महाभारतम्-12-शांतिपर्व-313
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति बुद्धाबुद्धस्वरूपनिरूपकवसिष्ठकरालजनकसंवादानुवादसमापनम्।। 1।।
वसिष्ठ उवाच। | 12-313-1x |
अप्रबुद्धमथाव्यक्तमिमं गुणविधिं शृणु। गुणान्धारयते ह्येषा सृजत्याक्षिपते तथा।। | 12-313-1a 12-313-1b |
अजस्रं त्विह क्रीडार्थं विकरोति जनाधिप। आत्मानं बहुधा कृत्वा तान्येव प्रविचक्षते।। | 12-313-2a 12-313-2b |
एतदेवं विकुर्वाणं बुध्यमानो न बुध्यते। अव्यक्तबोधनाच्चैव बुध्यमानं वदन्त्यपि।। | 12-313-3a 12-313-3b |
न त्वेव बुध्यतेऽव्यक्तं सगुणं वाऽथ निर्गुणम्। कदाचित्त्वेव खल्वेतदाहुरप्रतिबुद्धकम्।। | 12-313-4a 12-313-4b |
बुध्यते यदि वाऽव्यक्तमेतद्वै पञ्चविंशकम्। बुध्यमानो भवत्येष सङ्गात्मक इति श्रुतिः। अनेनाप्रतिबुद्धेति वदन्त्यव्यक्तमच्युतम्।। | 12-313-5a 12-313-5b 12-313-5c |
अव्यक्तोबोधनाच्चापि बुध्यमानं वदन्त्युत। पञ्चविंशं महात्मानं न चासावपि बुध्यते।। | 12-313-6a 12-313-6b |
षङ्विशं विमलं बुद्धमप्रमेयं सनातनम्। स तु तं पञ्चविंशं च चतुर्विशं च बुध्यते।। | 12-313-7a 12-313-7b |
दृश्यादृश्यौ ह्यनुगतावुभावेव महाद्युती। अव्यक्तं तत्तु तद्ब्रह्म बुध्यते तात केवलम्।। | 12-313-8a 12-313-8b |
केवलं पञ्चविंशं च चतुर्विशं च पश्यति। बुध्यमानो यदात्मानमन्योऽहमिति मन्यते।। | 12-313-9a 12-313-9b |
तदा प्रकृतिमानेष भवत्यव्यक्तलोचनः। बुध्यते च परां बुद्धिं विमलाममलां यदा।। | 12-313-10a 12-313-10b |
षङ्विंशं राजशार्दूल तथा बुद्धत्वमाव्रजेत्। ततस्त्यजति सोऽव्यक्तं सर्गप्रलयधर्मि वै।। | 12-313-11a 12-313-11b |
निर्गुणः प्रकृतिं वेद गुणयुक्तामचेतनाम्। ततः केवलधर्माऽसौ भवत्यव्यक्तदर्शनात्।। | 12-313-12a 12-313-12b |
केवलेन समागम्य विमुक्तोऽऽत्मानमाप्नुयात्। एतं वै तत्त्वमित्याहुर्निस्तत्त्वमजरामरम्।। | 12-313-13a 12-313-13b |
तत्त्वसंश्रयणादेष तत्त्ववान्न च मानद। पञ्चविंशतितत्त्वानि प्रवदन्ति मनीषिणः।। | 12-313-14a 12-313-14b |
न चैष तत्त्ववांस्तात निस्तत्त्वस्त्वेष बुद्धिमान्। एष मुञ्चति तत्त्वं हि क्षिप्रं बुद्धत्वलक्षणम्।। | 12-313-15a 12-313-15b |
षाङ्विंशोऽहमिति प्राज्ञो गृह्यमाणोऽजरामरः। केवलेन बलेनैव समतां यात्यसंशयम्।। | 12-313-16a 12-313-16b |
षङ्विंशेन प्रबुद्धेन बुध्यमानो ह्यबुद्धिमान्। एवं नानात्वमित्युक्तं साङ्ख्यश्रुतिनिदर्शनात्।। | 12-313-17a 12-313-17b |
चेतनेन समेतस्य पञ्चविंशतिकस्य च। एकत्वं वै भवत्यस्य यदा बुद्ध्या न बुध्यते।। | 12-313-18a 12-313-18b |
बुध्यमानोप्रबुद्धेन समतां याति मैथिल। सङ्गधर्मा भवत्येष निःसङ्गात्मा नराधिप।। | 12-313-19a 12-313-19b |
निःसङ्गात्मानमासाद्य षङ्विंशकमजं विभुम्। विभुस्त्यजति चाव्यक्तं यदा त्वेताद्विबुध्यते।। | 12-313-20a 12-313-20b |
