महाभारतम्-12-शांतिपर्व-205
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति निबन्धनेन स्वमातरंप्रति अरण्यत्वेन रूपितस्य संसारचक्रस्य विवरणम्।। 1।। तथा नारदसावित्रीसंवादः।। 2।। नारदेन तपसा श्रीभगवदपरोक्षीकरणम्।। 3।।
पितामह महाप्राज्ञ दुःखशोकसमाकुले। संसारचक्रे लोकानां निर्वेदो नास्ति किंन्विदम्।। | 12-205-1a 12-205-1b |
भीष्म उवाच। | 12-205-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। निबन्धनस्य संवादं भोगवत्या नृपोत्तम।। | 12-205-2a 12-205-2b |
मुनिं निबन्धनं शुष्कं धमनीयाकृतिं तथा। निरारम्भं निरालम्बमसज्जन्तं च कर्मणि। पुत्रं दृष्ट्वाऽप्युवाचार्तं माता भोगवती तदा।। | 12-205-3a 12-205-3b 12-205-3c |
उत्तिष्ठ मूढ किं शेषे निरपेक्षः सुहृज्जनैः। निरालम्बो धनोपाये पैतृकं तव किं धनम्।। | 12-205-4a 12-205-4b |
निबन्धन उवाच। | 12-205-5x |
पैतृकं मे महन्मातः सर्वदुःखालयं त्विह। अस्त्येतत्तद्विधाताय यतिष्ये तत्र मा शुचः।। | 12-205-5a 12-205-5b |
इदं शरीरमत्युग्रं पित्रा दत्तमसंशयम्। तमेव पितरं गत्वा धनं तिष्ठति शाश्वतम्।। | 12-205-6a 12-205-6b |
कश्चिन्महति संसारे वर्तमान---। वनदुगमभिप्राप्तो महत्क्रव्या-----।। | 12-205-7a 12-205-7b |
सिंहव्याघ्रगजाकारैरतिघोरैर्महा-----। समन्तात्सुपरिक्षिप्तं स दृष्ट्वा व्यथते पुमान्।। | 12-205-8a 12-205-8b |
स तद्वनं ह्यनुचरन्विप्रधावन्नितस्ततः। वीक्षमाणो दिशः सर्वाः शरणार्थं प्रधावति।। | 12-205-9a 12-205-9b |
अथापश्यद्वनं रूढं समन्ताद्वागुरावृतम्। वनमध्ये च तत्रासीदुदपानः समावृतः।। | 12-205-10a 12-205-10b |
वल्लिभिस्तृणसंछिन्नैर्गूढाभिरभिसंवृतः। स पपात द्विजस्तत्र विजने सलिलाशये।। | 12-205-11a 12-205-11b |
विलग्नश्चाभवत्तस्मिँल्लतासन्तानसङ्कुले। बाहुभ्यां संपरिष्वक्तस्तया परमसत्वया।। | 12-205-12a 12-205-12b |
स तथा लम्बते तत्र ऊर्ध्वपादो ह्यधश्शिराः। अधस्तत्रैव जातश्च जम्बूवृक्षः सुदुस्तरः।। | 12-205-13a 12-205-13b |
कूपस्य तस्य वेलाया अपश्यत्सुमहाफलम्। वृक्षं बहुविधं व्योमं वल्लीपुष्पसमाकुलम्।। | 12-205-14a 12-205-14b |
नानारूपा मधुकरास्तस्मिन्वुक्षऽभवन्किल। तेषां मधूनां बहुधा धारा प्रववृते तदा।। | 12-205-15a 12-205-15b |
विलम्बमानः स पुमान्धारां पिबति सर्वदा। न तस्य तृष्णा विरता पीयमानस्य संकटे।। | 12-205-16a 12-205-16b |
परीप्सति च तां नित्यमतृप्तः स पुनः पुनः। एवं स वसते तत्र दुःखिदुःखी पुनः पुनः।। | 12-205-17a 12-205-17b |
