महाभारतम्-12-शांतिपर्व-187
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भरद्वाजंप्रति भृगुणा ब्राह्मणादिवर्णलक्षणकथनम्। वैराग्यस्य मुक्तिसाधनताकथनं च।। 1।।
भरद्वाज उवाच। | 12-187-1x |
ब्राह्मणः केन भवति क्षत्रियो वा द्विजोत्तम। वैश्यः शूद्रश्च विप्रर्षे तद्ब्रूहि वदतां वर।। | 12-187-1a 12-187-1b |
भृगुरुवाच। | 12-187-2x |
जातकर्मादिभिर्यस्तु संस्कारैः संस्कृतः शुचिः। वेदाध्ययनसंपन्नः षट्सु कर्मस्ववस्थितः।। | 12-187-2a 12-187-2b |
शौचाचारस्थितः सम्यग्विघसाशी गुरुप्रियः। नित्यव्रती सत्यपरः स वै ब्राह्मण उच्यते।। | 12-187-3a 12-187-3b |
सत्यं दानमथाद्रोह आनृशंस्यं क्षमा धृणा। तपश्च दृश्यते यत्र स ब्राह्मण इति स्मृतः।। | 12-187-4a 12-187-4b |
क्षत्रजं सेवते कर्म देवाध्ययनसंगतः। दानादानरतिर्यस्तु स वै क्षत्रिय उच्यते।। | 12-187-5a 12-187-5b |
कृपिगोरक्षवाणिज्यं यो विशत्यनिशं शुचिः। वेदाध्ययनसंपन्नः स वैश्य इति संज्ञितः।। | 12-187-6a 12-187-6b |
सर्वभक्षरतिर्नित्यं सर्वकर्मकरोऽशुचिः। त्यक्तवेदस्त्वनाचारः स वै शूद्र इति स्मृतः।। | 12-187-7a 12-187-7b |
शूद्रे चैतद्भवेल्लक्ष्यं द्विजे तच्च न विद्यते। न वै शूद्रो भवेच्छ्रद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मणः।। | 12-187-8a 12-187-8b |
सर्वोपायैस्तु लोभस्य क्रोधस्य च विनिग्रहः। एतत्पवित्रं ज्ञातव्यं तथा चैवात्मसंयमः।। | 12-187-9a 12-187-9b |
वार्यौ सर्वात्मना तौ हि श्रेयोघातार्थमुच्छ्रितौ।। | 12-187-10a |
नित्यं क्रोधाच्छ्रियं रक्षेत्तपो रक्षेच्च मत्सरात्। विद्यां मानापमानाभ्यामात्मानं तु प्रमादतः।। | 12-187-11a 12-187-11b |
यस्य सर्वे समारम्भा निराशाबन्धना द्विज। त्यागे यस्य हुतं सर्वं स त्यागी च स बुद्धिमान्।। | 12-187-12a 12-187-12b |
अहिंस्रः सर्वभूतानां मैत्रायणगतिश्चरेत्। परिग्रहान्परित्यज्य भवेद्बुद्ध्या जितेन्द्रियः। अचलं स्थानमातिष्ठेदिह चामुत्र चोभयोः।। | 12-187-13a 12-187-13b 12-187-13c |
तपोनित्येन दान्तेन मुनिना संयतात्मना। अजितं जेतुकामेन भाव्यं सङ्गेष्वसङ्गिना।। | 12-187-14a 12-187-14b |
इन्द्रियैर्गृह्यते यद्यत्तत्तद्व्यक्तमिति स्थितिः। अव्यक्तमिति विज्ञेयं लिङ्गग्राह्यमतीन्द्रियम्।। | 12-187-15a 12-187-15b |
अविस्रम्भे न गन्तव्यं विस्रम्भे धारयेन्मनः। मनः प्राणे निगृह्णीयात्प्राणं ब्रह्मणि धारयेत्।। | 12-187-16a 12-187-16b |
निर्वेदादेव निर्वायान्न च किंचिद्विचिन्तयेत्। सुखं वै ब्राह्मणो ब्रह्म स वै तेनाधिगच्छति।। | 12-187-17a 12-187-17b |
शौचेन सततं युक्तः सदाचारसमन्वितः। सानुक्रोशश्च भूतेषु तद्द्विजातिषु लक्षणम्।। | 12-187-18a 12-187-18b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि सप्ताशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 187।। |
12-187-3 विघसं ब्राह्मणादिभुक्तशेषम्।। 12-187-5 क्षत्रं हिंसा तदर्थं जातं क्षत्रजं युद्धात्मकं कर्म। आदानं प्रजाभ्यः।। 12-187-6 वाणिज्या पशुरक्षा च कृष्यादानरतिः शुचिः। इति झ. पाठः।। 12-187-8 एतत्सत्यादिसप्तकम्। द्विजे त्रैवर्णिके। धर्म एव वर्णविभागे कारणं न जातिरित्यर्थः।। 12-187-10 तौ क्रोधलोभौ।। 12-187-12 आशैव बन्धनं तद्वर्जिता निराशाबन्धनाः समारम्भाः सम्यगारभ्यन्त इति यज्ञादयः। हुतमघ्नौ ब्राह्मणे वा दत्तमग्निहोत्रनित्यश्राद्धादि। त्यागे फलत्यागनिमित्तम्। निराशीर्बन्धना द्विजेति घ. झ.ट. पाठः।। 12-187-13 मैत्रं मित्रभावस्तदेवायनं परं प्राप्यं स्थानं तत्र गतिर्यस्य सः। स्थानमात्मानमातिष्ठेत् आभिमुख्येन तिष्ठेत्। आत्मध्यानपरो भवेदित्यर्थः।। 12-187-14 सङ्गेषु ममेदमिति सङ्गहेतुषु पुत्रदारादिषु।। 12-187-17 निर्वेदादेव निर्वाणं न किंचिदपि इति घ.झ. पाठः। निर्वाणादेव निर्वायात् इति ड. पाठः।।
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