महाभारतम्-12-शांतिपर्व-329
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति व्यासकृतशुकानुशासनानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-329-1x |
कथं निर्वेदमापन्नः शुको वैयासकिः पुरा। एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं परं कौतूहलं हि मे।। | 12-329-1a 12-329-1b |
भीष्म उवाच। | 12-329-2x |
प्राकृतेनैव वृत्तेन चरन्तमकुतोभयम्। अध्याप्य कृत्स्नं स्वाध्यायमन्वशाद्वै पिता सुतम्।। | 12-329-2a 12-329-2b |
व्यास उवाच। | 12-329-3x |
धर्मं पुत्र निपेवस्व सुतीक्ष्णौ च हिमातपौ। क्षुत्पिपासे च वायुं च जय नित्यं जितेन्द्रियः।। | 12-329-3a 12-329-3b |
सत्यमार्जवमक्रोधमनसूयां दमं तपः। अहिंसां चानृशंस्यं च विधिवत्परिपालय।। | 12-329-4a 12-329-4b |
सत्ये तिष्ठ रतो धर्मे हित्वा सर्वमनार्जवम्। देवतातिथिशेषेण यात्रां प्राणस्य संलिह।। | 12-329-5a 12-329-5b |
फेनमात्रोपमे देहे जीवे शकुनिवत्स्थिते। अनित्ये प्रियसंवासे कथं स्वपिषि पुत्रक।। | 12-329-6a 12-329-6b |
अप्रमत्तेषु जाग्रत्सु नित्ययुक्तेषु शत्रुषु। अन्तरं लिप्यमानेषु बालस्त्वं नावबुध्यसे।। | 12-329-7a 12-329-7b |
अहःसु गण्यमानेषु क्षीयमाणे तथाऽऽयुषि। जीविते लिख्यमाने च किमुत्थाय न धावसि।। | 12-329-8a 12-329-8b |
ऐहलौकिकनीहन्ते मांसशोणितवर्धनम्। पारलौकिककार्येषु प्रसुप्ता भृशनास्तिकाः।। | 12-329-9a 12-329-9b |
धर्माय येऽभ्यसूयन्ति बुद्धिमोहान्विता नराः। अपथा गच्छतां तेषामनुयाताऽपि पीड्यते।। | 12-329-10a 12-329-10b |
ये तु तुष्टाः श्रुतिपरा महात्मानो महाबलाः। धर्म्यं पन्थानमारूढास्तानुपास्स्व च पृच्छ च।। | 12-329-11a 12-329-11b |
उपधार्य मतं तेषां बुधानां धर्मदर्शिनाम्। नियच्छ परया बुद्ध्या चित्तमुत्पथगामि वै।। | 12-329-12a 12-329-12b |
आद्यकालिकया बुद्ध्या दूरेश्च इति निर्भयाः। सर्वभक्ष्या न पश्यन्ति कर्मभूमिमचेतसः।। | 12-329-13a 12-329-13b |
धर्मं निःश्रेणिमास्थाय किंचित्किंचित्समारुह। कोशकारवदात्मानं वेष्टयन्नावबुध्यसे।। | 12-329-14a 12-329-14b |
नास्तिकं भिन्नमर्यादं कूलपातमिव स्थितम्। वामतः कुरु विस्रब्धो नरं वेणुमिवोद्धृतम्।। | 12-329-15a 12-329-15b |
कामक्रोधग्राहवतीं पञ्चेन्द्रियजलां नदीम्। नावं धृतिमयीं कृत्वा जन्मदुर्गाणि संतर।। | 12-329-16a 12-329-16b |
मृत्युनाऽभ्याहते लोके जरया परिपीडिते। अमोघासु पतन्तीषु धर्मयानेन संतर।। | 12-329-17a 12-329-17b |
तिष्ठन्तं च शयानं च मृत्युरन्वेषते यदा। निर्वृत्तिं लभते कस्मादकस्मान्मृत्युनाऽशितः।। | 12-329-18a 12-329-18b |
संचिन्वानकमेवैनं कामानामवितृप्तकम्। वृकीवोरणमासाद्य मृत्युरादायं गच्छति।। | 12-329-19a 12-329-19b |
