महाभारतम्-12-शांतिपर्व-183
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भरद्वाजंप्रति भृगुणा शरीरे प्राणापानादीनां कार्यविशेषरूपणम्।। 1।।
भरद्वाज उवाच। | 12-183-1x |
पार्थिवं धातुमाश्रित्य शारीरोऽग्निः कथं भवेत्। अवकाशविशेषेण कथं वर्तयतेऽनिलः।। | 12-183-1a 12-183-1b |
भृगुरुवाच। | 12-183-2x |
वायोर्गतिमहं ब्रह्मन्कीर्तयिष्यामि तेऽनघ। प्राणिनामनिलो देहान्यथा चेष्टयते बली।। | 12-183-2a 12-183-2b |
श्रितो मूर्धानमग्निस्तु शरीरं परिपालयन्। प्राणो मूर्धनि चाग्नौ च वर्तमानो विचेष्टने।। | 12-183-3a 12-183-3b |
स जन्तुः सर्वभूतात्मा पुरुषः स सनातनः। मनो बुद्धिरहंकारो भूतानि विषयाश्च सः।। | 12-183-4a 12-183-4b |
एवं त्विह स सर्वत्र प्राणेन परिपाल्यते। कोष्ठतस्तु समानेन स्वां स्वां गतिमुपाश्रितः।। | 12-183-5a 12-183-5b |
वस्तिमूलं गुदं चैव पावकं समुपाश्रितः। वहन्मूत्रं पुरीषं चाप्यपानः परिवर्तते।। | 12-183-6a 12-183-6b |
प्रयत्ने कर्मणि बले य एकस्त्रिषु वर्तते। उदान इति तं प्राहुरध्यात्मकुशला जनाः।। | 12-183-7a 12-183-7b |
संधिष्वपि च सर्वेषु सन्निविष्टस्तथाऽनिलः। शरीरेषु मनुष्याणां व्यान इत्युपदिश्यते।। | 12-183-8a 12-183-8b |
धातुष्वग्निस्तु विततः समानोऽग्निः समीरितः। रसान्धातूंश्च दोषांश्च वर्तयन्नवतिष्ठते।। | 12-183-9a 12-183-9b |
अपानप्राणयोर्मध्ये प्राणापानसमाहितः। समन्वितस्त्वधिष्ठानं सम्यक्पचति पावकः।। | 12-183-10a 12-183-10b |
आस्यं हि पायुसंयुक्तमन्ते स्याद्गुदसंज्ञितम्। स्रोतस्तस्मात्प्रजायन्ते सर्वस्रोतांसि देहिनाम्।। | 12-183-11a 12-183-11b |
प्राणानां सन्निपाताच्च सन्निपातः प्रजायते। ऊष्मा सोग्निरिति ज्ञेयो योऽन्नं पचति देहिनाम्।। | 12-183-12a 12-183-12b |
अग्निवेगवहः प्राणो गुदान्ते प्रतिहन्यते। स ऊर्ध्वमागम्य पुनः समुत्क्षिपति पावकम्।। | 12-183-13a 12-183-13b |
पक्वाशयस्त्वधो नाभ्या ऊर्ध्वमामाशयः स्मृतः। नाभिमध्ये शरीरस्य सर्वे प्राणाः समाश्रिताः।। | 12-183-14a 12-183-14b |
प्रसृता हृदयात्सर्वास्तिर्यगूर्ध्वमधस्तथा। वहन्त्यन्नरसान्नाड्यो दशप्राणप्रचोदिताः।। | 12-183-15a 12-183-15b |
एष मार्गोऽथ योगानां येन गच्छन्ति तत्पदम्। जितक्लमासना धीरा सूर्धन्यात्मानमादधन्।। | 12-183-16a 12-183-16b |
एवं सर्वेषु विहितः प्राणापानेषु देहिनाम्। तस्मिन्योऽवस्थितो नित्यमग्निः स्थाल्यामिवाहितः। | 12-183-17a 12-183-17b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि त्र्यशीत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 183।। |
12-183-5 पृष्ठतस्तु समानेनेति ट. थ. पाठः।। 12-183-10 समन्वितः समानेनेति ट. ड. थ. पाठः।। 12-183-11 पायुपर्यन्तमिति झ. पाठः।। 12-183-15 हृदयात्सर्वे इति झ. ट. पाठः।। 12-183-16 एष मार्गोऽथ युक्तानामिति ट. पाठः।। 12-183-17 तस्मिन्समिध्यते नित्यमिति घ. झ. पाठः। यो व्यज्यत इति ट. पाठः।।
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