महाभारतम्-12-शांतिपर्व-288
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति शक्रकृतवृत्रसंहारकथनम्।। 1।। तथा शक्रमाक्रान्तवत्या ब्रह्महत्याया अग्न्यादिषु ब्रह्मकृत विभजनकथनम्।। 2।।
भीष्म उवाच। 12-288-1x
वृत्रस्य तु महाराज ज्वराविष्टस्य सर्वशः।
अभवन्यानि लिङ्गानि शरीरे तानि मे शृणु।। 12-288-1a
ज्वलितास्योऽभवद्धोरो वैवर्ण्यं चागमत्परम्।
गात्रकम्पश्च सुमहाञ्श्वासश्चाप्यभवन्महान्।। 12-288-2a
रोमहर्षश्च तीव्रोऽभून्निःश्वासश्च महान्नृप।
शिवा चाशिवसंकाशा तस्य वक्रात्सुदारुणा।। 12-288-3a
निष्पपात महाघोरा स्मृतिर्नष्टास्य भारत।
उत्काश्च ज्वलितास्तस्य दीप्ताः पार्श्वे प्रपेदिरे।। 12-288-4a
गृध्राः कङ्का बलाकाश्च वाचोऽमुञ्चन्सुदारुणाः।
वृत्रस्योपरि संहृष्टाश्चक्रवत्परिबभ्रमुः।। 12-288-5a
ततस्तं रथमास्थाय देवाप्यायित आहवे।
वज्रोद्यतकरः शक्रस्तं दैत्यं प्रत्यवैक्षत।। 12-288-6a
अमानुषमथो नादं स मुमोच महासुरः।
व्यजृम्भच्चैव राजेन्द्र तीव्रज्वरसमन्वितः।। 12-288-7a
अथास्य जृम्भतः शक्रस्ततो वज्रमवासृजत्।
स वज्रः सुमहातेजा कालान्तकयमोपमः।। 12-288-8a
क्षिप्रमेव महाकायं वृत्रं दैत्यमपातयत्।
ततो नादः समभवत्पुनरेव समन्ततः।। 12-288-9a
वृत्रं विनिहितं दृष्ट्वा देवानां भरतर्षभ।
वृत्रं तु हत्वा मघवा दानवारिर्महायशाः।। 12-288-10a
वज्रेण विष्णुयुक्तेन दिवमेव समाविशत्।
अथ वृत्रस्य कौरव्य शरीरादभिनिःसृता।। 12-288-11a
ब्रह्महत्या महाघोरा रौद्रा लोकभयावहा।
करालदशना भीमा विकृता कृष्णपिङ्गला।। 12-288-12a
प्रकीर्णमूर्धजा चैव घोरनेत्रा च भारत।
कपालमालिनी चैव कृत्येव भरतर्षभ।। 12-288-13a
रुधिरार्द्रा च धर्मज्ञ चीरवल्कलवासिनी।
साऽभिनिष्क्रम्य राजेन्द्र तादृग्रृपा भयावहा।। 12-288-14a
वज्रिणं मृगयामास तदा भरतसत्तम।
कस्यचित्त्वथ कालस्य वृत्रहा कुरुनन्दन।। 12-288-15a
स्वर्गायाभिमुखः प्रायाल्लोकानां हितकाम्यया।
सा विनिःसरमाणं तु दृष्ट्वा शक्रं महौजसम्।। 12-288-16a
कण्ठे जग्राह देवेन्द्रं सुलग्ना चाभवत्तदा।
स हि तस्मिन्समुत्पन्ने ब्रह्मवध्याकृते भये।। 12-288-17a
नलिन्या विसमध्यस्थ उवासाब्दगणान्बहून्।
अनुसृत्य तु यत्नात्स तया वै ब्रह्महत्यया।। 12-288-18a
12-288-18b
तदा गृहीतः कौरव्य निस्तेजाः समपद्यत।
तस्या व्यपोहने शक्रः परं यत्नं चकार ह।। 12-288-19a
न चाशकत्तां देवेन्द्रो ब्रह्मवध्यां व्यपोहितुम्।
गृहीत एव तु तया देवेन्द्रो भरतर्षभ।। 12-288-20a
पितामहमुपागम्य शिरसा प्रत्यपूजयत्।
ज्ञात्वा गृहीतं शक्रं स द्विजप्रवरवध्यया।। 12-288-21a
ब्रह्मा स चिन्तयामास तदा भरतसत्तम।
तामुवाच महाबाहो ब्रह्मवध्यां पितामहः।। 12-288-22a
स्वरेण मधुरेणाथ सान्त्वयन्निव भारत।
मुच्यतां त्रिदशेन्द्रोयं मत्प्रियं कुरु भामिनी।। 12-288-23a
ब्रूहि किं ते करोम्यद्य कामं किं त्वमिहेच्छसि।। 12-288-24a
ब्रह्महत्योवाच। 12-
त्रिलोकपूजिते देवे प्रीते त्रैलोक्यकर्तरि।
कृतमेव हि मन्यामि निवासं तु विधत्स्व मे।। 12-288-25a
