महाभारतम्-12-शांतिपर्व-322
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याज्ञवल्क्येन जनकंप्रति प्राणिनामुत्क्रमणस्थानविशेषप्रयोज्यफलविशेषकथनम्।। 1।।
तथा प्राणिनां मरणसूचक दुःशकुनकथनम्।। 2।।
याज्ञवल्क्य उवाच। | 12-322-1x |
तथैवोत्क्रमतां स्थानं शृणुष्वावहितो नृप। पद्भ्यामुत्क्रममाणस्य वैष्णवं स्थानमुच्यते।। | 12-322-1a 12-322-1b |
जङ्घाभ्यां तु वसून्देवानाप्नुयादिति नः श्रुतम्। जानुभ्यां च महाभागान्साध्यान्देवानवाप्नुयात्।। | 12-322-2a 12-322-2b |
पायुनोत्क्रममाणस्तु मैत्रं स्थानमवाप्नुयात्। पृथिवीं जघनेनाथ ऊरुभ्यां च प्रजापतिम्।। | 12-322-3a 12-322-3b |
पार्श्वाभ्यां मरुतो देवान्नासाभ्यामिन्दुमेव च। बाहुभ्यामिन्द्रमित्याहुरुरसा रुद्रमेव च।। | 12-322-4a 12-322-4b |
ग्रीवया तु मुनिश्रेष्ठं नरमाप्नोत्यनुत्तमम्। विश्वेदेवान्मुखेनाथ दिशः श्रोत्रेण चाप्नुयात्।। | 12-322-5a 12-322-5b |
घ्राणेन गन्धवहनं नेत्राभ्यां सूर्यमेव च। भ्रूभ्यां चैवाश्विनौ देवौ ललाटेन पितृनथ।। | 12-322-6a 12-322-6b |
ब्रह्माणमाप्नोति विभुं मूर्ध्ना देवाग्रजं तथा। एतान्युत्क्रमणस्थानान्युक्तानि मिथिलेश्वर।। | 12-322-7a 12-322-7b |
अरिगनि प्रवक्ष्यामि विहितानि मनीषिभिः। संवत्सराद्धिमोक्षस्तु संभवेत शरीरिणः।। | 12-322-8a 12-322-8b |
योऽरुन्धतीं न पश्येत दृष्टपूर्वा कदाचन। तथैव ध्रुवमतित्याहुः पूर्णेन्दुं दीपमेव च।। | 12-322-9a 12-322-9b |
खण्डाभासं दक्षिणतस्तेऽपि संवत्सरायुषः। परचक्षुषि चात्मानं ये न पश्यन्ति पार्थिवः।। | 12-322-10a 12-322-10b |
आत्मच्छायाकृतीभूतं तेऽपि संवत्सरायुषः। अतिद्युतिरतिप्रज्ञा अप्रज्ञा चाद्युतिस्तथा।। | 12-322-11a 12-322-11b |
प्रकृतेर्विक्रियापत्तिः षण्मासान्मृत्युलक्षणम्। दैवतान्यवजानाति ब्राह्मणैश्च विरुध्यते।। | 12-322-12a 12-322-12b |
कृष्णश्यावच्छविच्छायः षण्मासान्मृत्युलक्षणम्। शीर्णनाभिं यथा चक्रं छिद्रं सोमं प्रपश्यति।। | 12-322-13a 12-322-13b |
तथैव च सहस्रांशुं सप्तरात्रेण मृत्युभाक्। शवगन्धमुपाघ्राति सप्तरात्रेण मृत्युभाक्। | 12-322-14a 12-322-14b |
कर्णनासावनमनं दन्तदृष्टिविरागितां।। कर्णनासावनमनं दन्तदृष्टिविरागिता।। | 12-322-15a 12-322-15b |
संज्ञालोपो निरूष्मत्वं सद्योमृत्युनिदर्शनम्। अकस्माच्च स्रवेद्यस्य वाममक्षि नराधिप।। | 12-322-16a 12-322-16b |
मूर्ध्रतश्चोत्पतेद्धूमः सद्योमृत्युनिदर्शनम्। एतावन्ति त्वरिष्टानि विदित्वा मानवोऽऽत्मवान्।। | 12-322-17a 12-322-17b |
निशि चाहनि चात्मानं योजयेत्परमात्मनि। प्रतीक्षमाणस्तत्कालं यः कालः प्रकृतो भवेत्।। | 12-322-18a 12-322-18b |
अथास्य नेष्टं मरणं स्थातुमिच्छेदिमां क्रियाम्। सर्वगन्धान्रसांश्चैव धारयीत समाहितः।। | 12-322-19a 12-322-19b |
`तथा मृत्युमुपादाय तत्परेणान्दरात्मना।' स साङ्ख्यधारणं चैव विदित्वा मनुजर्षभ। जयेच्च मृत्युं योगेन तत्परेणान्तरात्मना।। | 12-322-20a 12-322-20b 12-322-20c |
गच्छेत्प्राप्याक्षयं कृत्स्नमजन्म शिवमव्ययम्। शाश्वतं स्थानमचलं दुष्प्रापमकृतात्मभिः।। | 12-322-21a 12-322-21b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि द्वाविंशत्यधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 322।। |
12-322-8 संवत्सरवियोगस्य संभवे नु इति ध. पाठः।। 12-322-10 खण्डभागं दक्षिणत इति थ. पाठः।। 12-322-13 छिद्रं छिद्रवन्तम्।। 12-322-14 सुरभिद्रव्ये शवगन्धग्रह इत्यर्थः।।
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