महाभारतम्-12-शांतिपर्व-047
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कृष्णंयुधिष्ठिरादीनां कुरुक्षेत्रंप्रति गमनम्।। 1।। युधिष्ठिरेण कृष्णंप्रति परशुरामचरित्रकथनप्रार्थना।। 2।।
वैशंपायन उवाच। | 12-47-1x |
ततः स च हृषीकेशः स च राजा युधिष्ठिरः। कृपादयश्च ते सर्वे चत्वारः पाण्डवाश्च ते।। | 12-47-1a 12-47-1b |
रथैस्तैर्नगरप्रख्यैः पताकाध्वजशोभितैः। ययुराशु कुरुक्षेत्रं वाजिभिः शीघ्रगामिभिः।। | 12-47-2a 12-47-2b |
तेऽवतीर्य कुरुक्षेत्रे केशमढज्जास्थिसंकुले। देहन्यासः कृंतो यत्र क्षत्रियैस्तैर्महारथैः।। | 12-47-3a 12-47-3b |
गजाश्वदेहास्थिचयैः पर्वतैरिव संचितम्। नरशीर्षकपालैश्च हंसैरिव च सर्वशः।। | 12-47-4a 12-47-4b |
चितासहस्रैर्निचितं वर्मशस्त्रसमाकुलम्। आपानभूमिं कालस्य तदा भुक्तोज्झितामिव।। | 12-47-5a 12-47-5b |
भूतसङ्घानुचरितं रक्षोगणनिषेवितम्। पश्यन्तस्ते कुरुक्षेत्रं ययुराशु महारथाः।। | 12-47-6a 12-47-6b |
गच्छन्नेव महाबाहुः सर्वं यादवनन्दनः। युधिष्ठिराय प्रोवाच जामदग्न्यस्य विक्रमम्।। | 12-47-7a 12-47-7b |
अमी रामह्रदाः पञ्च दृश्यन्ते पार्थ दूरतः। येषु संतर्पयामास पितॄन्क्षत्रियशोणितैः।। | 12-47-8a 12-47-8b |
त्रिःसप्तकृत्वो वसुधां कृत्वा निःक्षत्रियां प्रभुः। इहेदानीं ततो रामः कर्मणो विरराम ह।। | 12-47-9a 12-47-9b |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-47-10x |
त्रिःसप्तकृत्वः पृथिवी कृता निःक्षत्रिया पुरा। रामेणेति यदात्थ त्वमत्र मे संशयो महान्।। | 12-47-10a 12-47-10b |
क्षत्रबीजं यथा दग्धं रामेण यदुपुङ्गव। कथं भूयः समुत्यत्तिः क्षत्रस्यामितविक्रम।। | 12-47-11a 12-47-11b |
महात्मना भगवता रामेण यदुपुङ्गव। कथमुत्सादित्तं क्षत्रं कथमृद्धिगतं पुनः।। | 12-47-12a 12-47-12b |
महता रथयुद्धेन कोटिशः क्षत्रिया हताः। तथाऽभूच्च मही कीर्णा क्षत्रियैर्वदतां वर।। | 12-47-13a 12-47-13b |
किमर्थं भार्गवेणेदं क्षत्रमुत्सादितं पुरा। रामेण यदुशार्दूल कुरुक्षेत्रे महात्मना।। | 12-47-14a 12-47-14b |
एतन्मे छिन्धि वार्ष्णेय संशयं तार्क्ष्यकेतन। आगमो हि परः कृष्ण त्वत्तो नो वासवानुज।। | 12-47-15a 12-47-15b |
वैशंपायन उवाच। | 12-47-16x |
ततो व्रजन्नेव गदाग्रजः प्रभुः शशंस तस्मै निखिलेन तत्त्वतः। युधिष्ठिरायाप्रतिमौजसे तदा यथाऽभवत्क्षत्रियसंकुला मही।। | 12-47-16a 12-47-16b 12-47-16c 12-47-16d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः।। 47।। |
12-47-15 आगमो वेदः। त्वत्तः त्वद्वचनात्रो परः नाधिकः।।
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