महाभारतम्-12-शांतिपर्व-172
दिखावट
← शांतिपर्व-171 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-172 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-173 → |
विरूपाक्षभटैर्बकशरीरस्य चितारोपणम्।। 1।। वाय्वानीतधेनुमुखस्रुतफेनपातेन चितास्थबकोज्जीवनम्।। 2।। ततो बकप्रार्थनया इन्द्रेण पुनरुज्जीवितस्य गौतमस्य स्वग्रामगमनम्।। 3।।
भीष्म उवाच। | 12-172-1x |
विद्वान्संस्कारयामास पार्थिवो राजधर्मणः। गन्धैर्बहुभिरव्यग्रो दाहयामास पूजितम्।। | 12-172-1a 12-172-1b |
तस्य देवस्य वचनादिन्द्रस्य बकराडिह। तेनैवामृतसिक्ताश्च पुनः संजीवितो बकः।। | 12-172-2a 12-172-2b |
राजधर्माऽपि तं प्राह सहस्राक्षमरिंदमम्। गौतमो ब्राह्मणः क्वाऽसौ मुच्यतां मत्प्रियः सखा।। | 12-172-3a 12-172-3b |
भीष्म उवाच। | 12-172-4x |
तस्य वाक्यं समाज्ञाय कौशिकः सुरसत्तमः। गौतमं ह्यभ्यनुज्ञाप्य प्रीतोऽथ गमनोत्सुकः।। | 12-172-4a 12-172-4b |
प्रतीतः स गतः सौम्यो राजधर्मा स्वमालयम्। नृशंसो गौतमो मुक्तो मित्रध्रुक्पुरुषाधमः।। | 12-172-5a 12-172-5b |
सभाण्डोपस्करो यातः स तदा शबरालयम्। तत्रासौ शबरी देहे प्रसूतो निरयोपमे।। | 12-172-6a 12-172-6b |
एष शापो महांस्तत्र मुक्तः सुरगणैस्तदा।। | 12-172-7a |
दग्धे राक्षसराजेन खगराजे प्रतापिना। चितायाः पार्श्वतो दोग्ध्री सुरभिर्जीवयच्च तम्।। | 12-172-8a 12-172-8b |
तस्या वक्राच्च्युतः फेनो दुग्धमात्रस्तदाऽनघ। समीरणाहृतो यातश्चितां तां राजधर्मणः।। | 12-172-9a 12-172-9b |
देवराजस्ततः प्राप्तो विरूपाक्षपुरं तदा। विरूपाक्षोऽपि तं शक्रमयाचत पुनः पुनः। काश्यपश्य सुतो देव भ्राता मे जीवतामिति।। | 12-172-10a 12-172-10b 12-172-10c |
विरूपाक्षमुवाचेदमीश्वरः पाकशासनः। ब्रह्मणा व्याहृतो रोषाद्राजधर्मा कदाचन।। | 12-172-11a 12-172-11b |
यस्मात्त्वं नागतो द्रष्टुं मम नित्यमिमां सभाम्। तस्माद्बको भवान्भावी धर्मशीलः परात्मवित्।। | 12-172-12a 12-172-12b |
आगमिष्यति ते वासं कदाचित्पापकर्मकृत्। शबरावासगो विप्रः कृतघ्नो वृषलीपतिः।। | 12-172-13a 12-172-13b |
यदा निहन्ता मोक्षस्ते तदा भावीत्युवाच तम्। तस्मादेष गतो लोकं ब्रह्मणः परमेष्ठिनः।। | 12-172-14a 12-172-14b |
भीष्म उवाच। | 12-172-15x |
स चापि निरयं प्राप्तो दुष्कृतिः कुलपांसनः।। | 12-172-15a |
एतच्छ्रुत्वा सभामध्ये तद्वाक्यं नारदेरितम्। मयाऽपि तव राजेन्द्र यथावदनुवर्णितम्।। | 12-172-16a 12-172-16b |
ब्रह्मघ्ने च सुरापे च चोरे भ्रष्टव्रते तथा। निष्कृतिर्विहिता राजन्कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः।। | 12-172-17a 12-172-17b |
कुतः कृतघ्नस्य यशः कुतः स्थानं कुतः सुखम्। अश्रद्धेयः कृतघ्नो हि कृतघ्ने नास्ति निष्कृतिः।। | 12-172-18a 12-172-18b |
मित्रद्रोहो न कर्तव्यः पुरुषेण विशेषतः। मित्रध्रुङ्गिरयं घोरं नरकं प्रतिपद्यते।। | 12-172-19a 12-172-19b |
कृतज्ञमनसा भाव्यं मित्रभावेन चानघ। मित्रात्प्रभवते सर्वं मित्रं धन्यतरं स्मृतम्।। | 12-172-20a 12-172-20b |
अर्थाद्वा मित्रलाभाद्वा मित्रलाभो विशिष्यते। सुलभा मित्रतोऽर्थास्तु मित्रेण यतितुं क्षमम्।। | 12-172-21a 12-172-21b |
मित्रं चाभिमतं स्निग्धं फलं चापि सतां फलम्। सत्कारैः स्वजनोपेतः पूजयेत विचक्षणः।। | 12-172-22a 12-172-22b |
परित्याज्यो बुधैः पापः कदर्यः कुलपांसनः। मित्रद्रोही कुलाङ्गारः पापकर्मा कुलाधमः।। | 12-172-23a 12-172-23b |
एषा सज्जनसांनिध्ये प्रज्ञा प्रोक्ता मयाऽनघ। मित्रदुहि कृतघ्ने च किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।। | 12-172-24a 12-172-24b |
वैशंपायन उवाच। | 12-172-25x |
एतच्छ्रुत्वा ततो वाक्यं भीष्मेणोक्तं महात्मना। युधिष्ठिरः प्रीतमना बभूव जनमेजय।। | 12-172-25a 12-172-25b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि द्विसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 172।। |
शांतिपर्व-171 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-173 |