महाभारतम्-12-शांतिपर्व-055
← शांतिपर्व-054 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-055 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-056 → |
भीष्मेण युधिष्ठिराय राजधर्मकथनम्।। 1।।
वैशंपायन उवाच। | 12-55-1x |
प्रणिपत्य हृषीकेशमभिवाद्य पितामहम्। अनुमान्य गुरून्सर्वान्पर्यपृच्छद्युधिष्ठिरः।। | 12-55-1a 12-55-1b |
राज्ञां वै परमो धर्म इति धर्मविदो विदुः। महान्तमेतं भारं च मन्ये तद्ब्रूहि पार्थिव।। | 12-55-2a 12-55-2b |
राजधर्मान्विशेषेण कथयस्य पितामह। सर्वस्य जीवलोकस्य राजधर्मः परायणम्।। | 12-55-3a 12-55-3b |
त्रिवर्गो हि समासक्तो राजधर्मेषु कौरव। मोक्षधर्मश्च विस्पष्टः सकलोऽत्र समाहितः।। | 12-55-4a 12-55-4b |
यथा हि रश्मयोऽश्वस्य द्विरदस्याङ्कुशो यथा। नरेन्द्रधर्मो लोकस्य तथा प्रग्रहणं स्मृतम्।। | 12-55-5a 12-55-5b |
अत्र वै संप्रमूढे तु धर्मे राजर्षिसेविते। लोकस्य संस्था न भवेत्सर्वं च व्याकुलीभवेत्।। | 12-55-6a 12-55-6b |
उदयन्हि यथा सूर्यो नाशयत्यशुभं तमः। राजधर्मस्तथा लोक्यामाक्षिपत्यशुभां गतिम्।। | 12-55-7a 12-55-7b |
तदग्रे राजधर्मान्हि मदर्थे त्वं पितामह। प्रब्रूहि भरतश्रेष्ठ त्वं हि धर्मभूतां वरः।। | 12-55-8a 12-55-8b |
आगमश्च परस्त्वत्तः सर्वेषां नः परन्तप। भवन्तं हि परं बुद्धौ वासुदेवोऽभिमन्यते।। | 12-55-9a 12-55-9b |
भीष्म उवाच। | 12-55-10x |
नमो धर्माय महते नमः कृष्णाय वेधसे। ब्राह्मणेभ्यो नमस्कृत्य धर्मान्वक्ष्यामि शाश्वतान्।। | 12-55-10a 12-55-10b |
शृणु कार्त्स्न्येन मत्तस्त्वं राजधर्मान्युधिष्ठिर। निरुच्यमानान्नियतो यच्चान्यदपि वाञ्छसि।। | 12-55-11a 12-55-11b |
आदावेव कुरुश्रेष्ठ राज्ञा रञ्जनमिच्छता। देवतानां द्विजानां च वर्तितव्यं यथाविधि।। | 12-55-12a 12-55-12b |
दैवतान्यर्चयित्वा हि ब्राह्मणांश्च कुरूद्वह। आनृण्यं याति धर्मस्य लोकेन च समर्च्यते।। | 12-55-13a 12-55-13b |
उत्थानेन सदा पुत्र प्रयतेथा युधिष्ठिर। न ह्युत्थानमृते दैवं राज्ञामर्थं प्रसाधयेत्।। | 12-55-14a 12-55-14b |
साधारणं द्वयं ह्येतद्दैवमुत्थानमेव च। पौरुषं हि परं मन्ये दैवं निश्चित्य मुह्यते।। | 12-55-15a 12-55-15b |
विपन्ने च समारम्भे सन्तापं मा स्म वै कृथाः। घटेतैवं सदाऽऽत्मानं राज्ञामेष परो नयः।। | 12-55-16a 12-55-16b |
न हि सत्यादृते किंचिद्राज्ञां वै सिद्धिकारकम्। सत्ये हि राजा निरतः प्रेत्य चेह च नन्दति।। | 12-55-17a 12-55-17b |