मया तु तद्धनं देयं तव दास्यामि चेच्छसि। तस्य च प्रार्थितः सोथ दत्वा मुक्तिमवाप सः।। | 12-205-18a 12-205-18b |
सा च त्यक्त्वाऽर्थसंकल्पं जगाम परमां गतिम्।। | 12-205-19a |
एवं संसारचक्रस्य स्वरूपज्ञा नृपोत्तम। परं वैराग्यमागम्य गच्छन्ति परमं पदम्।। | 12-205-20a 12-205-20b |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-205-21x |
एवं संसारचक्रस्य स्वरूपं विदितं न मे। पैतृकं तु धनं प्रोक्तं किं तद्विद्वन्महात्मना।। | 12-205-21a 12-205-21b |
कान्तारमिति किं प्रोक्तं को हस्ती स तु कूपकः। किंसंज्ञिको महावृक्षो मधु वाऽपि पितामह।। | 12-205-22a 12-205-22b |
एवं मे संशयं विद्धि धनशब्दं किमुच्यते। कथं लब्धं धनं तेन तथा च किमिदं त्विह।। | 12-205-23a 12-205-23b |
भीष्म उवाच। | 12-205-24x |
उपाख्यानमिदं सर्वं मोक्षविद्भिरुदाहृतम्। सुमतिं विन्दते येन बन्धनाशश्च भारत।। | 12-205-24a 12-205-24b |
एतदुक्तं हि कान्तारं महान्संसार एव सः। ये ते प्रतिष्ठिता व्याला व्याधयस्ते प्रकीर्तिताः।। | 12-205-25a 12-205-25b |
या सा नारी महाघोरा वर्णरूपविनाशिनी। तामाहुश्च जरां प्राज्ञाः परिष्वक्तं यया जगत्।। | 12-205-26a 12-205-26b |
यस्तत्र कूपे वसते महाहिः काल एव सः। यो वृक्षः स च मृत्युर्हि स्वकृतं तस्य तत्फलम्।। | 12-205-27a 12-205-27b |
ये तु कृष्णाः सिता राजन्मूषिका रात्र्यहानि वै।। | 12-205-28a |
द्विषट्कपदसंयुक्तो यो हस्ती षण्मुखाकृतिः। स च संवत्सरः प्रोक्तः पाशमासर्तवो मुखाः।। | 12-205-29a 12-205-29b |
एतत्संसारचक्रस्य स्वरूपं व्याहृतं मया। एवं लब्धधनं राजंस्तत्स्वरूपं विनाशय।। | 12-205-30a 12-205-30b |
एतज्ज्ञात्वा तु सा राजन्परं वैराग्यमास्थिता। यथोक्तविधिना भूयः परं पदमवाप सः।। | 12-205-31a 12-205-31b |
धत्ते धारयते चैव एतस्मात्कारणाद्धनम्। तद्गच्छ चामृतं शुद्धं हिरण्यममृतं तपः।। | 12-205-32a 12-205-32b |
तत्स्वरूपो महादेवः कृष्णो देवकिनन्दनः। तस्य प्रसादाद्दुःखस्य नाशं प्राप्स्यसि मानद।। | 12-205-33a 12-205-33b |
एकः कर्ता स कृष्णश्च ज्ञानिनां परमा गतिः।। | 12-205-34a |
इदमाश्रित्य देवेन्द्रो देवा रुद्रास्तथाऽश्विनौ। स्वेस्वे पदे विविशिरे भुक्तिमुक्तिविदो जनाः।। | 12-205-35a 12-205-35b |
भूतानामन्तरात्माऽसौ स नित्यपदसंवृतः। श्रूयतामस्य सद्भावः सम्यग्ज्ञानं यथा तव।। | 12-205-36a 12-205-36b |
भवेदेतन्निबोध त्वं नारदाय पुरा हरिः। दर्शयित्वाऽऽत्मनो रूपं यदवोचत्स्वयं विभुः।। | 12-205-37a 12-205-37b |
