महाभारतम्-12-शांतिपर्व-170
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गौतमेन स्वस्यानर्हत्वं जानतापि विरूपाक्षेण वकराजगौरवात्प्रदत्तं धनभारमुदूह्य सायं पुनर्बकालयं प्रत्यागमनम्।। 1।। तत्र परेद्युः स्वभवनं जिगमिपुणा गोतमेन पार्थयार्थं रात्रौ वकवधनिर्धारणम्।। 2।।
भीष्म उवाच। | 12-170-1x |
ततः स विदितो राज्ञः प्रविश्य गृहमुत्तमम्। पूजितो राक्षसेन्द्रेण निपसादासनोत्तमे।। | 12-170-1a 12-170-1b |
पृष्टश्च गोत्रचरणं स्वाध्यायं ब्रह्मचारिकम्। पृष्टो राज्ञा स नाज्ञासीद्गोत्रमात्रमथाब्रवीत्।। | 12-170-2a 12-170-2b |
ब्रह्मवर्चमहीनस्य स्वाध्यायाद्विरतस्य च। गोत्रमात्रविदो राजा निवामं समपृच्छत।। | 12-170-3a 12-170-3b |
राक्षम उवाच। | 12-170-4x |
क्व ते निवासः कल्याण किंगोत्रा ब्राह्मणी च ते। तत्त्वं ब्रूहि न भीः कार्या विश्रमस्व यथासुखम्।। | 12-170-4a 12-170-4b |
गौतम उवाच। | 12-170-5x |
मध्यदेशप्रसूतोऽहं वासो मे शवरालये। शूद्री पुनर्भूर्भार्या मे सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।। | 12-170-5a 12-170-5b |
भीष्म उवाच। | 12-170-6x |
ततो राजा विममृशे कथं कार्यमिदं भवेत्। कथं वा सुकृतं मे स्यादिति वुद्ध्याऽन्वचिन्तयन्।। | 12-170-6a 12-170-6b |
अयं वै जन्मना विप्रः सुहृत्तम्य महात्मनः। संप्रेपितश्च तेनायं काश्यपेन महात्मना।। | 12-170-7a 12-170-7b |
तस्य प्रियं करिष्यामि स हि मामाश्रितः सदा। भ्राता मे बान्धवश्चासौ सखा चैव प्रियो मम।। | 12-170-8a 12-170-8b |
कार्तिक्यामद्य भोक्तारः सहस्रं मे द्विजोत्तमाः। तत्रायमपि भोक्ता तु देयमस्मै च मे धनम्।। | 12-170-9a 12-170-9b |
स चाद्य दिवसः पुण्यो ह्यतिथिश्चायमागतः। संकल्पितं चैव धनं किं विचार्यमतः परम्।। | 12-170-10a 12-170-10b |
ततः सहस्रं विप्राणां विदुषां समलंकृतम्। स्नातानामनुलिप्तानामहतक्षौमवाससाम्।। | 12-170-11a 12-170-11b |
तानागतान्द्विजश्रेष्ठान्विरूपाक्षो विशांपते। यथार्हं प्रतिजग्राह विधिदृष्टेन कर्मणा।। | 12-170-12a 12-170-12b |
बृस्यस्तेषां तु संन्यस्ता राक्षसेन्द्रस्य शासनात्। भूमौ वरकुशाः स्तीर्णाः प्रेष्यैर्भरतसत्तम।। | 12-170-13a 12-170-13b |
तासु ते पूजिता राज्ञा निपण्णा द्विजसत्तमाः। निलदर्भोदकेनाथ अर्चिता विधिवद्द्विजाः।। | 12-170-14a 12-170-14b |
विश्वेदेवाः सपितरः साग्नयश्चोपकल्पिताः। विलिप्ताः पुष्पवन्तश्च सुप्रचाराः सुपूजिताः। व्यराजन्त महाराज नक्षत्रपतयो यथा।। | 12-170-15a 12-170-15b 12-170-15c |
ततो जाम्बूनदीः पात्रीर्वज्राङ्का विमलाः शुभाः। वरान्नपूर्णा विप्रेभ्यः प्रादान्मधुघृतप्लुताः।। | 12-170-16a 12-170-16b |
तस्य नित्यं मदापाढ्यां माध्यां च बहवो द्विजाः। ईप्सितं भोजनवरं लभन्ते सत्कृतं तथा।। | 12-170-17a 12-170-17b |
