महाभारतम्-12-शांतिपर्व-134
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति बलप्रशंसनम्।। 1।। तथा पापकारिणां तत्परिहारोपायकथनम्।। 2।।
भीष्म उवाच। | 12-134-1x |
`अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्।' अत्र कामन्दवचनं कीर्तयन्ति पुराविदः। प्रत्यक्षावेव धर्मार्थौ क्षत्रियस्य विजानतः।। | 12-134-1a 12-134-1b 12-134-1c |
तौ तु न व्यवधातव्यौ परोक्षा धर्मयातना। अधर्मो धर्म इत्येतद्यथा वृक्षफलं तथा।। | 12-134-2a 12-134-2b |
धर्माधर्मफले जातु ददर्शेह न कश्चन। वुभूषेद्बलमेवैतत्सर्वं बलवतो वशे।। | 12-134-3a 12-134-3b |
श्रियं बलममात्यांश्च बलवानिह विन्दति। यो ह्यनाढ्यः स पतितस्तदुच्छिष्टं यदल्पकम्।। | 12-134-4a 12-134-4b |
बह्वपथ्ये बलवति न किंचित्क्रियते भयात्। उभौ सत्याधिकारौ तौ त्रायेते महतो भयात्।। | 12-134-5a 12-134-5b |
अति धर्माद्बलं मन्ये बलाद्धर्मः प्रवर्तते। बले प्रतिष्ठितो धर्मो धरण्यामिव जंगमः।। | 12-134-6a 12-134-6b |
धूमो वायोरिव वशे बलं धर्मोऽनुवर्तते। अनीश्वरो बलं धर्मो द्रुमं वल्लीव संश्रिता।। | 12-134-7a 12-134-7b |
वशे बलवतां धर्मः सुखं भोगवतामिव। नास्त्यसाध्यं बलवतां सर्वं बलवता जितम्।। | 12-134-8a 12-134-8b |
दुराचारः क्षीणबलः परिमाणं न गच्छति। अथ तस्मादुद्विजते सर्वो लोको वृकादिव।। | 12-134-9a 12-134-9b |
अपध्वस्तो ह्यवमतो दुःखं जीवति जीवितम्। जीवितं यदधिक्षिप्तं यथैव मरणं तथा।। | 12-134-10a 12-134-10b |
यदेवमाहुः पापेन चारित्रेण विवक्षितम्। सुभृशं तप्यते तेन वाक्शल्येन परिक्षतः।। | 12-134-11a 12-134-11b |
अत्रैतदाहुराचार्याः पापस्य परिमोक्षणे। त्रयीं विद्यामुपासीत तथोपासीत वै द्विजान्।। | 12-134-12a 12-134-12b |
प्रसादयेन्मधुरया वाचा चाप्यथ कर्मणा। महामनाश्चैव भवेद्विवहेच्च महाकुले।। | 12-134-13a 12-134-13b |
इत्यस्तीति वदेदेव परेषां कीर्तयेद्गुणान्। जपेदुदकशीलः स्यात्पेशलो नातिजल्पकः।। | 12-134-14a 12-134-14b |
ब्रह्म क्षत्रं संप्रविशेद्बहु कृत्वा सुदुष्करम्। उच्यमानो हि लोकेन बहु तत्तदचिन्तयन्।। | 12-134-15a 12-134-15b |
उपप्राप्यैवमाचारं क्षिप्रं बहुमतो भवेत्। सुखं च वित्तं भुञ्जीत वृत्तेनैकेन गोपयेत्।। | 12-134-16a 12-134-16b |
`अपि तेभ्यो मृगान्हत्वा नयेच्च सततं वने। यस्मिन्न प्रतिगृह्णन्ति दस्युभोजनशङ्कया।' लोके च लभते पूजां परत्रेह महत्फलम्।। | 12-134-17a 12-134-17b 12-134-17c |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि चतुस्त्रिंशदधिशततमोऽध्यायः।। 134।। |
12-134-2 यथा वृकपदंस्थेति झ. द. पाठः।। 12-134-6 अति अतिशयितम्।। 12-134-10 अपध्वस्तः ऐश्वर्याच्च्युतः।। 12-134-12 अत्राधर्मेण धनार्जने कृते सति।।
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