पुरा देवऋषिः श्रीमान्नारदः परमार्थवान्। चचार पृथिवीं कृत्स्नां तीर्थान्यनुचरन्प्रभुः।। | 12-205-38a 12-205-38b |
हिमवत्पादमाश्रित्य विचार्य च पुनःपुनः। स ददर्श ह्रदं तत्र पद्मोत्पलसमाकुलम्।। | 12-205-39a 12-205-39b |
ददर्श कन्यां तत्तीरे सर्वाभरणभूषिताम्। शोभमानां श्रिया राजन्क्रीडन्तीमुत्पलैस्तथा।। | 12-205-40a 12-205-40b |
सा महात्मानमालोक्य नारदेत्याह भामिनी। तस्याः समीपमासाद्य तस्थौ विस्मितमानसः।। | 12-205-41a 12-205-41b |
वीक्षमाणं तमाज्ञाय सा कन्या चारुवासिनी। विजजृम्भे महाभागा स्मयमाना पुनः पुनः।। | 12-205-42a 12-205-42b |
तस्मात्समभवद्वक्रात्पुरुषाकृतिसंयुतः। रत्नविन्दुचिताङ्गस्तु सर्वाभरणभूषितः।। | 12-205-43a 12-205-43b |
आदित्यसदृशाकारः शिरसा धारयन्मणिम्। पुनरेव तदाकारसदृशः समजायत।। | 12-205-44a 12-205-44b |
तृतीयस्तु महाराज विविधाभरणैर्युतः। प्रदक्षिणं तु तां कृत्वा विविधध्वनयस्तु ताम्।। | 12-205-45a 12-205-45b |
ततः सर्वेण विप्रर्षिः कन्यां पप्रच्छ तां शुभाम्।। | 12-205-46a |
का त्वं परमकल्याणि पद्मेन्दुसदृशानने। न जाने त्वां महादेवि ब्रूहि सत्यमनिन्दिते।। | 12-205-47a 12-205-47b |
कन्योवाच। | 12-205-48x |
सावित्री नाम विप्रर्षे शृणु भद्रं तवास्तु वै। किं करिष्यामि तद्ब्रूहि तव यच्चेतसि स्थितम्।। | 12-205-48a 12-205-48b |
नारद उवाच। | 12-205-49x |
अभिवादये त्वां सावित्रि कृतार्थोऽहमनिन्दिते। एतं मे संशयं देवि वक्तुमर्हसि शोभने।। | 12-205-49a 12-205-49b |
यस्तु वै प्रथमोत्पन्नः कोऽसौ स पुरुषाकृतिः। बिन्दवस्तु महादेवि मूर्ध्नि ज्योतिर्मयाकृतिः।। | 12-205-50a 12-205-50b |
कन्योवाच। | 12-205-51x |
अग्रजः प्रथमोत्पन्नो यजुर्वेदस्तथाऽपरः। तृतीयः सामवेदस्तु संशयो व्येतु ते मुने।। | 12-205-51a 12-205-51b |
वेदाश्च बिन्दुसंयुक्ता यज्ञस्य फलसंश्रिताः। यत्तद्दृष्टं महज्ज्योतिर्ज्योतिरित्युच्यते बुधैः।। | 12-205-52a 12-205-52b |
ऋषे ज्ञेयं मया चाऽपीत्युक्त्वा चान्तरधीयत। ततः स विस्मयाविष्टो नारदः पुरुषर्षभ। ध्यानयुक्तः स तु चिरं न बुबोध महामतिः।। | 12-205-53a 12-205-53b 12-205-53c |
ततः स्नात्वा महातेजा वाग्यतो नियतेन्द्रियः। तुष्टाव पुरुषव्याघ्रो जिज्ञासुश्च तदद्भुतम्।। | 12-205-54a 12-205-54b |
ततो वर्षशते पूर्णे भगवाँलोकभावनः। प्रादुश्चकार विश्वात्मा ऋषेः परमसौहृदात्।। | 12-205-55a 12-205-55b |
