महाभारतम्-12-शांतिपर्व-220
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति जनकाथ पञ्चशिखोक्तनास्तिकादिमतखण्डनानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-220-1x |
केन वृत्तेन वृत्तज्ञो जनको मिथिलाधिपः। जगाम मोक्षं धर्मज्ञो भोगानुत्सृज्य बुद्धिमान्।। | 12-220-1a 12-220-1b |
भीष्म उवाच। | 12-220-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। येन वृत्तेन धर्मज्ञः स जगाम महत्सुखम्।। | 12-220-2a 12-220-2b |
जनको जनदेवस्तु मिथिलायां जनाधिप। और्ध्वदेहिकधर्माणामासीद्युक्तो विचिन्तने।। | 12-220-3a 12-220-3b |
तस्य स्म शतमाचार्या वसन्ति सततं गृहे। दर्शयन्तः पृथग्धर्मान्नानापाषण्डवादिनः।। | 12-220-4a 12-220-4b |
स तेषां प्रेत्यभावेन प्रेत्य गातौ विनिश्चये। आगमस्थः स भूयिष्ठमात्मतत्त्वेन तुष्यन्ति।। | 12-220-5a 12-220-5b |
तत्र पञ्चशिखो नाम कापिलेयो महामुनिः। परिधावन्महीं कृत्स्नां जगाम यलामथ।। | 12-220-6a 12-220-6b |
सर्वसंन्यासधर्माणां तत्त्वज्ञाननिश्चये। सुपर्यवसितार्थश्च निर्द्वन्द्वो नष्टगशयः।। | 12-220-7a 12-220-7b |
ऋषीणामाहुरेकं यं कामाद-----नृषु। शाश्वतं सुखमत्यन्तमन्वि---सुदुर्लभम्।। | 12-220-8a 12-220-8b |
यमाहुः कपिलं साङ्ख्याः परमर्षि प्रजापतिम्। समेत्य तेन रूपेण विस्मापयति हि स्वयम्।। | 12-220-9a 12-220-9b |
आसुरेः प्रथमं शिष्यं यमाहुश्चिरजीविनम्। पञ्चस्रोतसि यः सत्रमास्ते वर्षसहस्रिकम्।। | 12-220-10a 12-220-10b |
तमासीनं समागम्य कापिलं मण्डलं महत्। [पञ्चस्रोतसि निष्णातः पञ्चरात्रविशारदः। | 12-220-11a 12-220-11b |
पञ्चज्ञः पञ्चकृत्पञ्चगुणः पञ्चशिखः स्मृतः।] पुरुषावस्थमव्यक्तं परमार्थं न्यवेदयत्।। | 12-220-12a 12-220-12b |
इष्ट्वा सत्रेण संपृष्टो भूयश्च तपसाऽऽसुरिः। क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोर्व्यक्तिं बुबुधे देवदर्शनात्।। | 12-220-13a 12-220-13b |
यत्तदेकाक्षरं ब्रह्म नानारूपं प्रदृश्यते। `बोधायनपरान्विप्रानृषिभावमुपागतः।' आसुरिर्मण्डले तस्मिन्प्रतिपेदे तदव्ययम्।। | 12-220-14a 12-220-14b 12-220-14c |
तस्य पञ्चशिखः शिष्यो मानुष्याः पयसा भृतः। ब्राह्मणी कपिला नाम काचिदासीत्कुटुम्बिनी।। | 12-220-15a 12-220-15b |
तस्याः पुत्रत्वमागम्य स्त्रियाः स पिबति स्तनौ। ततः स कापिलेयत्वं लेभे बुद्धिं च नैष्ठिकीम्।। | 12-220-16a 12-220-16b |
एतन्मे भगवानाह कापिलेयस्य संभवम्। तस्य तत्कापिलेयत्वं सर्ववित्त्वमनुत्तमम्।। | 12-220-17a 12-220-17b |
सामान्यं जनकं ज्ञात्वा धर्मज्ञानामनुत्तमम्। उपेत्य शतमाचार्यान्मोहयामास हेतुभिः।। | 12-220-18a 12-220-18b |
`निराकरिष्णुस्तान्सर्वांस्तेषां हेतुगुणान्वहून्। श्रावयामास मतिमान्मुनिः पञ्चशिखो नृप।।' | 12-220-19a 12-220-19b |
जनकस्त्वभिसंरक्तः कापिलेयानुदर्शनात्। उत्सृज्य शतमाचार्यान्पृष्ठतोऽनुजगाम तम्।। | 12-220-20a 12-220-20b |
