महाभारतम्-12-शांतिपर्व-057
← शांतिपर्व-056 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-057 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-058 → |
भीष्मेण युधिष्ठिराय प्रथमदिने राजधर्मकथनम्।। 1।। ततः सायं कृष्णादीनां स्वस्वावासगमनम्।। 2।।
भीष्म उवाच। | 12-57-1x |
एतत्ते राजधर्माणां नवनीतं युधिष्ठिर। बृहस्पतिर्हि भगवान्नान्यं धर्मं प्रशंसति।। | 12-57-1a 12-57-1b |
विशालाक्षश्च भगवान्काव्यश्चैव महातपाः। सहस्राक्षो महेन्द्रश्च तथा प्राचेतसो मनुः।। | 12-57-2a 12-57-2b |
भरद्वाजश्च भगवांस्तथा गौरशिरा मुनिः। राजशास्त्रप्रणेतारो ब्राह्मणा ब्रह्मवादिनः।। | 12-57-3a 12-57-3b |
रक्षामेव प्रशंसन्ति धर्मं धर्मभृतां वर। राज्ञां राजीवताम्राक्ष साधनं चात्र मे शृणु।। | 12-57-4a 12-57-4b |
चारश्च प्रणिधिश्चैव काले दानममत्सरः। युक्त्या दानं न चादानमयोगेन युधिष्ठिर।। | 12-57-5a 12-57-5b |
सतां संग्रहणं शौर्यं दाक्ष्यं सत्यं प्रजाहितम्। अनार्जवैरार्जवैश्च शत्रुपक्षाविवर्धनम्।। | 12-57-6a 12-57-6b |
केतनानां च जीर्णानामवेक्षा चैव सीदताम्। द्विविधस्य च दण्डस्य प्रयोगः कालचोदितः।। | 12-57-7a 12-57-7b |
साधूनामपरित्यागः कुलीनानां च धारणम्। निचयश्च निचेयानां सेवा बुद्धिमतामपि।। | 12-57-8a 12-57-8b |
बलानां हर्षणं नित्यं प्रजानामन्ववेक्षणम्। कार्येष्वखेदः कोशस्य तथैव च विवर्धनम्।। | 12-57-9a 12-57-9b |
पुरगुप्तिरविश्वासः पौरसंघातभेदनम्। अरिमध्यस्थमित्राणां यथावच्चान्ववेक्षणम्।। | 12-57-10a 12-57-10b |
उपजापश्च भृत्यानामात्मनः पुरदर्शनम्। अविश्वासः स्वयं चैव परस्याश्वासनं तथा।। | 12-57-11a 12-57-11b |
नीतिवर्त्मानुसारेण नित्यमुत्थानमेव च। रिपूणामनवज्ञानं नित्यं चानार्यवर्जनम्।। | 12-57-12a 12-57-12b |
उत्थानं हि नरेन्द्राणां बृहस्पतिरभाषत। राजधर्मस्य यन्मूलं श्लोकांश्चात्र निबोध मे।। | 12-57-13a 12-57-13b |
उत्थानेनामृतं लब्धमुत्थानेनासुरा हताः। उत्थानेन महेन्द्रेण श्रैष्ठ्यं प्राप्तं दिवीह च।। | 12-57-14a 12-57-14b |
उत्थानधीरः पुरुषो वाग्धीरानधितिष्ठति। उत्थानवीरान्वाग्वीरा रमयन्त उपासते।। | 12-57-15a 12-57-15b |
उत्थानहीनो राजा हि बुद्धिमानपि नित्यशः। प्रधर्षणीयः शत्रूणां भुजङ्ग इव निर्विषः।। | 12-57-16a 12-57-16b |
न च शत्रुरवज्ञेयो दुर्बलोऽपि बलीयसा। अल्पोऽपि हि दहत्यग्निर्विषमल्पं हिनस्ति च।। | 12-57-17a 12-57-17b |
एकाङ्गेनापि संभूतः शत्रुर्दुर्गमुपाश्रितः। सर्वं तापयते देशमपि राज्ञः समृद्धिनः।। | 12-57-18a 12-57-18b |
राज्ञो रहस्यं यद्वाक्यं जयार्थे लोकसंग्रहः। हृदि यच्चास्य जिह्नं स्यात्कारणार्थं च यद्भवेत्।। | 12-57-19a 12-57-19b |