चतुर्विशं महाभाग षङ्विंशस्य प्रबोधनात्। एष ह्यप्रतिबुद्धश्च बुध्यमानश्च तेऽनघ।। | 12-313-21a 12-313-21b |
प्रोक्तो बुद्धश्च तत्त्वेन यथाश्रुतिनिदर्शनात्। नानात्वैकत्वमेतावद्द्रष्टव्यं शास्त्रदृष्टिभिः।। | 12-313-22a 12-313-22b |
मशकोदुम्बरे यद्वदन्यत्वं तद्वदेतयोः। मत्स्योदके यथा तद्वदन्यत्वमुपलभ्यते।। | 12-313-23a 12-313-23b |
एवमेवावगन्तव्यं नानात्वैकत्वमेतयोः। एतद्धि मोक्ष इत्युक्तमव्यक्तज्ञानसंज्ञितम्।। | 12-313-24a 12-313-24b |
पञ्चविंशतिकस्यास्य योऽयं देहेषु वर्तते। एष मोक्षयितव्येति प्राहुरव्यक्तगोचरात्।। | 12-313-25a 12-313-25b |
सोयमेवं विमुच्येत नान्यथेति विनिश्चयः। परेण परधर्मा च भवत्येष समेत्य वै।। | 12-313-26a 12-313-26b |
विशुद्धर्मा शुद्धेन बुद्धेन च स बुद्धिमान्। विमुक्तधर्मा मुक्तेन समेत्य पुरुषर्षभ।। | 12-313-27a 12-313-27b |
वियोगधर्मिणा चैव वियोगात्मा भवत्यथ। विमोक्षिणा विमोक्षश्च समेत्येह तथा भवेत्।। | 12-313-28a 12-313-28b |
शुद्धधर्मा शुचिश्चैव भवत्यमितदीप्तिमान्। विमलात्मा च भवति समेत्य विमलात्मना।। | 12-313-29a 12-313-29b |
केवलात्मा तथा चैव केवलेन समेत्य वै। स्वतन्त्रश्च स्वतन्त्रेण स्वतन्त्रत्वमवाप्नुते।। | 12-313-30a 12-313-30b |
एतावदेतत्कथितं मया ते तथ्यं महाराज यथार्थतत्त्वम्। अमत्सरत्वं प्रतिगृह्य चार्थं सनातनं ब्रह्म विशुद्धमाद्यम्।। | 12-313-31a 12-313-31b 12-313-31c 12-313-31d |
नावेदनिष्ठस्य जनस्य राज न्प्रदेयमेतत्परमं त्वया भवेत्। विवित्समानाय विबोधकारणं प्रबोधहेतोः प्रणतस्य शासनम्।। | 12-313-32a 12-313-32b 12-313-32c 12-313-32d |
न देयमेतच्च तथाऽनृतात्मने शठाय क्लीबाय न जिह्नबुद्धये। न पण्डितज्ञानपरोपतापिने देयं त्वयेदं विनिबोध यादृशे।। | 12-313-33a 12-313-33b 12-313-33c 12-313-33d |
श्रद्धान्वितायाथ गुणान्विताय परापवादाद्विरताय नित्यम्। विशुद्धयोगाय बुधाय चैव क्रियावते च क्षमिणे हिताय।। | 12-313-34a 12-313-34b 12-313-34c 12-313-34d |
विविक्तशीलाय विधिप्रियाय विवादहीनाय बहुश्रुताम्। विजानते चैव दमक्षमावते शक्ताय चैकात्मशमाय देहिनाम्।। | 12-313-35a 12-313-35b 12-313-35c 12-313-35d |
एतैर्गुणैर्हीनतमे न देय मेतत्परं ब्रह्म विशुद्धमाहुः। न श्रेयसा योक्ष्यति तादृशे कृतं धर्मप्रवक्तारमपात्रदानात्।। | 12-313-36a 12-313-36b 12-313-36c 12-313-36d |
पृथ्वीमिमां यद्यपि रत्नपूर्णां दद्यान्न देयं त्विदमव्रताय। जितेन्द्रियायैतदसंशयं ते भवेत्प्रदेयं परमं नरेन्द्र।। | 12-313-37a 12-313-37b 12-313-37c 12-313-37d |
कराल मा ते भयमस्तु किंचि देतच्छ्रुतं ब्रह्म परं त्वयाऽद्य। यथावदुक्तं परमं पवित्रं विशोकमत्यन्तमनादिमध्यम्।। | 12-313-38a 12-313-38b 12-313-38c 12-313-38d |