तस्मै परमकल्याय प्रणताय च धर्मतः। अब्रवीत्परमं मोक्षं यतः साङ्ख्यं विधीयते।। | 12-220-21a 12-220-21b |
जातिनिर्वेदमुक्त्वा स कर्मनिर्वेदमब्रवीत्। कर्मनिर्वेदमुक्त्वा च सर्वनिर्वेदमब्रवीत्।। | 12-220-22a 12-220-22b |
यदर्थं धर्मसंसर्गः कर्मणां च फलोदयः। तमनाश्वासिकं मोहं विनाशि चलमध्रुवम्।। | 12-220-23a 12-220-23b |
दृश्यमाने विनाशे च प्रत्यक्षे लोकसाक्षिके। आगमात्परमस्तीति ब्रुवन्नपि पराजितः।। | 12-220-24a 12-220-24b |
आत्मना ह्यात्मनो नित्यं क्लेशमृत्युजरामयम्। आत्मानं मन्यते मोहात्तदसम्यक्परं मतम्।। | 12-220-25a 12-220-25b |
अथ चेदेवमप्यस्ति यल्लोके नोपपद्यते। अजरोऽयममृत्युश्च राजाऽसौ मन्यते तथा।। | 12-220-26a 12-220-26b |
अस्ति नास्तीति चाप्येतत्तस्मिन्नसति लक्षणे। किमधिष्ठाय तद्ब्रूयाल्लोकयात्राविनिश्चयम्।। | 12-220-27a 12-220-27b |
प्रत्यक्षं ह्येतयोर्मूलं कृतान्तैतिह्ययोरपि। प्रत्यक्षेणागमो भिन्नः कृतान्तो वा न कश्चन।। | 12-220-28a 12-220-28b |
यत्रतत्रानुमानेऽस्मिन्कृतं भावयतोऽपि च। नान्यो जीवः शरीरस्य नास्तिकानां मते स्मृतः।। | 12-220-29a 12-220-29b |
रेतो वटकणीकायां घृतपाकाधिवासनम्। जातिः स्मृतिरयस्कान्तः सूर्यकान्तोऽम्बुभक्षणम्।। | 12-220-30a 12-220-30b |
प्रेत्य भूताप्ययश्चैव देवताभ्युपयाचनम्। मृते कर्मनिवृत्तिश्च प्रमाणमिति निश्चयः।। | 12-220-31a 12-220-31b |
न त्वेते हेतवः सन्ति ये केचिन्मूर्तिसंस्थिताः। अमूर्तस्य हि मूर्तेन सामान्यं नोपपद्यते।। | 12-220-32a 12-220-32b |
अविद्याकर्मचेष्टानां केचिदाहुः पुनर्भवे। कारणं लोभमोहौ तु दोषाणां च निषेवणम्।। | 12-220-33a 12-220-33b |
अविद्यां क्षेत्रमाहुर्हि कर्मबीजं तथा कृतम्। तृष्णासंजननं स्नेह एष तेषां पुनर्भवः।। | 12-220-34a 12-220-34b |
तस्मिन्मूढे च जग्धे च देहे मरणधर्मिणि। अन्योऽसौ जायते प्रेतस्तदाहुस्तत्वमक्षयम्।। | 12-220-35a 12-220-35b |
यदा स्वरूपतश्चान्यो जातितः श्रुतितोऽर्थतः। कथमस्मिन्स इत्येवं संबोधः स्यादसंहितः।। | 12-220-36a 12-220-36b |
एवं सति च का प्रीतिर्दानविद्यातपोबलैः। यद्यदाचरितं कर्म सर्वमन्यत्प्रपद्यते।। | 12-220-37a 12-220-37b |
यदि ह्ययमिहैवान्यैः प्राकृतैर्दुःखितो भवेत्। सुखितो दुःखितैर्वाऽपि दृश्यो ह्यस्यविनिर्णयः।। | 12-220-38a 12-220-38b |
यदा हि मुसलैर्हन्युः शरीरं न पुनर्भवेत्। पृथग्ज्ञानं यदन्यच्च येनैतन्नोपपद्यते।। | 12-220-39a 12-220-39b |
ऋतुसंवत्सरौ तिथ्यः शीतोष्णेऽथ प्रियाप्रिये। यथाऽतीता न दृश्यन्ते तादृशः सत्वसंक्षयः।। | 12-220-40a 12-220-40b |
जरयाऽभिपरीतस्य मृत्युना न विनाशिना। दुर्बलं दुर्बलं पूर्वं गृहस्येव विनश्यति।। | 12-220-41a 12-220-41b |
इन्द्रियाणी मनो वायुः शोणितं मांसमस्थि च। आनुपूर्व्या विनश्यन्ति स्वं धातुमुपयान्ति च।। | 12-220-42a 12-220-42b |