त्वया कृतेयं मर्यादा लोकसंरक्षणार्थिना।
स्थापना वै सुमहती त्वया देव प्रवर्तिता।। 12-288-26a
प्रीते तु त्वयि धर्मज्ञ सर्वलोकेश्वर प्रभो।
शक्रादपगमिष्यामि निवासं संविधत्स्व मे।। 12-288-27a
भीष्म उवाच।
तथेति तां प्राह तदा ब्रह्मवध्यां पितामहः।
उपायतः स शक्रस्य ब्रह्मवध्यां व्यपोहितुम्।। 12-288-28a
ततः स्वयंभुवा ध्यातस्तत्र वह्निर्महात्मना।
ब्रह्माणमुपसंगम्य ततो वचनमब्रवीत्।। 12-288-29a
प्राप्तोऽस्मि भगवन्देव त्वत्सकाशमनिन्दित्।
यत्कर्तव्यं मया देव तद्भवान्वक्तुमर्हति।। 12-288-30a
ब्रह्मोवाच।
बहुधा विभजिष्यामि ब्रह्मवध्यामिमामहम्।
शक्रस्याद्य विमोक्षार्थं चतुर्भागं प्रतीच्छ वै।। 12-288-31a
अग्निरुवाच।
मम मोक्षस्य कोऽन्तो वै ब्रह्मन्ध्यायस्व वै प्रभो।
एतदिच्छामि विज्ञातुं तत्वतो लोकपूजित।। 12-288-32a
ब्रह्मोवाच।
यस्त्वां ज्वलन्तमासाद्य स्वयं वै मानवः क्वचित्।
बीजौषधिरसैर्वह्ने न यक्ष्यति तमोवृतः।। 12-288-33a
तमेषा यास्यति क्षिप्रं तत्रैव च निवत्स्यति।
ब्रह्मवध्या हव्यवाह व्येतु ते मानसो ज्वरः।। 12-288-34a
इत्युक्तः प्रतिजग्राह तद्वचो हव्यकव्यभुक्।
पितामहस्य भगवांस्तथा च तदभूत्प्रभो।। 12-288-35a
ततो वृक्षौषधितृणं समाहूय पितामहः।
इममर्थं महाराज वक्तुं समुपचक्रमे।। 12-288-36a
`इयं पुत्रादनुप्राप्ता ब्रह्महत्या महाभया।
पुरुहूतं चतुर्थांशमस्या यूयं प्रतीच्छत।।' 12-288-37a
ततो वृक्षौषधितृणं तथैवोक्तं यथातथम्।
व्यथितं वह्निवद्राजन्ब्रह्माणमिदमब्रवीत्।। 12-288-38a
अस्माकं ब्रह्मवध्यायाः कोऽन्तो लोकपितामह।
स्वभावनिहतानस्मान्न पुनर्हन्तुमर्हसि।। 12-288-39a
वयमग्निं तथा शीतं वर्षं च पवनेरितम्।
सहामः सततं देव तथा च्छेदनभेदने।। 12-288-40a
ब्रह्मवध्यामिमामद्य भवतः शासनाद्वयम्।
ग्रहीष्यामस्त्रिलोकेश मोक्षं चिन्तयतां भवान्। 12-288-41a
ब्रह्मोवाच।
पर्वकाले तु संप्राप्ते यो वै छेदनभेदनम्।
करिष्यति नरो मोहात्तमेषाऽनुगमिष्यति।। 12-288-42a
भीष्म उवाच।
ततो वृक्षौषधितृणमेवमुक्तं महात्मना।
ब्रह्माणमभिसंपूज्य जगामाशु यथागतम्।। 12-288-43a
आहूयाप्सरसो देवस्ततो लोकपितामहः।
वाचा मधुरया प्राह सान्त्वयन्निव भारत।। 12-288-44a
इयमिन्द्रादनुप्राप्ता ब्रह्मवध्या वराङ्गनाः।
चतुर्थमस्या भागांशं मयोक्ताः संप्रतीच्छत।। 12-288-45a
अप्सरस ऊचुः।
ग्रहणे कृतबुद्धीनां देवेश तव शासनात्।
मोक्षं समयतोऽस्माकं चिन्तयस्व पितामह।। 12-288-46a
ब्रह्मोवाच।
रजस्वलासु नारीषु यो वै मैथुनमाचरेत्।
तमेषा यास्यति क्षिप्रं व्येतु वो मानसो ज्वरः।। 12-288-47a
भीष्म उवाच।
तथेति हृष्टमनस इत्युक्त्वाऽऽप्सरसां गणाः।
स्वानि स्थानानि संप्राप्य रेमिरे भरतर्षभ।। 12-288-48a
ततस्त्रिलोककृद्देवः पुनरेव महातपाः।
अथः संचिन्तयामास ध्यातास्ताश्चाप्यथागमन्।। 12-288-49a
तास्तु सर्वाः समागम्य ब्रह्माणममितौजसम्।
इदमूचुर्वचो राजन्प्रणिपत्य पितामहम्।। 12-288-50a
