महाभारतम्-12-शांतिपर्व-119
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति भृत्यानां स्वस्वयोग्यतानुसारेणाधिकारे स्थापनादेर्भृत्यलक्षणादीनां च कथनम्।। 1।।
भीष्म उवाच। | 12-119-1x |
एवं गुणयुतान्भृत्यान्स्वेस्वे स्थाने नराधिपः। नियोजयति कृत्येषु स राज्यफलमश्नुते।। | 12-119-1a 12-119-1b |
न वा स्वस्थानमुत्क्रम्य प्रमाणमपि सत्कृतम्। आरोप्य चापि स्वस्थानमुत्क्रम्यान्यत्प्रपद्यते।। | 12-119-2a 12-119-2b |
स्वजातिगुणसंपन्नाः स्वेषु धर्मेष्ववस्थिताः। प्रकर्तव्या ह्यमात्यास्तु नास्थाने प्रक्रिया क्षमा।। | 12-119-3a 12-119-3b |
अनुरूपाणि कर्माणि भृत्येभ्यो यः प्रयच्छति। स भृत्यगुणसंपन्नं राजा फलमुपाश्नुते।। | 12-119-4a 12-119-4b |
शरभः शरभस्थाने सिंहः सिंह इवोत्थितः। व्याघ्रो व्याघ्र इव स्थाप्यो द्वीपी द्वीपी यथा तथा।। | 12-119-5a 12-119-5b |
कर्मस्विहानुरूपेषु न्यस्या भृत्या यथाविधि। प्रतिलोमं न भृत्यास्ते स्थाप्याः कर्मफलैषिणा।। | 12-119-6a 12-119-6b |
यः प्रमाणमतिक्रम्य प्रतिलोमं नराधिपः। भृत्यान्स्थापयतेऽबुद्धिर्न स रञ्जयते प्रजाः।। | 12-119-7a 12-119-7b |
न बालिशा न च क्षुद्रा नाप्राज्ञा नाजितेन्द्रियाः। नाकुलीना जनाः पार्श्वे स्थाप्या राज्ञा गुणैषिणा।। | 12-119-8a 12-119-8b |
साधवः कुलजाः शूरा ज्ञानवन्तोऽनसूयकाः। अक्षुद्राः शुचयो दक्षाः स्युर्नराः पारिपार्श्वकाः।। | 12-119-9a 12-119-9b |
उद्भूतास्तत्पराः शान्ताश्चौक्षाः प्रकृतिजाः शुभाः। स्वेस्वे स्थानेऽनुपाकृष्टास्ते स्यू राज्ञो बहिश्चराः।। | 12-119-10a 12-119-10b |
सिंहस्य सततं पार्श्वे सिंह एव जनो भवेत्। असिंहः सिंहसहितः सिंहवल्लभते फलम्।। | 12-119-11a 12-119-11b |
यस्तु सिंहः श्वभिः कीर्णः सिंहकर्मफले रतः। न स सिंहफलं भोक्तुं शक्तः श्वभिरुपासितः।। | 12-119-12a 12-119-12b |
एव मेतैर्मनुष्येन्द्र शूरैः प्राज्ञैर्बहुश्रुतैः। कुलीनैः सह शक्येत कृत्स्ना जेतुं वसुंधरा।। | 12-119-13a 12-119-13b |
नावैद्यो नानृजुः पार्श्वे नाप्राज्ञो ना महायशाः। संग्राह्यो वसुधापालैर्भृत्यो भृत्यवतां वर।। | 12-119-14a 12-119-14b |
वाणवद्विसृता यान्ति स्वामिकार्यपरा नराः। ये भृत्याः पार्थिवहितास्तेषु सान्त्वं सदा चरेत्।। | 12-119-15a 12-119-15b |
कोशश्च सततं रक्ष्यो यत्नमास्थाय राजभिः। कोशमूला हि राजानः कोशवृद्धिकरो भवेत्।। | 12-119-16a 12-119-16b |
कोष्ठागारं च ते नित्यं स्फीतं धान्यैः सुसंचितैः। सदा त्वं सत्सु संन्यस्तधनधान्यपको भव। | 12-119-17a 12-119-17b |
नित्ययुक्ताश्च ते भृत्या भवन्तु रणकोविदाः। वाजिनां च प्रयोगेषु वैशारद्यमिहेष्यते।। | 12-119-18a 12-119-18b |
ज्ञातिबन्धुजनावेक्षी मित्रसंबन्धिसत्कृतः। पौरकार्यहितान्वेक्षई भव कौरवनन्दन।। | 12-119-19a 12-119-19b |
एषा ते नैष्ठिकी बुद्धिः प्रज्ञा चाभिहिता मषा। श्वाते निदर्शनं तात किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।। | 12-119-20a 12-119-20b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि एकोनविंशत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 119।। |
12-119-1 एवं नीचाननीचे नैव योजयेत्।। 12-119-7 अबुद्धिरिति च्छेदः।। 12-119-10 बहिश्चराः प्राणा इवेति शेषः।। 12-119-15 विसृताः अपरावर्तिनः।।
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