क्रमशः संचितशिखो धर्मबुद्धिमयो महान्। अन्धकारे प्रवेष्टव्ये दीपो यत्नेन धार्यताम्।। | 12-329-20a 12-329-20b |
संपतन्देहजालानि कदाचिदिह मानुषे। ब्राह्मण्यं लभते जन्तुस्तत्पुत्र परिपालय।। | 12-329-21a 12-329-21b |
ब्राह्मणस्य तु देहोऽयं न कामार्थाय जायते। इह क्लेशाय तपसे प्रेत्य त्वनुपमं सुखम्।। | 12-329-22a 12-329-22b |
ब्राह्मण्यं बहुभिरवाप्यते तपोभि स्तल्लब्ध्वा न रतिपरेण हेलितव्यम्। स्वाध्याये तपसि दमे च नित्ययुक्तः मोक्षार्थी कुशलपरः सदा यतस्व।। | 12-329-23a 12-329-23b 12-329-23c 12-329-23d |
अव्यक्तप्रकृतिरयं कलाशरीरः सूक्ष्मात्मा क्षणत्रुटिका निमेषरोमा। यानेतत्समबलशुक्लकृष्णनेत्रो मासाङ्गो द्रवति वयोहयो नराणाम्।। | 12-329-24a 12-329-24b 12-329-24c 12-329-24d |
तं दृष्ट्वा प्रसृतमजस्रमुग्रवेगं गच्छन्तं सततमिहान्ववेक्षमाणम्। यक्षुस्ते यदि न परप्रणेतृनेयं धर्मे ते रमतु मनः परं निशाम्य।। | 12-329-25a 12-329-25b 12-329-25c 12-329-25d |
येऽमी तु प्रचलितधर्मकामवृत्ताः क्रोशन्तः सततमनिष्टसंप्रयोगात्। क्लिश्यन्तः परिगतवेदनाशरीरा बह्वीभिः सुभृशमधर्मवागुराभिः।। | 12-329-26a 12-329-26b 12-329-26c 12-329-26d |
राजा सदा धर्मपरः शुभाशुभस्य गोप्ता समीक्ष्य सुकृतिनां दधाति लोकान्। बहुविधमपि चरति प्रविशति सुखमनुपगतं निरवद्यम्।। | 12-329-27a 12-329-27b 12-329-27c 12-329-27d |
श्वानो भीषणकाया अयोमुखानि वयांसि बलगृध्रकुररपक्षिणां च संघातम्। नरकदने रुधिरपा गुरुवचन नुदमुपरतं विशन्त्यसन्तः।। | 12-329-28a 12-329-28b 12-329-28c 12-329-28d |
मर्यादा नियताः स्वयम्भुवा य इहेमाः प्रभिनत्ति दश गुणा मनोऽनुगत्वात्। निवसति भृशमसुखं पितृविषय विपिनमवगाह्य स पापः।। | 12-329-29a 12-329-29b 12-329-29c 12-329-29d |
यो लुब्ध सुभृशं प्रियानृतश्च मनुष्यः सततनिकृतिवञ्चनाभिरतिः स्यात्। उपनिधिभिरसुखकृत्स परमनिरयगो भृशमसुखमनुभवति दुष्कृतकर्मा।। | 12-329-30a 12-329-30b 12-329-30c 12-329-30d |
उष्णां वैतरणीं महानदीमव गाढोऽसिपत्रवनभिन्नगात्रः। परशुवनशयोनिपतितो वसति च महानिरये भृशार्तः।। | 12-329-31a 12-329-31b 12-329-31c 12-329-31d |
महापादनि कत्थसे न चाप्यवेक्षसे परम्। चिरस्य मृत्युकारिकामनागतां न बुध्यसे।। | 12-329-32a 12-329-32b |
प्रयस्यतां किमास्यते समुत्थितं महद्भयम्। अतिप्रमार्थि दारुणं सुखस्य संविधीयताम्।। | 12-329-33a 12-329-33b |
पुरा मृतः प्रणीयसे यमस्य राजशासनात्। त्वमन्तकाय दारुणैः प्रयत्नमार्जवे कुरु।। | 12-329-34a 12-329-34b |
पुरा समूलबान्धवं प्रभुर्हरत्यदुःखवित्। कियत्तवेह जीवितं यमे न चास्ति वारकः।। | 12-329-35a 12-329-35b |
पुरा विवाति मारुतो यमस्य यः पुरःसरः। पुरैक एव नीयसे कुरुष्व सांपरायिकम्।। | 12-329-36a 12-329-36b |