विशेषतस्तु कार्तिक्यां द्विजेभ्यः संप्रयच्छति। शरद्व्यपाये रत्नानि पौर्णमास्यामिति श्रुतिः।। | 12-170-18a 12-170-18b |
सुवर्णं रजतं चैव मणीनथ च मौक्तिकान्। वज्रान्महाधनांश्चैव वैदूर्याजिनराङ्कवान्।। | 12-170-19a 12-170-19b |
रत्नवन्ति च पात्राणि दक्षिणार्थं स भारत। दत्त्वा प्राह द्विजश्रेष्ठान्विरूपाक्षो महायशाः।। | 12-170-20a 12-170-20b |
गृह्णीत रत्नान्येतानि यथोत्साहं यथेष्टतः। येषुयेषु च भाण्डेषु भुक्तवन्तो द्विजोत्तमाः। तान्येवादाय गच्छध्वं स्ववेश्मानीति भारत।। | 12-170-21a 12-170-21b 12-170-21c |
इत्युक्तवचने तस्मिन्राक्षसेन्द्रे महात्मनि। यथेष्टं तानि रत्नानि जगृहुर्ब्राह्मणवर्षभाः।। | 12-170-22a 12-170-22b |
ततो महार्हैस्तैस्तेन रत्नैरभ्यर्चिताः शुभैः। ब्राह्मणा मृष्टवसनाः सुप्रीताः समुदोऽभवन्।। | 12-170-23a 12-170-23b |
ततस्तान्राक्षसेन्द्रस्तु द्विजानाह पुनर्वचः। नाना देशागतान्राजा ब्राह्मणाननुमन्य वै।। | 12-170-24a 12-170-24b |
अद्यैकं दिवसं विप्रा न वोऽस्तीह भयं क्वचित्। राक्षसेभ्यः प्रमोदध्वमिष्टतो यात माचिरम्।। | 12-170-25a 12-170-25b |
ततः प्रदुद्रुवुः सर्वे विप्रसङ्घाः समन्ततः। गौतमोऽपि सुवर्णस्य भारमादाय सत्वरः।। | 12-170-26a 12-170-26b |
कृच्छ्रात्समुद्वहन्भारं न्यग्रोधं समुपागमत्। न्यषीदच्च परिश्रान्तः क्लान्तश्च क्षुधितश्च सः।। | 12-170-27a 12-170-27b |
ततस्तमभ्यगाद्राजन्राजधर्मा खगोत्तमः। स्वागतेनाभ्यनन्दच्च गौतमं मित्रवत्सलः।। | 12-170-28a 12-170-28b |
तस्य पक्षाग्रविक्षेपैः क्लमं व्यपनयद्बकः। पूजां चाप्यकरोद्धीमान्भोजनं च यथाविधि।। | 12-170-29a 12-170-29b |
ततस्तौ संविदं कृत्वा खगेन्द्रद्विजसत्तमौ।। | 12-170-30a |
गौतमश्चिन्तयामास रात्रौ तस्य समीपतः। हाटकस्याभिरूपस्य भारोऽयं सुमहान्मया।। | 12-170-31a 12-170-31b |
गृहीतो लोभमोहाभ्यां दूरं च गमनं मम। न चास्ति पथि भोक्तव्यं प्राणसंधारणं मम। किं कृत्वा सुकृतं हि स्यादिति चिन्तापरोऽभवत्।। | 12-170-32a 12-170-32b 12-170-32c |
ततः स पथि भोक्तव्यं प्रेक्षमाणो न किंचन। कृतघ्नः पुरुषव्याघ्र मनसेदमचिन्तयत्।। | 12-170-33a 12-170-33b |
अयं बकपतिः पार्श्वे मांसराशिचितो महान्। इमं हत्वा गृहीत्वाऽस्य मांसं यास्य इति प्रभो।। | 12-170-34a 12-170-34b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि सप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 170।। |
[सम्पाद्यताम्]
12-170-2 ब्रह्मधारणमिति ध. पाठः।। 12-170-15 विलिप्ताश्चन्दनेन।। 12-170-25 इष्टतः इष्ट देशम्।। 12-170-30 ततस्तौ संविदमित्यर्धं झ. पाठे नास्ति। तत्र गौतमश्चिन्तयामासेत्यस्य स्थाने स भुक्तवान्सुविश्रान्तो गौतमोऽचिन्तयत्तदा इत्यर्धं वर्तते।।
शांतिपर्व-169 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-171 |