लोकयात्राविधानं च दानधर्मफलागमः। तदर्थं वेदशब्दाश्च व्यवहाराश्च लौकिकाः।। | 12-220-43a 12-220-43b |
इति सम्यङ्भनस्येते बहवः सन्ति हेतवः। एतदासीन्ममास्तीति न कश्चित्प्रतिपद्यते।। | 12-220-44a 12-220-44b |
तेषां विमृशतामेवं तत्तत्समभिधावताम्। क्वचिन्निविशते बुद्धिस्तत्र जीर्यति वृक्षवत्।। | 12-220-45a 12-220-45b |
एवमर्थैरनर्थैश्च दुःखिताः सर्वजन्तवः। आगमैरपकृष्यन्ते हस्तिपैर्हस्तिनो यथा।। | 12-220-46a 12-220-46b |
`न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्धते।।' | 12-220-47a 12-220-47b |
अर्थांस्तथाऽत्यन्तमुखावहांश्च लिप्सन्त एते बहवो विशुष्काः। महत्तरं दुःखमनुप्रपन्ना हित्वा सुखं मृत्युवशं प्रयान्ति।। | 12-220-48a 12-220-48b 12-220-48c 12-220-48d |
विनाशिनो ह्यध्नुवजीवितस्य किं बन्धुभिर्मित्रपरिग्रहैश्च। विहाय यो गच्छति सर्वमेव क्षणेन गत्वा न निवर्तते च।। | 12-220-49a 12-220-49b 12-220-49c 12-220-49d |
भूव्योमतोयानलवायवोऽपि सदा शरीरं प्रतिपालयन्ति। इतीदमालक्ष्य रतिः कुतो भवे द्विनाशिनो ह्यस्य न कर्म विद्यते।। | 12-220-50a 12-220-50b 12-220-50c 12-220-50d |
इदमनुपधिवाक्यमच्छलं परमनिरामयमात्मसाक्षिकम्। नरपतिरभिवीक्ष्य विस्मितः पुनरनुयोक्तुमिदं प्रचक्रमे।। | 12-220-51a 12-220-51b 12-220-51c 12-220-51d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि विंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 220।। |
12-220-2 महत्सुखं मोक्षम्।। 12-220-3 जनको जनकवंश्यः नाम्रा जनदेवः।। 12-220-4 पाषण्डा लोकायतादयस्तेषां वादिनः प्रतिभटत्वेन जेतारः।। 12-220-6 कापिलेयः कपिलायाः पुत्रः। परिधावन् एकत्र वासमकुर्वन्।। 12-220-7 सुपर्यवसितार्थः सम्यङ्निश्चितप्रयोजनः।। 12-220-8 कामादवसितं यदृच्छया स्थितम्। नृषु सुखं अन्विच्छन्तम्। स्थापयितुमिति शेषः।। 12-220-9 कपिलं तत्प्रशिष्यत्वात्तत्तुल्यम्।। 12-220-15 मनुष्यो वयसा वृत इति ध. पाठः। धृत इति ट.थ.पाठः।। 12-220-17 भगवान्मार्कण्डेयः सनत्कुमारो वा।। 12-220-18 सामान्यं सर्वेष्वाचार्येषु समबुद्धिम्।। 12-220-21 कल्याय समर्थाय।। 12-220-22 जातिर्जन्म। कमं यागादि। सर्वं ब्रह्मलोकान्तम्। तेषु निर्वेदः क्षयिष्णुत्वात्।। 12-220-23 तं मोहमब्रवीदित पूर्वेणान्वयः।। 12-220-25 अनात्मा ह्यात्मनः क्लेशं जन्ममृत्युजरामयत् इति ट. थ. पाठः।। 12-220-29 यत्रकुत्राप्यनुमाने ईदृशानिष्टनित्यात्मान्यतमसाधके साध्यसिद्धिं भावयतः कृतं अलम्। भावनयालमित्यर्थः। उक्तविधयानुमानस्याप्रमाणत्वात्। शरीरस्य शरीरात्।। 12-220-30 रेतो धातुर्वटकणिका धृतधूमाधिवासनमिति ध. पाठः। सूर्यकान्ताग्निमोक्षणमिति थ. पाठः।। 12-220-35 व्यूढे च दग्धे चेति ध. पाठः। अन्योन्याज्जायते स्नेहस्तमाहुः सत्वसंक्षयमिति ध. पाठः।। 12-220-38 सुखितैः सुखितो वापि दृष्टो ह्यस्य विनिर्णय इति ट. थ. पाठः।।
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