पुरा स एक एव ते प्रवाति मारुतोऽन्तकः। पुरा च विभ्रमन्ति ते दिशो महाभयागमे।। | 12-329-37a 12-329-37b |
श्रुतिश्च सन्निरुध्यते पुरा तवेह पुत्रक। समाकुलस्य गच्छतः समाधिमुत्तमं कुरु।। | 12-329-38a 12-329-38b |
शुभाशुभे पुरा कृते प्रमादकर्मविप्लुते। स्मरन्पुराऽनुतप्यसे निधत्स्व केवलं निधिम्।। | 12-329-39a 12-329-39b |
पुरा जरा कलेवरं विजर्झरीकरोति ते। बलाङ्गरूपहारिणी निधत्स्व केवलं निधिम्।। | 12-329-40a 12-329-40b |
पुरा शरीरमन्तको भिनत्ति रोगसायकैः। प्रसह्य जीवितक्षये तपो महत्समारभ।। | 12-329-41a 12-329-41b |
पुरा वृका भयंकरा मनुष्यदेहगोचराः। अभिद्रवन्ति सर्वतो यतस्व पुण्यशीलने।। | 12-329-42a 12-329-42b |
पुरान्धकारमेककोऽनुपश्यसि त्वरस्व वै। पुरा हिरण्मयान्नगान्निरीक्षसेऽद्रिमूर्धनि।। | 12-329-43a 12-329-43b |
पुरा कुसङ्गतानि ते सुहृन्मुखाश्च शत्रवः। विचालयन्ति दर्शनाद्धटस्व पुत्र यत्परम्।। | 12-329-44a 12-329-44b |
धनस्य यस्य राजतो भयं न चास्ति चोरतः। मृतं च यन्न मुञ्चति समार्जयस्व तद्धनम्।। | 12-329-45a 12-329-45b |
न तत्र संविभज्यते स्वकर्मभिः परस्परम्। यदेव यस्य यौतकं तदेव तत्र सोऽश्नृते।। | 12-329-46a 12-329-46b |
परत्र तेन जीव्यते तदेव पुत्र जीयताम्। धनं यदक्षरं ध्रुवं समार्जयस्व तत्स्वयम्।। | 12-329-47a 12-329-47b |
न यावदेव पच्यते महाजनस्य यावकम्। अपक्व एव यावके पुरा प्रलीयते त्वरम्।। | 12-329-48a 12-329-48b |
न मातृपुत्रबान्धवा न संस्तुतः प्रियो जनः। अनुव्रजन्ति संकटे व्रजन्तमेकपातिनम्।। | 12-329-49a 12-329-49b |
यदेव कर्म केवलं पुराकृतं शुभाशुभम्। तदेव पुत्र यौतकं भवत्यमुत्र गच्छतः।। | 12-329-50a 12-329-50b |
हिरण्यरत्नसंचयाः शुभाशुभेन संचिताः। न तस्य देहसंक्षये भवन्ति कार्यसाधकाः।। | 12-329-51a 12-329-51b |
न पुत्र शान्तिरस्ति ते कृताकृतस्य कर्मणः। न साक्षिकोऽऽत्मना समो नृणामिहास्ति कश्चन।। | 12-329-52a 12-329-52b |
मनुष्यदेहशून्यकं भवत्यमुत्र गच्छतः। प्रविश्य बुद्धिचक्षुषा प्रदृश्यते हि सर्वशः।। | 12-329-53a 12-329-53b |
इहाग्निसूर्यवायवः शरीरमाश्रितास्त्रयः। त एव तस्य साक्षिणो भवन्ति धर्मदर्शिनः।। | 12-329-54a 12-329-54b |
अहनिंशेषु सर्वतः स्पृशत्सु सर्वचारिषु। प्रकाशगूढवृत्तिषु स्वधर्ममेव पालय।। | 12-329-55a 12-329-55b |
अनेकपारिपान्थके विरूपरौद्रमक्षिके। स्वमेव कर्म रक्ष्यतां स्वकर्म तत्र गच्छति।। | 12-329-56a 12-329-56b |
न तत्र संविभज्यते स्वकर्मभिः परस्परम्। तथा कृतं स्वकर्मजं तदेव भुज्यते फलम्।। | 12-329-57a 12-329-57b |
यथाऽप्सरोगणाः फलं सुखं महर्षिभिः सह। तथाऽऽप्नुवन्ति कर्मजं विमानकामगामिनः।। | 12-329-58a 12-329-58b |