तमागतं जगन्नाथं सर्वकारणकारणम्। अखिलामरमौल्यङ्गरुक्मारुणपदद्वयम्।। | 12-205-56a 12-205-56b |
वैनतेयपदस्पर्शकिणशोभितजानुकम्। पीताम्बरलसत्काञ्चीदामबद्धकटीतटम्।। | 12-205-57a 12-205-57b |
श्रीवत्सवक्षसं चारुमणिकौस्तुभकन्धरम्। मन्दस्मितमुखाम्भोजं चलदायतलोचनम्।। | 12-205-58a 12-205-58b |
नम्रचापानुकरणनम्रभ्रूयुगशोभितम्। नानारत्नमणीवज्रस्फुरन्मकरकुण्डलम्।। | 12-205-59a 12-205-59b |
इन्द्रनीलनिभासं तं केयूरमकुटोज्ज्वलम्। देवैरिन्द्रपुरोगैश्च ऋषिसङघैरभिष्टुतम्।। | 12-205-60a 12-205-60b |
नारदो जयशब्देन ववन्दे शिरसा हरिम्।। | 12-205-61a |
ततः स भगवाञ्श्रीमान्मेघगम्भीरया गिरा। प्राहेशः सर्वभूतानां नारदं पतितं क्षितौ।। | 12-205-62a 12-205-62b |
भद्रमस्तु ऋषे तुभ्यं वरं वरय सुव्रत। यत्ते मनसि सुव्यक्तमस्ति च प्रददामि तन्।। | 12-205-63a 12-205-63b |
स चेमं जयशब्देन प्रसीदेत्यातुरो मुनिः। प्रोवाच हृदि संरूढं शङ्खचक्रगदाधरम्।। | 12-205-64a 12-205-64b |
विवक्षितं जगन्नाथ मया ज्ञातं त्वयाऽच्युत। तत्प्रसीद हृषीकेश श्रोतुमिच्छामि तद्धरे।। | 12-205-65a 12-205-65b |
ततः स्मयन्महाविष्णुरभ्यभाषत नारदम्। यद्दृष्टं मम रूपं तु वेदानां शिरसि त्वया।। | 12-205-66a 12-205-66b |
निर्द्वन्द्वा निरहंकाराः शुचयः शुद्धलोचनाः। तं मां पश्यन्ति सततं तान्पृच्छ यदिहेच्छसि।। | 12-205-67a 12-205-67b |
ये योगिनो महाप्राज्ञा मदंशा ये व्यवस्थिताः। तेषां प्रसादं देवर्षे मत्प्रसादमवैहि तत्।। | 12-205-68a 12-205-68b |
भीष्म उवाच। | 12-205-69x |
इत्युक्त्वा स जगामाथ भगवान्भूतभावनः। तस्माद्व्रज हृषीकेशं कृष्णं देवकिनन्दनम्।। | 12-205-69a 12-205-69b |
एतमाराध्य गोविन्दं गता मुक्तिं महर्षयः। एष कर्ता विकर्ता च सर्वकारणकारणम्।। | 12-205-70a 12-205-70b |
मयाऽप्येतच्छ्रुतं राजन्नारदात्तु निबोध तत्। स्वयमेव समाचष्ट नारदो भगवान्मुनिः।। | 12-205-71a 12-205-71b |
समस्तसंसारविघातकारणं भजन्ति ये विष्णुमनन्यमानसाः। ते यान्ति सायुज्यमतीव दुर्लभ मितीव नित्यं हृदि वर्णयन्ति।।' | 12-205-72a 12-205-72b 12-205-72c 12-205-72d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पञ्चाधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 205।। |
- अयमध्यायः ध. पुस्तक एव दृश्यते।
12-205-65 मया विवक्षितं त्वया ज्ञातमिति संबन्धः।। 12-205-69 व्रज शरणमिति शेषः।।
शांतिपर्व-204 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-206 |