ऋषीणामपि राजेन्द्र सत्यमेव परं धनम्। तथा राज्ञां परं सत्यान्नान्यद्विश्वासकारणम्।। | 12-55-18a 12-55-18b |
गुणवाञ्शीलवान्दान्तो मृदुदण्डो जितेन्द्रियः। सुदर्शः स्थूललक्ष्यश्च न भ्रश्येत सदा श्रियः।। | 12-55-19a 12-55-19b |
आर्जवं सर्वकार्येषु श्रयेथाः कुरुनन्दन। पुनर्नयविचारेण त्रयीसंवरणेन च। `आर्जवेन समायुक्ता मोदन्ते ऋषयो दिवि।।' | 12-55-20a 12-55-20b 12-55-20c |
मृदुर्हि राजा सततं लङ्घ्यो भवति सर्वशः। तीक्ष्णाच्चोद्विजते लोकस्तस्मादुभयमाचरेत्।। | 12-55-21a 12-55-21b |
अदण्ड्याश्चैव ते पुत्र विप्राः स्युर्ददतां वर। भूतमेतत्परं लोके ब्राह्मणा नाम पाण्डव।। | 12-55-22a 12-55-22b |
मनुना चात्र राजेन्द्र गीतौ श्लोकौ महात्मना। धर्मेषु स्वेषु कौरव्य हृदि तौ कर्तुमर्हसि।। | 12-55-23a 12-55-23b |
अभ्द्योऽग्निर्ब्रह्मतः क्षत्रमश्मनो लोहमुत्थितम्। तेषां सर्वत्रगं तेजः स्वासु योनिषु शाम्यति।। | 12-55-24a 12-55-24b |
अयो हन्ति यदाऽश्मानमग्निरापो निहन्ति च। ब्रह्म च क्षत्रियो द्वेष्टि तदा सीदन्ति ते त्रयः।। | 12-55-25a 12-55-25b |
एवं कृत्वा महाराज नमस्या एव ते द्विजाः। भौमं ब्रह्म द्विजश्रेष्ठा धारयन्ति शमान्विताः।। | 12-55-26a 12-55-26b |
एवं चैव नरव्याघ्र लोकयात्राविघातकाः। निग्राह्या एव बाहुभ्यां ब्राह्मणास्ते नरेश्वर।। | 12-55-27a 12-55-27b |
श्लोकौ चोशनसा गीतौ पुरा तात महर्षिणा। तौ निवोध महाराज त्वमेकाग्रमना नृप।। | 12-55-28a 12-55-28b |
उद्यम्य शस्त्रमायान्तमपि वेदान्तगं रणे। निगृह्णीयात्स्वधर्मेण धर्मापेक्षी नराधिपः।। | 12-55-29a 12-55-29b |
विनश्यमानं धर्मं हि योऽभिरक्षेत्स धर्मवित्। न तेन धर्महा स स्यान्मन्युस्तन्मन्युमृच्छति।। | 12-55-30a 12-55-30b |
एवं चैव नरश्रेष्ठ रक्ष्या एव द्विजातयः। सापराधानपि हि तान्विषयान्ते समुत्सृजेत्।। | 12-55-31a 12-55-31b |
अभिशस्तमपि ह्येषां पीडयेन्न विशांपते। ब्रह्मघ्ने गुरुतल्पे च भ्रूणहत्ये तथैव च।। | 12-55-32a 12-55-32b |
राजद्विष्टे च विप्रस्य विषयान्ते विवासनम्। विधीयते न शारीरं भयमेषां कदाचन।। | 12-55-33a 12-55-33b |
दयिताश्च नरास्ते स्युर्भक्तिमन्तो द्विजेषु ये। न शोकः परमा तुष्टी राज्ञां भवति संचयात्।। | 12-55-34a 12-55-34b |
दुर्गेषु च महाराज षट्सु ये शास्त्रनिश्चिताः। सर्वदुर्गेषु मन्यन्ते नरदुर्गं सुदुर्गमम्।। | 12-55-35a 12-55-35b |
