महाभारतम्-12-शांतिपर्व-341
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अन्तरिक्षाद्गिरिशिखरे निपतितेन शुकेन तद्विभेदनपूर्वकं ततो निष्क्रमणम्।। 1।।
ततः पुत्रवियोगविषपणस्य व्यासस्य रुद्रेण समाश्वासनम्।। 2।।
भीष्म उवाच। | 12-341-1x |
इत्येवमुक्त्वा वचनं ब्रह्मर्षिः सुमहातपाः। प्रातिष्ठत शुकः सिद्धिं हित्वा दोषांश्चतुर्विधान्।। | 12-341-1a 12-341-1b |
तमो ह्यष्टगुणं हित्वा जहौ पञ्चविधं रजः। ततः सत्वं जहौ धीमांस्तदद्भुतमिवाभवत्।। | 12-341-2a 12-341-2b |
ततस्तस्मिन्पदे नित्ये निर्गुणे लिङ्गवर्जिते। ब्रह्मणि प्रत्यतिष्ठत्स विधूमोऽग्निरिव ज्वलन्।। | 12-341-3a 12-341-3b |
उत्कापाता दिशां दाहो भूमिकम्पस्तथैव च। प्रादुर्भूताः क्षणे तस्मिंस्तदद्भुतमिवाभवत्।। | 12-341-4a 12-341-4b |
द्रुमाः शाखाश्च मुमुचुः शिखराणि च पर्वताः। निर्घातशब्दैर्गुरुभिर्भूमिर्व्यादीर्यतेव ह।। | 12-341-5a 12-341-5b |
न बभासे सहस्रांशुर्न जज्वाल च पावकः। ह्रदाश्च सरितश्चैव चुक्षुभुः सागरास्तथा।। | 12-341-6a 12-341-6b |
ववर्ष वासवस्तोयं रसवच्च सुगन्धि च। ववौ समीरणश्चापि दिव्यगन्धवहः शुचिः।। | 12-341-7a 12-341-7b |
स शृङ्गेऽप्रतिमे दिव्ये हिमवन्मेरुसंनिभे। संश्लिष्टे स्वतेपीते द्वे रुक्मरूप्यमये शुभे।। | 12-341-8a 12-341-8b |
शतयोजनविस्तारे तिर्यगूर्ध्वं च भारत। उदीचीं दिशमास्थाय रुचिरे संददर्श ह।। | 12-341-9a 12-341-9b |
सोऽविशङ्केन मनसा तथैवाभ्यपतच्छुकः।। | 12-341-10a |
ततः पर्वतशृङ्गे द्वे सहसैव द्विधाकृते। अदृश्येतां महाराज तदद्भुतमिवाभवत्।। | 12-341-11a 12-341-11b |
ततः पर्वतशृङ्गाभ्यां सहसैव विनिःसृतः। न च प्रतिजघानास्य स गतिं पर्वतोत्तमः।। | 12-341-12a 12-341-12b |
ततो महानभूच्छब्दो दिवि सर्वदिवौकसाम्। गन्धर्वाणामृषीणां च ये च शैलनिवासिनः।। | 12-341-13a 12-341-13b |
दृष्ट्वा शुकमतिक्रान्तं पर्वतं च द्विधा कृतम्। साधुसाध्विति तत्रासीन्नादः सर्वत्र भारत।। | 12-341-14a 12-341-14b |
स पूज्यमानो देवैश्च गन्धर्वैर्ऋशिभिस्तथा। यक्षराक्षससङ्घैश्च विद्याधरगणैस्तथा।। | 12-341-15a 12-341-15b |
दिव्यैः पुष्पैः समाकीर्णमन्तरिक्षं समन्ततः। आसीत्किल महाराज शुकाभिपतने तदा।। | 12-341-16a 12-341-16b |
ततो मन्दाकिनीं रम्यामुपरिष्टादभिव्रजन्। शुको ददर्श धर्मात्मा पुष्पितद्रुमकाननाम्।। | 12-341-17a 12-341-17b |
तस्यां क्रीडन्त्यभिरताः स्नान्ति चैवाप्सरोगणाः। शून्याकारं निराकाराः शुकं दृष्ट्वा विवाससः।। | 12-341-18a 12-341-18b |
तं प्रक्रामन्तमाज्ञाय पिता स्नेहसमन्वितः। उत्तमां गतिमास्थाय पृष्ठतोऽनुससार ह।। | 12-341-19a 12-341-19b |
शुकस्तु मारुतादूर्ध्वं गतिं कृत्वान्तरिक्षगाम्। दर्शयित्वा प्रभावं स्वं सर्वभूतोऽभवत्तदा।। | 12-341-20a 12-341-20b |
महायोगगतिं त्वग्र्यां व्यासोत्थाय महातपाः। निमेषान्तरमात्रेण शुकाभिपतनं ययौ।। | 12-341-21a 12-341-21b |
स ददर्श द्विधा कृत्वा पर्वताग्रं शुकं गतम्। शशंसुर्ऋषयस्तत्र कर्म पुत्रस्य तत्तदा।। | 12-341-22a 12-341-22b |
ततः शुकेति दीर्घेण शब्देनाक्रन्दितस्तदा। स्वयं पित्रा स्वरेणोच्चैस्त्रील्लोँकाननुनाद्य वै।। | 12-341-23a 12-341-23b |