यथेह यत्कृतं शुभं विपाप्मभिः कृतात्मभिः। तदाप्नुवन्ति मानवास्तथा विशुद्धयोनयः।। | 12-329-59a 12-329-59b |
प्रजापतेः सलोकतां बृहस्पतेः शतक्रतोः। व्रजन्ति ते परां गतिं गृहस्थधर्मसेतुभिः।। | 12-329-60a 12-329-60b |
सहस्रशोऽप्यनेकशः प्रवक्तुमुत्सहामहे। अबुद्धिमोहनं पुनः प्रभुस्तु तेन पावकः।। | 12-329-61a 12-329-61b |
गता त्रिरष्टवर्षता ध्रुवोऽसि पञ्चविंशकः। कुरष्व धर्मसंचयं वयो हि तेऽतिवर्तते।। | 12-329-62a 12-329-62b |
पुरा करोति सोऽन्तकः प्रमादगोमुखां चमूम्। यथागृहीतमुत्थितस्त्वरस्व धर्मपालने।। | 12-329-63a 12-329-63b |
यथा त्वमेव पृष्ठतस्त्वमग्रतो गमिष्यसि। तथा गतिं गमिष्यतः किमात्मना परेण वा।। | 12-329-64a 12-329-64b |
यदेकपातिनां सतां भवत्यमुत्र गच्छताम्। भयेषु सांपरायिकं निधत्स्व केवलं निधिम्।। | 12-329-65a 12-329-65b |
सतूलमूलबान्धवं प्रभुर्हरत्यसङ्गवान्। न सन्ति यस्य वारकाः कुरष्व धर्मसंनिधिम्।। | 12-329-66a 12-329-66b |
इदं निदर्शनं मया तवेह पुत्र संमतम्। स्वदर्शनानुपानतः प्रवर्णितं कुरुष्व तत्।। | 12-329-67a 12-329-67b |
ददाति यः स्वकर्मणा धनानि यस्यकस्यचित्। अबुद्धिमोहजैर्गुणैः स एक एव युज्यते।। | 12-329-68a 12-329-68b |
शुभं समस्तमश्नुते प्रकुर्वतः शुभाः क्रियाः। तदेतदर्थदर्शनं कृतज्ञमर्थसंहितम्।। | 12-329-69a 12-329-69b |
निबन्धनी रज्जुरेषा या ग्रामे वसतो रतिः। छित्त्वैतां सुकृतो यान्ति नैनां छिदन्ति दुष्कृतः।। | 12-329-70a 12-329-70b |
किं ते धनेन किं बन्धुभिस्ते किं ते पुत्रैः पुत्रक यो मरिष्यसि। आत्मानमन्विच्छ गुहां प्रविष्टं पितामहास्ते क्व गताश्च सर्वे।। | 12-329-71a 12-329-71b 12-329-71c 12-329-71d |
श्वः कार्यमद्ये कुर्वीत पूर्वाह्णे चापराह्णिकम्। न हि प्रतीक्षते मृत्युः कृतं वाऽस्य न वाऽकृतम्।। | 12-329-72a 12-329-72b |
अनुगम्य विनाशान्ते निवर्तन्ते ह बान्धवाः। अग्नौ प्रक्षिप्य पुरुषं ज्ञातयः सुहृदस्तथा।। | 12-329-73a 12-329-73b |
नास्तिकान्निरनुक्रोशान्नरान्पापमते स्थितान्। वामतः कुरु विस्रब्धं परं प्रेप्सुरतन्द्रितः।। | 12-329-74a 12-329-74b |
एवमभ्याहते लोके कालेनोपनिपीडिते। सुमहद्धैर्यमालम्ब्य धर्मं सर्वात्मना कुरु।। | 12-329-75a 12-329-75b |
अथेमं दर्शनोपायं सम्यग्यो वेत्ति मानवः। सम्यक् स्वधर्मं कृत्वेह परत्र सुखमश्नुते।। | 12-329-76a 12-329-76b |
न देहभेदे मरणं विजानतां न च प्रणाशः स्वनुपालिते पथि। धर्मं हि यो बर्धयते स पण्डितो य एव धर्माच्च्यवते स दह्यते।। | 12-329-77a 12-329-77b 12-329-77c 12-329-77d |
प्रयुक्तयोः कर्मपथि स्वकर्मणोः फलं प्रयोक्ता लभते यथाविधि। निहीनकर्मा निरयं प्रपद्यते त्रिविष्टपं गच्छति धर्मपारगः।। | 12-329-78a 12-329-78b 12-329-78c 12-329-78d |
