महाभारतम्-12-शांतिपर्व-070
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति राजनप्रानुवर्णनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-70-1x |
केन वृत्तेन वृत्तज्ञः वर्तमानो महीपतिः। सुखेनार्थान् सुखोदर्कानिह च प्रेत्य चाश्नुते।। | 12-70-1a 12-70-1b |
भीष्म उवाच। | 12-70-2x |
इत्थं गुणानां षट्त्रिंशी षट्त्रिंशद्गुणसंयुता। यान्गुणांस्तु गुणोपेतः कुर्वन्गुणमवाप्नुयात्।। | 12-70-2a 12-70-2b |
चरेद्धर्मानकटुको मुञ्चेत्स्नेहं न चास्तिकः। अनृशंसश्चरेदर्थं चरेत्काममनुद्धतः।। | 12-70-3a 12-70-3b |
प्रियं ब्रूयादकृपणः शूरः स्यादविकत्थनः। दाता नापात्रवर्षी स्यात्प्रगल्भः स्यादनिष्ठुरः।। | 12-70-4a 12-70-4b |
संदधीत न चानार्यैर्विगृह्णीयाच्च शत्रुभिः। नानाप्तैश्चारयेच्चारं कुर्यात्कार्यमपीडया।। | 12-70-5a 12-70-5b |
अर्थं ब्रूयान्न चासत्सु गुणान्ब्रूयान्न चात्मनः। आदद्यान्न च साधुभ्यो नासत्पुरुषमाश्रयेत्।। | 12-70-6a 12-70-6b |
नापरीक्ष्य नयेद्दण्डं न च मन्त्रं प्रकाशयेत्। विसृजेन्न च लुब्धेभ्यो विश्वसेन्नापकारिषु।। | 12-70-7a 12-70-7b |
अनीर्षुर्गुप्तदारः स्याच्चोक्षः स्यादघृणी नृपः। स्त्रियः सेवेत नात्यर्थं मृष्टं भुञ्जीत नाहितम्।। | 12-70-8a 12-70-8b |
अस्तब्धः पूजयन्मान्यान्गुरून्सेवेदमायया। अर्चेद्देवानदम्भेन श्रियमिच्छेदकृत्सिताम्।। | 12-70-9a 12-70-9b |
सेवेत प्रणयं हित्वा दक्षः स्यान्न त्वकालवित्। सान्त्वयेन्न च मोक्षाय अनुगृह्णन्न चाक्षिपेत्।। | 12-70-10a 12-70-10b |
प्रहरेन्न त्वविज्ञाय हत्वा शत्रून्न शोचयेत्। क्रोधं कुर्यान्न चाकस्मान्मृदुः स्यान्नापकारिषु।। | 12-70-11a 12-70-11b |
एवं चरस्व राज्यस्थो यदि श्रेय इहेच्छसि। अतोऽन्यथा नरपतिर्भयमृच्छत्यनुत्तमम्।। | 12-70-12a 12-70-12b |
इति सर्वान्गुणानेतान्यथोक्तान्योऽनुवर्तते। अनुभूयेह भद्राणि प्रेत्य स्वर्गे महीयते।। | 12-70-13a 12-70-13b |
वैशंपायन उवाच। | 12-70-14x |
इदं वचः शान्तनवस्य शुश्रुवा न्युधिष्ठिरः पार्थिवमुख्यसंवृतः। तदा ववन्दे च पितामहं नृपो यथोक्तमेतच्च चकार बुद्धिमान्।। | 12-70-14a 12-70-14b 12-70-14c 12-70-14d |
12-70-2 षट्त्रिंशी षट्त्रिंशत्संख्याका।। 12-70-5 विगृह्णीयान्न बन्धुभिः। नाभक्तं चारयेच्चारं इति झ. पाठः। तत्र अभक्तं अल्पान्नं इत्यर्थः।। 12-70-8 चोक्षः शुद्धः।। 12-70-11 न शोचयेत् शत्रुबन्धूनां शोकं अपनुदेत्।। 12-70-12 अनुत्तमं महत्तरम्।।
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