तस्मान्नित्यं दया कार्या चातुर्वर्ण्ये विपश्चिता। धर्मात्मा सत्यवाक्चैव राजा रञ्जयति प्रजाः।। | 12-55-36a 12-55-36b |
न च क्षान्तेन ते नित्यं भाव्यं पुरुषसत्तम। अधर्मो हि मृद् राजा क्षमावानिव कुञ्जरः।। | 12-55-37a 12-55-37b |
वार्हस्पत्ये च शास्त्रे च श्लोकोऽयं नियतः प्रभो। अस्मिन्नर्थे निगदितस्तन्मे निगदतः शृणु।। | 12-55-38a 12-55-38b |
क्षममाणं नृपं नित्यं नीचः परिभवेञ्जनः। हस्तियन्ता गजस्येव शिर एवारुरुक्षति।। | 12-55-39a 12-55-39b |
तस्मान्नैव मृदुर्नित्यं तीक्ष्णो वाऽपि भवेन्नृपः। वसन्तेऽर्क इव श्रीमान्न शीतो न च घर्मदः।। | 12-55-40a 12-55-40b |
प्रत्यक्षेणानुमानेन तथौपम्यागमैरपि। परीक्ष्यास्ते महाराज स्वे परे चैव नित्यशः।। | 12-55-41a 12-55-41b |
व्यसनानि च सर्वाणि त्यजेथा भूरिदक्षिण। नचैतानि प्रयुञ्जीथाः सङ्गं तु परिवर्जय।। | 12-55-42a 12-55-42b |
व्यसनी यस्तु लोकेऽस्मिन्परिभूतो भवत्युत। उद्वेजयति लोकं च योऽतिद्वेषी महीपतिः।। | 12-55-43a 12-55-43b |
भवितव्यं सदा राज्ञा गर्भिणीसहधर्मिणा। कारणं च महाराज शृणु येनेदमुच्यते।। | 12-55-44a 12-55-44b |
यथा हि गर्भिणी हित्वा स्वं प्रियं मनसोऽनुगम्। गर्भस्य हितमाधत्ते तथा राज्ञाऽप्यसंशयम्।। | 12-55-45a 12-55-45b |
वर्तितव्यं कुरुश्रेष्ठ सदा धर्मानुवर्तिना। स्वं प्रियं तु परित्यज्य यद्यल्लोकहितं भवेत्।। | 12-55-46a 12-55-46b |
न सन्त्याज्यं च ते धैर्यं कदाचिदपि पाण्डव। धीरस्य स्पष्टदण्डस्य न ह्याज्ञा प्रतिहन्यते।। | 12-55-47a 12-55-47b |
परिहासश्च भृत्यैस्ते नात्यर्थं वदतां वर। कर्तव्यो राजशार्दूल दोषमत्र हि मे शृणु।। | 12-55-48a 12-55-48b |
अवमन्यन्ति भर्तारं सहर्षमुपजीविनः। स्वे स्थाने न च तिष्ठन्ति लङ्घ्यन्ति च तद्वचः।। | 12-55-49a 12-55-49b |
प्रेष्यमाणा विकल्पन्ते गुह्यं चाप्यनुयुञ्जते। अयाच्यं चैव याचन्ते भोज्यान्याहारयन्ति च।। | 12-55-50a 12-55-50b |
क्रुथ्यन्ति परिदीप्तन्ति भूमिपायाधितिष्ठते। उत्कोचैर्वञ्चनाभिश्च कार्याणि घ्नन्ति चास्य ते।। | 12-55-51a 12-55-51b |
जर्झरं चास्य विषयं कुर्वन्ति प्रतिरूपकैः। स्त्रीरक्षिभिश्च सज्जन्ते तुल्यवेषा भवन्ति च।। | 12-55-52a 12-55-52b |
वान्तं निष्ठीवनं चैव कुर्वते चास्य सन्निधौ। निर्लज्जा राजशार्दूल व्याहरन्ति च तद्वचः।। | 12-55-53a 12-55-53b |
हयं वा दन्तिनं वाऽपि रथं वा नृपसंमतम्। अधिरोहन्त्यवज्ञाय सहर्षाः पार्थिवे मृदौ।। | 12-55-54a 12-55-54b |
