महाभारतम्-12-शांतिपर्व-050
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भीष्मेण कृष्णंप्रति स्तुतिपूर्वकं श्रेयःप्रार्थना।। 1।। कृष्णेन भीष्माय श्रेयः प्रदानपूर्वकं तंप्रति धर्मकथनचोदना।। 2।।
वैशंपायन उवाच। | 12-50-1x |
श्रुत्वा तु वचनं भीष्मो वासुदेवस्य धीमतः। किंचिदुन्नाम्य वदनं प्राञ्जलिर्वाक्यमब्रवीत्।। | 12-50-1a 12-50-1b |
भीष्म उवाच। | 12-50-2x |
नमस्ते भगवन्कृष्ण लोकानां प्रभवाप्यय। त्वं हि कर्ता हृषीकेश संहर्ता चापराजितः।। | 12-50-2a 12-50-2b |
विश्वकर्मन्नमस्तेऽस्तु विश्वात्मन्विश्वसंभव। अपवर्गस्थ भूतानां पञ्चानां परतः स्थित।। | 12-50-3a 12-50-3b |
नमस्ते त्रिषु लोकेषु नमस्ते परतस्त्रिषु। योगेश्वर नमस्तेऽस्तु त्वं हि सर्वपरायणः।। | 12-50-4a 12-50-4b |
मत्संश्रितं यदात्थ त्वं वचः पुरुषसत्तम। तेन पश्यामि ते दिव्यान्भावांस्त्रिषु च वर्त्मसु।। | 12-50-5a 12-50-5b |
तच्च पश्यामि तत्वेन यत्ते रूपं सनातनम्। सप्त मार्गा निरुद्धास्ते वायोरमिततेजसः।। | 12-50-6a 12-50-6b |
दिवं ते शिरसा व्याप्तं पभ्द्यां देवी वसुंधरा। दिशो भुजा रविश्चक्षुर्वीर्ये शुक्रः प्रतिष्ठितः।। | 12-50-7a 12-50-7b |
अतसीपुष्पसंकाशं पीतवाससमच्युतम्। वपुर्ह्यनुमिमीमस्ते मेघस्येव सविद्युतः।। | 12-50-8a 12-50-8b |
त्वां प्रपन्नाय भक्ताय गतिमिष्टां जिगीषवे। यच्छ्रेयः पुण्डरीकाक्ष तद्ध्यायस्व सुरोत्तम।। | 12-50-9a 12-50-9b |
वासुदेव उवाच। | 12-50-10x |
यतः खलु परा भक्तिर्मयि ते पुरुषर्षभ। ततो मया वपुर्दिव्यं तव राजन्प्रदर्शितम्।। | 12-50-10a 12-50-10b |
न ह्यभक्ताय राजेन्द्र भक्तायानृजवे न च। दर्शयाम्यहमात्मानं न चादान्ताय भारत।। | 12-50-11a 12-50-11b |
भवांस्तु मम भक्तश्च नित्यं चार्जवमास्थितः। दमे तपसि सत्ये च दाने च निरतः शुचिः।। | 12-50-12a 12-50-12b |
अर्हस्त्वं भीष्म मां द्रष्टुं तपसा स्वेन पार्थिव। तव ह्युपस्थिता लोका येभ्यो नावर्तते पुनः।। | 12-50-13a 12-50-13b |
पञ्चाशतं षट् च कुरुप्रवीर शेषं दिनानां तव जीवितस्य। ततः शुभैः कर्मफलोदयैस्त्वं समेष्यसे भीष्म विमुच्य देहम्।। | 12-50-14a 12-50-14b 12-50-14c 12-50-14d |
एते हि देवा वसवो विमाना न्यास्थाय सर्वे ज्वलिताग्निकल्पाः। अन्तर्हितास्त्वां प्रतिपालयन्ति काष्ठां प्रपद्यन्तमुदक्पतङ्गाम्।। | 12-50-15a 12-50-15b 12-50-15c 12-50-15d |
व्यावृत्तमात्रे भगवत्युदीचीं सूर्ये जगत्कालवशं प्रपन्ने। गन्तासि लोकान्पुरुषप्रवीर नावर्तते यानुपलभ्य विद्वान्।। | 12-50-16a 12-50-16b 12-50-16c 12-50-16d |
अमुं च लोकं त्वयि भीष्म याते ज्ञानानि सर्वाणि पराभविष्यन्। अतस्तु सर्वे तव सन्निकर्षं समागता धर्मविवेचनाय।। | 12-50-17a 12-50-17b 12-50-17c 12-50-17d |
तज्ज्ञातिशोकोपहतश्रुताय सत्याभिसन्धाय युधिष्ठिराय। प्रब्रूषि धर्मार्थसमाधियुक्तं सत्यं वचोऽस्यापनुदेच्छुचं यत्।। | 12-50-18a 12-50-18b 12-50-18c 12-50-18d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि पञ्चाशोऽध्यायः।। 50।। |
12-50-4 योगीश्वरेति झ. पाठः।। 12-50-14 पञ्चाशतं षट्चेति। तव जीवितसंबन्धिनां दिनानां शेषं पञ्चषट् च पञ्चवारमावर्तिताः षडिति रीत्या त्रिँशदिति ज्ञेयम्। तावदेव आशतं शतावधि। यद्दिनानां शतेन शक्यं तत्रिंशतापि कर्तुं शक्यमित्यर्थः। अष्टपञ्चाशतं रात्र्यः शयानस्याद्य मे गता इति भीष्मो वक्ष्यति। तत्र त्रिशदतः परं शिष्टा अष्टाविंशतिरितः पूर्वं व्यतीताः। तथाहि भीष्मस्य शरतल्पशयनानन्तरमष्ठौ दिनानि युद्धम्। ततो दुर्योधनाशौचं युयुत्सोः षोडशदिनानि। तेन सह पुरं प्रविशतां पाण्डवानामपि तावन्ति दिनानि गतानि। पञ्चविंशे सर्वेषां श्राद्धदानम्। षङ्विंशे पुरप्रवेशः। सप्तविंशे राज्याभिषेकः। अष्टाविंशे प्रकृतिसांत्वनमाभ्युदयिकं दानं च। ऊनत्रिंशे भीष्मंप्रत्यागमनं तद्दिनमारभ्य त्रिंशद्दिनानि शिष्टानीति ज्ञेयम्।। 12-50-15 पतंगः सूर्यः 12-50-16 कालवशं जगत्। प्रपन्ने प्राप्ते क्षेप्तुमिति शेषः।।
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