शुकः सर्वगतो भूत्वा सर्वात्मा सर्वतोमुखः। प्रत्यभाषत धर्मात्मा भोःशब्देनानुनादयन्।। | 12-341-24a 12-341-24b |
तत एकाक्षरं नादं भोरित्येव समीरयन्। प्रत्याहरञ्जगत्सर्वमुच्चैः स्थावरजङ्गमम्।। | 12-341-25a 12-341-25b |
ततःप्रभृति चाद्यापि शब्दानुच्चारितान्पृथक्। गिरिगह्वरपृष्ठेषु व्याहरन्ति शुकं प्रति।। | 12-341-26a 12-341-26b |
अन्तर्हितः प्रभावं तु दर्शयित्वा शुकस्तदा। गुणान्संत्यज्य शब्दादीन्पदमभ्यगमत्परम्।। | 12-341-27a 12-341-27b |
महिमानं तु तं दृष्ट्वा पुत्रस्यामिततेजसः। निषसाद गिरिप्रस्थे पुत्रमेवानुचिन्तयन्।। | 12-341-28a 12-341-28b |
ततो मन्दाकिनीतीरे क्रीडन्तोऽऽप्सरसां गणाः। आसाद्य तमृषिं सर्वाः संभ्रान्ता गतचेतसः।। | 12-341-29a 12-341-29b |
जले निलिल्यिरे काश्चित्काश्चिद्गुल्मान्प्रपेदिरे। वसनान्याददुः काश्चित्तं दृष्ट्वा मुनिसत्तमम्।। | 12-341-30a 12-341-30b |
तां मुक्ततां तु विज्ञाय मुनिः पुत्रस्य वै तदा। सक्ततामात्मनश्चैव प्रीतोऽभूद्बीडितश्च ह।। | 12-341-31a 12-341-31b |
तं देवगन्धर्ववृतो महर्षिगणपूजितः। पिनाकहस्तो भगवानभ्यागच्छत शंकरः।। | 12-341-32a 12-341-32b |
तमुवाच महादेवः सान्त्वपूर्वमिदं वचः। पुत्रशोकाभिसंतप्तं कृष्णद्वैपायनं तदा।। | 12-341-33a 12-341-33b |
अग्नेर्भूमेरपां वायोरन्तरिक्षस्य चैव ह। वीर्येण सदृशः पुत्रः पुरा मत्तस्त्वया वृतः।। | 12-341-34a 12-341-34b |
स तथालक्षणो जातस्तपसा तव संभृतः। मम चैव प्रसादेन ब्रह्मतेजोमयः शुचिः।। | 12-341-35a 12-341-35b |
स गतिं परमां प्राप्तो दुष्प्रापामजितेन्द्रियैः। दैवतैरपि विप्रर्षे तं त्वं किमनुशोचसि।। | 12-341-36a 12-341-36b |
यावत्स्थास्यन्ति गिरयो यावत्स्थास्यन्ति सागराः। तावत्तवाक्षया कीर्तिः सपुत्रस्य भविष्यति।। | 12-341-37a 12-341-37b |
छायां स्वपुत्रसदृशीं सर्वतोऽनपगां सदा। द्रक्ष्यसे त्वं च लोकेऽस्मिन्मत्प्रसादान्महामुने।। | 12-341-38a 12-341-38b |
सोऽनुगीतो भगवता स्वयं रुद्रेण भारत। छायां पश्यन्परावृत्तः स मुनिः परया मुदा।। | 12-341-39a 12-341-39b |
इति जन्म गतिश्चैव शुकस्य भरतर्षभ। विस्तरेण समाख्याता यन्मां त्वं परिपृच्छसि।। | 12-341-40a 12-341-40b |
एतदाचष्ट मे राजन्देवर्षिर्नारदः पुरा। व्यासश्चैव महायोगी संजल्पेषु पदेपदे।। | 12-341-41a 12-341-41b |
इतिहासमिमं पुण्यं मोक्षधर्मार्थसंहितम्। धारयेद्यः शमपरः स गच्छेत्परमां गतिम्।। | 12-341-42a 12-341-42b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि एकचत्वारिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 341।। |
[सम्पाद्यताम्]
12-341-1 सिद्धिं श्रुत्वा दोषान्बहुप्रियानिति ट. पाठः।। 12-341-5 निर्घातशब्दैर्गुरुभिर्हिमवान्दीर्यतीव हेति झ. ट. थ. पाठः।। 12-341-6 दिशश्च सरितश्चैवेति ध. पाठः। द्गुमाश्च सरितश्चैवेति ट. पाठः।। 12-341-21 व्यास उत्थाय। संधिरार्षः।। 12-341-23 ततः शुकेति दीर्घेण शौक्ष्येणाक्रन्दितं तथेति ट. थ. पाठः।। 12-341-25 तत एकाक्षरां वाचं भो इत्येव समीरयदिति थ. पाठः।। 12-341-30 वासांस्याददिरे काश्चिदिति थ. पाठः।। 12-341-36 दुष्प्रापामकृतात्मभिरिति ट. थ. पाठः।। 12-341-42 धारयेद्यः स परम इति ध. पाठः।।
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