सोपानभूतं स्वर्गस्य मानुष्यं प्राप्य दुर्लभम्। तथाऽऽत्मानं समादध्याद्धश्यते न पुनर्यथा।। | 12-329-79a 12-329-79b |
यस्य नोत्क्रामति मतिः स्वर्गमार्गानुसारिणी। तमाहुः पुण्यकर्माणमशोच्यं मित्रबान्धवैः।। | 12-329-80a 12-329-80b |
यस्य नोपहता बुद्धिर्निश्चये ह्यवलम्बते। स्वर्गे कृतावकाशस्य नास्ति तस्य महद्भयम्।। | 12-329-81a 12-329-81b |
तपोवनेषु ये जातास्तत्रैव निधनं गताः। तेषामल्पतरो धर्मः कामभोगानजानताम्।। | 12-329-82a 12-329-82b |
यस्तु भोगान्परित्यज्य शरीरेण तपश्चरेत्। न तेन किंचिन्न प्राप्तं तन्मे बहुमतं फलम्।। | 12-329-83a 12-329-83b |
मातापितृसहस्राणि पुत्रदारशतानि च। अनागतान्यतीतानि कस्य ते कस्य वा वयम्।। | 12-329-84a 12-329-84b |
अहमेको न मे कश्चिन्नाहमन्यस्य कस्यचित्। न तं पश्यामि यस्याहं तन्न पश्यामि यो मम।। | 12-329-85a 12-329-85b |
न तेषां भवता कार्यं न कार्यं तव तैरपि। स्वकृतैस्तानि जातानि भवांश्चैव गमिष्यति।। | 12-329-86a 12-329-86b |
इह लोके हि धनिना परोऽपि स्वजनायते। स्वजनस्तु दरिद्राणां जीवतामपि नश्यति।। | 12-329-87a 12-329-87b |
संचिनोत्यशुभं कर्म कलत्रापेक्षया नरः। ततः क्लेशमवाप्नोति परत्रेह तथैव च।। | 12-329-88a 12-329-88b |
पश्यति च्छिन्नभूतं हि जीवलोकं स्वकर्मणा। तत्कुरुष्व तथा पुत्र कृत्स्नं यत्समुदाहृतम्।। | 12-329-89a 12-329-89b |
तदेतत्संप्रदृश्यैव कर्म भूमिं प्रपश्यतः। शुभान्याचरितव्यानि परलोकमभीप्सता।। | 12-329-90a 12-329-90b |
मासर्तुसंज्ञापरिवर्तकेन सूर्याग्निना रात्रिदिवेन्धनेन। स्वकर्मनिष्ठाफलसाक्षिकेण भूतानि कालः पचति प्रसह्य।। | 12-329-91a 12-329-91b 12-329-91c 12-329-91d |
धनेन किं यन्न ददाति नाश्नुते बलेन किं येन रिपुं न बाधते। श्रुतेन किं येन न धर्ममाचरे त्किमात्मना यो न जितेन्द्रियो वशी।। | 12-329-92a 12-329-92b 12-329-92c 12-329-92d |
भीष्म उवाच। | 12-329-93x |
इदं द्वैपायनवचो हितमुक्तं निशम्य तु। शुको गतः परित्यज्य पितरं मोक्षदैशिकम्।। | 12-329-93a 12-329-93b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि एकोनत्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 329।। |
12-329-2 स्वाध्यायमन्वशिक्षयत स्वयमिति ट. थ. ध. पाठः।। 12-329-5 हित्वा सङ्गमनार्जवमिति प्राणस्य लेलिहेति च. ध. पाठः। संलिह स्पृश। स्वाद्वस्वादुविवेकं मा कार्षीरित्यर्थः।। 12-329-6 आमपात्रोपमे इति ध. पाठः। स्वपिषि पुरुषार्थसाधने न प्रवर्तसे।। 12-329-7 शत्रुषु कामादिषु। अन्तरं छिद्रम्।। 12-329-8 न धावसि देवं गुरुं वा शरणं न यासि। जीविते लिह्यमाने चेति ध. पाठः। जीविते लुल्यमानेचेति ट. पाठः।। 12-329-10 अपथा अपथेन। बुद्धिमोहपरायणा इति ट. थ. पाठः।। 