अगाधजन्मामरणं च राज न्निरामयं वीतभयं शिवं च। समीक्ष्य मोहं त्यज बाऽद्य सर्व ज्ञानस्य तत्त्वार्थमिदं विदित्वा।। | 12-313-39a 12-313-39b 12-313-39c 12-313-39d |
अवाप्तमेतद्धि मया सनातना द्धिरण्यगर्भाद्यजतो नराधिप। प्रसाद्य यत्नेन तमुग्रतेजसं सनातनं ब्रह्म यथाऽद्य वै त्वया।। | 12-313-40a 12-313-40b 12-313-40c 12-313-40d |
पृष्टस्त्वया चास्मि यथा नरेन्द्र तथा मयेदं त्वयि चोक्तमद्य। तथाऽवाप्तं ब्रह्मणो मे नरेन्द्र महाज्ञानं मोक्षविदां परायणम्।। | 12-313-41a 12-313-41b 12-313-41c 12-313-41d |
भीष्म उवाच। | 12-313-42x |
एतदुक्तं परं ब्रह्म यस्मान्नावर्तते पुनः। पञ्चविंशो महाराज परमर्षिनिदर्शनात्।। | 12-313-42a 12-313-42b |
पुनरावृत्तिमाप्नोति परं ज्ञानमवाप्य च। नावबुध्यति तत्त्वेन बुध्यमानोऽजरामरम्।। | 12-313-43a 12-313-43b |
एतन्निः श्रेयसकरं ज्ञानं ते परमं मया। कथितं तत्त्वतस्तात श्रुत्वा देवर्षितो नृप।। | 12-313-44a 12-313-44b |
हिरण्यगर्भादृषिणा वसिष्ठेन महात्मना। वसिष्ठादृषिशार्दूलान्नारदोऽवाप्तवानिदम्।। | 12-313-45a 12-313-45b |
नारदाद्विदितं मह्यमेतद्ब्रह्म सनातनम्। मा शुचः कौरवेन्द्र त्वं श्रुत्वैतत्परमं पदम्।। | 12-313-46a 12-313-46b |
येन क्षराक्षरे वित्ते भयं तस्य न विद्यते। विद्यते तु भयं तस्य यो नैतद्वेत्ति पार्थिव।। | 12-313-47a 12-313-47b |
अविज्ञानाच्च मूढात्मा पुनः पुनरुपाद्रवत्। प्रेत्य जातिसहस्राणि मरणान्तान्युपाश्नुते।। | 12-313-48a 12-313-48b |
देवलोकं तथा तिर्यङ्भनुष्यमपि चाश्नुते। यदि शुध्यति कालेन तस्मादज्ञानसागरात्।। | 12-313-49a 12-313-49b |
`उत्तीर्णोऽस्मादगाधात्स परमाप्नोति शोभनम्।' अज्ञानसागरो घोरो ह्यव्यक्तोऽगाध उच्यते। अहन्यहनि मज्जन्ति यत्र भूतानि भारत।। | 12-313-50a 12-313-50b 12-313-50c |
यस्मादगाधादव्यक्तादुत्तीर्णस्त्वं सनातनात्। तस्मात्त्वं विरजाश्चैव वितमस्कश्च पार्थिव।। | 12-313-51a 12-313-51b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि त्रयोदशाधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 313।। |
12-313-3 अव्यक्तबोधनं चैनमिति ड. थ. पाठः। अव्यक्तबोधनाच्चैनमिति ट. पाठः।। 12-313-9 चतुर्विशं न पश्यतीति झ. पाठः।। 12-313-10 बुद्ध्यते विमलं बुद्धविशुद्धमचलोपममिति ध. पाठः।। 12-313-11 षङ्विशो राजशार्दूलेति झ. पाठः। प्रलयधर्मिणि इति थ. पाठः।। 12-313-13 एतद्वै तत्वमिति ध. पाठः।। 12-313-15 क्षिप्रं बुद्ध्या सुलक्षणमिति ड. थ. पाठः। क्षिप्रं बुद्ध्वा स्वलक्षणमिति ट. पाठः।। 12-313-18 एकत्वं चैव तत्वस्येति ध. पाठः।। 12-313-47 वित्ते विज्ञाते।।
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