इमाः स्म देव संप्राप्तास्त्वत्सकाशमरिंदम्।
शासनात्तव लोकेश समाज्ञापय नः प्रभो।। 12-288-51a
ब्रह्मोवाच।
इयं वृत्रादनुप्राप्ता पुरुहूतं महाभया।
ब्रह्मवध्या चतुर्थांशमस्या यूयं प्रतीच्छत।। 12-288-52a
आप ऊचुः।
एवं भवतु लोकेश यथा वदसि नः प्रभो।
मोक्षं समयतोऽस्माकं संचिन्तयितुमर्हसि।। 12-288-53a
त्वं हि देवेश सर्वस्य जगतः परमा गतिः।
कोऽन्यः प्रसाद्यो हि भवेद्यः कृच्छ्रान्नः समुद्धरेत्।। 12-288-54a
ब्रह्मोवाच।
अल्पा इति मतिं कृत्वा यो नरो बुद्धिमोहितः।
श्लेष्ममूत्रपुरीषाणि युष्मासु प्रतिमोक्ष्यति।। 12-288-55a
तमियं यास्यति क्षिप्रं तत्रैव च निवत्स्यति।
तथा वो भविता मोक्ष इति सत्यं ब्रवीमि वः।। 12-288-56a
ततो विमुच्य देवेन्द्रं ब्रह्मवध्या युधिष्ठिर।
यथा निसृष्टं तं वासमगमद्देवशासनात्।। 12-288-57a
एवं शक्रेण संप्राप्ता ब्रह्मवध्या जनाधिप।
पितामहमनुज्ञाप्य सोऽश्वमेधमकल्पयत्।। 12-288-58a
श्रूयते च महाराज संप्राप्ता वासवेन वै।
ब्रह्मवध्या ततः शुद्धिं हयमेधेन लब्धवान्।। 12-288-59a
समवाप्य श्रियं देवो हत्वाऽरींश्च सहस्रशः।
प्रहर्षमतुलं लेभे वासवः पृथिवीपते।। 12-288-60a
वृत्रस्य रुधिराच्चैव बुद्बुदाः पार्थ जज्ञिरे।
द्विजातिभिरभक्ष्यास्ते दीक्षितैश्च तपोधनैः।। 12-288-61a
सर्वावस्थं त्वमप्येषां द्विजातीनां प्रियं कुरु।
इमे हि भूतले देवाः प्रथिताः कुरुनन्दन।। 12-288-62a
एवं शक्रेण कौरव्य बुद्धिसौक्ष्म्यान्महासुरः।
उपायपूर्वं निहतो वृत्रो ह्यमिततेजसा।। 12-288-63a
एवं त्वमपि कौन्तेय पृथिव्यामपराजितः।
भविष्यसि यथा देवः शतक्रतुरमित्रहा।। 12-288-64a
ये तु शक्रकथां दिव्यामिमां पर्वसुपर्वसु।
विप्रमध्ये वदिष्यन्ति न ते प्राप्स्यन्ति किल्विषं।। 12-288-65a
इत्येतद्वृत्रमाश्रित्य शक्रस्यात्यद्भुतं महत्।
कथितं कर्म ते तात किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।। 12-288-66a
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि
अष्टाशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 288।।
पाठभेदः
वृत्रस्य रुधिराच्चैव शिखण्डाः पार्थ जज्ञिरे।
द्विजातिभिरभक्ष्यास्ते दीक्षितैश्च तपोधनैः।। 12-288-61a
12-288-4 स्मृतिः सा तस्य भारतेति झ. ध. पाठः।। 12-288-11 विसमेव समाविशदिति ध. पाठः।। 12-288-13 कृशा च भरतर्षभेति ध.ध. पाठः।। 12-288-14 चीरवस्त्रा विभीषणेति थ. पाठः।। 12-288-16 वसान्निस्सरमाणत्विति ध. पाठः। जग्राह वथ्या देवेन्द्रमिति झ. पाठः।। 12-288-18 विसमध्यस्थो बभूवाब्दगणानिति थ. ध. पाठः।। 12-288-19 निश्चेष्ठः समपद्यतेति, तस्याश्चापनये शक्र इति थ. पाठः।। 12-288-31 शक्रास्याधविमोक्षार्थमिति झ. पाठः।। 12-288-33 यः आहिताग्निरधिकारी बीजैः पुरोडाशादिना ओषधिरसै सोमेन पय आदिभिर्वा।। 12-288-39 दैवेनाभिहतानस्मानिति झ. पाठः।। 12-288-49 ततस्तु लोककृद्देव इति थ. पाठः।। 12-288-31 शिखण्डाः पार्थ जज्ञिरे इति झ. पाठः।।
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