12-329-13 आद्यकालिकया वर्तमानमात्रदर्शिन्या।। 12-329-15 कूलपातं महानदीपूरम्। रणरेणुमिवोत्थितमिति ध. पाठः। रथरेणुमिवेति ध.पाठः। रथरेणुं यथा वामतः कुर्वन्ति वामभागे कुर्वन्ति वर्जयन्तीत्यर्थ इति रत्नगर्भः। खररेणुमिति ट. थ. पाठः।। 12-329-17 अमोघासु आयुर्हरणेन सफलासु रात्रिषु। धर्मपोतेन संचरेति ध. पाठः। जरया परिवारित इति ट. थ. पाठः।। 12-329-18 मृत्युरन्वेति ते यदेति ट. थ. ध. पाठः। निवृत्तिं लम्भसे यस्मात्तस्मात्त्वं मृत्युनाशित इति ध. पाठः।। 12-329-19 संचिन्वानकं धनादिसंचयपरम्।। 12-329-20 अन्धकारे संसारे। दीपो ज्ञानम्।। 12-329-22 इह क्लेशाय महते प्रेत्यानन्तसुखाय चेति ध. पाठः।। 12-329-24 शुक्लकृष्णौ पक्षौ।। 12-329-25 चक्षुर्ज्ञानं परप्रणेतृनेयम्। अन्धवत् यदि न भवसीत्यर्थः। परं परलोकं आत्मानं वा।। 12-329-26 परिगतं प्राप्तं वेदनाशरीरं यमलोके यातनाशरीरं यैस्ते तथाभूता भवन्तीति शेषः।। 12-329-28 श्नान इति नराणां कदनं यत्र तस्मिन्नरके। रुधिरपाः कीटाः। गुरूणां मातृपि तृप्रभृतीनां वचनं नुदति दूरीकरोति तं उपतरं मृतम्। श्वानोभीषिकयेति ध. पाठः।। 12-329-29 पितृविषये यमलोके विपिनमसिपत्रवनं तदेवावगाह्य तत्रैव निवसति।। 12-329-30 निकृतिर्नीचकर्म वञ्चनाचौर्यादि। उपनिधिभिश्छलेन। अपकीर्तिभिरशुभकृतः कृत्स्नं परमनिरययातनाभृशमसुखमनुभवति दुष्कृतकर्मेति ट. पाठः।। 12-329-32 महापदानि ब्रह्मादीनां स्थानानि दृष्ट्वा कत्थसे धन्योऽहमिति श्लाघसे परंतु ब्रह्म नावेक्षसे। मृत्युकारिकां जराम्।। 12-329-33 प्रयास्यतां मोक्षमार्गेण प्रस्थातव्यम्। सुखस्य प्रमाथि संविधीयतां प्रयत्यताम्।। 12-329-34 अन्तकाय अयतिसुखाय। दारुणैः कृच्छ्रादितपोभिः।। 12-329-42 वृकाः कामादयः।। 12-329-43 हिरण्मयवृक्षदर्शनं मरणचिह्नम्।। 12-329-44 ते त्वाम्।। 12-329-45 तद्धनं विद्याम्।। 12-329-46 यौतकं विवाहाप्तंधनं दायादाग्राह्यम्।। 12-329-48 यावके घृतखण्डमिश्रे यवपिवष्टविकारे त्वरं त्वरायुक्तं यथा स्यात्तथा प्रलीयसे म्रियसे। भोगान्भुक्त्वा मोक्षे यत्नं करिष्यामीति न मन्तव्यमिति भावः।। 12-329-55 यथेन्द्रियेषु सर्वतः श्रुतेष्विति ध. पाठः।। 12-329-58 तथाऽऽप्नुवन्ति कर्मतो वियुद्धिमोहनं पुनरिति ट. ध. पाठः।। 12-329-66 कुरुष्व धर्मसंचयमिति ध. पाठः।। 12-329-72 नहि तद्वेद कस्याद्यमृत्युसेनाभिवीक्षते इति ध. पाठः। को हि तद्वेद यस्याद्यमृत्युसेनाभिवीक्षत इति ट. थ. पाठः।। 12-329-79 सृज्यते न पुनर्यथेति ध. पाठः। म्रियते न पुनर्यथेति ट. पाठः।। 12-329-83 तदेव बहुलं मतमिति ट. ध. पाठः।। 12-329-93 हितयुक्तमिति ध. पाठः। मोक्षदैशिकं मोक्षोपदेष्टारम्।।
शांतिपर्व-328 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-330 |