यच्चास्य कार्यं वृजिनं मार्दवेनैव धार्यते। रञ्जनार्थं च लोकस्य धर्मिष्ठामाचरेत्क्रियाम्।। | 12-57-20a 12-57-20b |
राज्यं हि सुमहत्तत्र दुर्धार्यमकृतात्मभिः। न शक्यं मृदुना वोदुमाघातस्थानमुल्वणम्।। | 12-57-21a 12-57-21b |
राज्यं सर्वामिषं नित्यमार्जवेनैव धार्यते। तस्मान्मिश्रेण सततं वर्तितव्यं युधिष्ठिर।। | 12-57-22a 12-57-22b |
यद्यप्यस्य विपक्तिः स्याद्रक्षमाणस्य वै प्रजाः। सोप्यस्य विपुलो धर्म एवं वृत्ता हि भूमिपाः।। | 12-57-23a 12-57-23b |
एष ते राजधर्माणां लेशः समनुवर्णितः। भूयस्ते यत्र संदेहस्तद्ब्रूहि कुरुसत्तम।। | 12-57-24a 12-57-24b |
वैशंपायन उवाच। | 12-57-25x |
ततो व्यासश्च भगवान्देवस्थानोऽश्म एव च। वासुदेवः कृपश्चैव सात्यकिः सञ्जयस्तथा।। | 12-57-25a 12-57-25b |
साधुसाध्विति संहृष्टा घुष्यमाणैरिवाननैः। अस्तुवंश्च नरव्याघ्रं भीष्मं धर्मभृतां वरम्।। | 12-57-26a 12-57-26b |
ततो दीनमना भीष्ममुवाच कुरुनन्दनः। नेत्राभ्यामश्रुपूर्णाभ्यां पादौ तस्य शनैः स्पृशन्।। | 12-57-27a 12-57-27b |
श्व इदानीं स्वसंदेहं प्रवक्ष्यामि पितामह। उपैति सविता ह्यस्तं रसमापीय पार्थिवम्।। | 12-57-28a 12-57-28b |
ततो द्विजातीनभिवाद्य केशवः। कृपश्च ते चैव युधिष्ठिरादयः। प्रदक्षिणीकृत्य महानदीसुतं ततो रथानारुरुहुर्मुदान्विताः।। | 12-57-29a 12-57-29b 12-57-29c 12-57-29d |
दृषद्वतीं चाप्यवगाह्य सुव्रताः। कृतोदकार्थाः कृतजप्यमङ्गलाः। उपास्य संध्यां विधिवत्परंतपा स्ततः पुरं ते विविशुर्गजाह्वयम्।। | 12-57-30a 12-57-30b 12-57-30c 12-57-30d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि सप्तपञ्चाशोऽध्यायः।। 57।। |
12-57-1 एतद्रक्षणं नवनीतं नवनीतवत्सर्वधर्मसारम्। न्याय्यं धर्मं प्रशंसतीति झ. पाठः।। 12-57-5 चारो गुप्तस्पशः। प्रणिधिः प्रकटस्पशः। दानं भक्तवेतनयोः युक्तेरादानम्। अयोगेनानुपायेन आदानं करग्रहणं नच।। 12-57-7 केतनानां गृहादीनाम्। द्विविधस्य शारीरदण्डोऽर्थदण्डश्चेति भेदात्।। 12-57-8 निचेयानां संग्राह्याणां धान्यादीनां निचयः संग्रहः।। 12-57-10 अविश्वासो यामिकादीनामपि।। 12-57-11 अविश्वासो भृत्यानामेव।। 12-57-12 उत्थानमुद्योगः। अनार्यं हीनकर्म कदर्यत्वादि तद्वर्जनम्।। 12-57-15 वाग्वीरान् पण्डितान्। उत्थानमेव महत्पाण्डित्यमित्यर्थः।। 12-57-18 एकाङ्गेन हस्त्यश्वरथपादातानामन्यतमेनापि संभूतः संपन्नः। समृद्धिनः समृद्धिमतः।। 12-57-21 अकृतात्मभिः क्रूरैः।। 12-57-22 मिश्रेण क्रौर्यमार्दवाभ्याम्।। 12-57-28 प्रक्ष्यामि त्वां पितामह इति झ. पाठः।।
शांतिपर्व-056 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-058 |