिभ्यां प्रवर्तितो व्यवहारः। तयोरन्यतरस्य प्रत्ययोऽभ्युपगमो लक्षणं यस्य स भर्तृप्रत्ययलक्षणः। अन्यतरपराजयादित्यर्थः। सहितो हितमिष्टं तेन युक्तः सहितः। अन्यतरजयावह इत्यर्थः।। 12-121-51 वेदात्मा वेदोक्तो दोषः पारदार्यादिस्तन्निवृत्त्यर्थं परिषदं प्रतिगतश्चेत्तत्र प्रायश्चित्तात्मको वेदहेतुक एव दण्डः। मौलः कुलाचारप्रयुक्तो यो व्यवहारस्तत्रापि शास्त्रोक्तो दण्डः। तथाच शास्त्रविदामनुक्रमणं धर्मज्ञानां समयः प्रमाणं वेदाश्चेति।। 12-121-52 तेषां त्रयाणां दण्डानां मध्ये आद्यः क्षत्रियाधीन इत्याह। उक्त इति। नः अस्माभिः क्षत्रियैर्दण्डोऽपि ज्ञेयः तत्र प्रत्ययोऽपि ज्ञेयः।। 12-121-53 अस्यापि वेदमूलत्वमाह दण्ड इति। विविधोऽवहारः अन्योन्यं परपक्षक्षेपेण स्वपक्षसाधनं व्यवहारस्तदात्मको न्यायः स यद्यपि दण्डः प्रत्ययदृष्टस्तथापि स व्यवहारपदार्थो मन्वादिभिः स्मृतोऽस्ति। अतः सोऽपि वैदिकप्रणीतत्वाद्वेदविषयात्मको वेदार्थगोचरोऽस्तीत्यर्थः।। 12-121-54 उद्दिष्टो मम पारदार्यजेनाधर्मेण धर्मलोपो माभूदिति पश्चात्तापवत्युद्दिष्टः प्रायश्चित्तरूपो दण्डो धर्म एवेत्यर्थः।। 12-121-60 यो राजा स्वधर्मेण तिष्ठति तस्य राज्ञ इति संबन्धः।।
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