इदं ते दुष्करं राजन्निदं ते दुर्विचेष्टितम्। इत्येवं सुहृदो नाम ब्रुवते परिपद्गताः।। | 12-55-55a 12-55-55b |
क्रुद्धे चास्मिन्हसन्त्येव न च हृष्यन्ति पूजिताः। सङ्घर्षशीलाश्च तदा भवन्त्यन्योन्यकारणात्।। | 12-55-56a 12-55-56b |
विस्रंसयन्ति मन्त्रं च विवृण्वन्ति च दुष्कृतम्। लीलया चैव कुर्वन्ति सावज्ञास्तस्य शासनम्।। | 12-55-57a 12-55-57b |
अलङ्काराणि भोज्यं च तथा स्नानानुलेपने। हेलयाना नरव्याघ्र स्वस्थास्तस्योपभुञ्जये।। | 12-55-58a 12-55-58b |
निन्दन्ते स्वानधीकारान्सन्त्यजन्ते च भारत। न वृत्त्या परितृष्यन्ति राजदेयं हरन्ति च।। | 12-55-59a 12-55-59b |
क्रीडितुं तेन चेच्छन्ति ससूत्रेणेव पक्षिणा। अस्मत्प्रणेयो राजेति लोकांश्चैव वदन्त्युत।। | 12-55-60a 12-55-60b |
एते चैवापरे चैव दोषाः प्रादुर्भवन्त्युत। नृपतौ मार्दवोपेते हर्षुले च युधिष्ठिर।। | 12-55-61a 12-55-61b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि पञ्चपञ्चाशोऽध्यायः।। 55।। |
12-55-2 धर्मः प्रजापालनात्मकः परमः सर्वधर्मश्रेष्ठः। एतं धर्मं भारं दुवेहं मन्ये।। 12-55-5 प्रग्रहणं नियन्त्रणम्।। 12-55-6 संस्था मर्यादाव्यवस्था।। 12-55-8 अग्रे इतरेभ्यो धर्मेभ्यः पूर्वम्।। 12-55-9 परः आगमः परं रहस्यम्। नः अस्माकं त्वत्तएव विहितमस्तु।। 12-55-18 सत्यान्नान्यदाश्वासकारमिति ड. थ. पाठः।। 12-55-19 स्थूललक्ष्यः बहुप्रदः।। 12-55-26 भौमं ब्रह्म वेदान् यज्ञांश्च।। 12-55-29 स्वधर्मेण शस्त्रोद्यमनेन निगृह्णीयादेव नतु हन्यात्।। 12-55-30 विनश्यमानमाततायिदोषात्। तेन जाततायिनिग्रहेण।। 12-55-32 अभिशस्तं सताऽसता वा दोषेण युक्तं तथाख्यापितम्।। 12-55-33 शारीरं कशाघातादिजम्।। 12-55-35 षट्सु मरुजलपृथ्वीवनपर्वतनस्मवेषु।। 12-55-37 अधर्मो धर्मविरोधी।। 12-55-39 गजस्य क्षममाणस्य।। 12-55-42 व्यसनानि मृगयादीनि।। 12-55-46 प्रियमिष्टम्।। 12-55-47 न भयं विद्यते क्वचित्। इति झ. पाठः। ते त्वया।। 12-55-52 प्रतिरूपकैः कृत्रिमैः शासनपत्रैः। विषयं देशम्। जर्झरं निःसारम्। स्त्रीरक्षिभिः सज्जन्ते प्रीति कुर्वन्ति अन्तःपुरे प्रवेशमिच्छन्तः।। 12-55-54 नादृत्य हर्षुले इति झ. पाठः। तत्र हर्षुले परिहासशीले इत्यर्थः।। 12-55-57 विस्रंसयन्ति भेदयन्ति।। 12-55-58 स्वस्थाः निर्भयाः।। 12-55-59 राजदेयं राजभागम्।।
शांतिपर्व-054 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-056 |