महाभारतम्-12-शांतिपर्व-044
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युधिष्ठिरेण कृष्णमेत्य सुखशयनादिप्रश्नपूर्वकं तत्स्तुतिः।। 1।।
जनमेजय उवाच। | 12-44-1x |
प्राप्य राज्यं महाबाहुर्धर्मपुत्रो युधिष्ठिरः। यदन्यदकरोद्विप्र तन्मे वक्तुमिहार्हसि।। | 12-44-1a 12-44-1b |
भगवान्वा हृषीकेशस्त्रैलोक्यस्य परो गुरुः। ऋषे यदकरोद्वीरस्तच्च व्याख्यातुमर्हसि।। | 12-44-2a 12-44-2b |
वैशंपायन उवाच। | 12-44-3x |
शृणु तत्त्वेन राजेन्द्र कीर्त्यमानं मयाऽनघ। वासुदेवं पुरस्कृत्य यदकुर्वत पाण्डवाः।। | 12-44-3a 12-44-3b |
प्राप्य राज्यं महाराज कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः। वर्णान्संस्थापयामास नयेन विनयेन च।। | 12-44-4a 12-44-4b |
ब्राह्मणानां सहस्रं च स्नातकानां महात्मनाम्। सहस्रनिष्कैरेकैकं तर्पयामास पाण्डवः।। | 12-44-5a 12-44-5b |
तथाऽनुजीविनो भृत्यान्संश्रितानतिथीनपि। कामैः संतर्पयामास कृपणांस्तार्किकानपि।। | 12-44-6a 12-44-6b |
पुरोहिताय धौम्याय प्रादादयुतशः स गाः। धनं सुवर्णं रजतं वासांसि विविधान्यपि।। | 12-44-7a 12-44-7b |
कृपाय च महाराज पितृवत्तमतर्पयत्। विदुराय च राजाऽसौ पूजां चक्रे यतव्रतः।। | 12-44-8a 12-44-8b |
भक्ष्यान्नपानैर्विविधैर्वासोभिः शयनासनैः। सर्वान्संतोपयामास संश्रितान्ददतां वरः।। | 12-44-9a 12-44-9b |
लब्धप्रशमनं कृत्वा स राजा राजसत्तम। युयुत्सोर्धार्तराष्ट्रस्य पूजां चक्रे महायेशाः।। | 12-44-10a 12-44-10b |
धृतराष्ट्राय तद्राज्यं गान्धार्यै विदुराय च। निवेद्य सुस्थवद्राजा सुखमास्ते युधिष्ठिरः।। | 12-44-11a 12-44-11b |
तथा सर्वं स नगरं प्रसाद्य भरतर्षभ। वासुदेवं महात्मानमभ्यगच्छत्कृताञ्जलिः।। | 12-44-12a 12-44-12b |
ततो महति पर्यङ्के मणिकाञ्चनभूषिते। ददर्श कृष्णमासीनं नीलं मेराविवाम्बुदम्।। | 12-44-13a 12-44-13b |
जाज्वल्यमानं वपुषा दिव्याभरणभूषितम्। पीतकौशेयवसनं हेम्नेवोपगत मणिम्।। | 12-44-14a 12-44-14b |
कौस्तुभेनोरसिस्थेन मणिनाऽभिविराजितम्। उद्यतेवोदयं शैलं सूर्येणाभिविराजितम्।। | 12-44-15a 12-44-15b |
नौपम्यं विद्यते तस्य त्रिषु लोकेषु किंचन।। | 12-44-16a |
सोऽभिगम्य महात्मानं विष्णुं पुरुषसत्तमम्। उवाच मधुरं राजा स्मितपूर्वमिदं तदा।। | 12-44-17a 12-44-17b |
सुखेन ते निशा कच्चिद्व्युष्टा बुद्धिमतां वर। कच्चिज्ज्ञानानि सर्वाणि प्रसन्नानि तवाच्युत।। | 12-44-18a 12-44-18b |
तथैवोपश्रिता देवी बुद्धिर्बुद्धिमतां वर। वयं राज्यमनुप्राप्ताः पृथिवी च वशे स्थिता।। | 12-44-19a 12-44-19b |
तव प्रसादाद्भगवंस्त्रिलोकगतिविक्रम। जयं प्राप्ता यशश्चाग्र्यं न च धर्मच्युता वयम्।। | 12-44-20a 12-44-20b |
तं तथा भाषमाणं तु धर्मराजमरिंदमम्। नोवाच भगवान्किंचिद्ध्यानमेवान्वपद्यत।। | 12-44-21a 12-44-21b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि चतुश्चत्वारिंशोऽध्यायः।। 44।। |
12-44-10 लब्धप्रशमनं लब्धस्य धनादेः यथोचितमंशतः पात्रे समर्पणेन शान्तिकम्।।
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