महाभारतम्-12-शांतिपर्व-255
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति ज्ञानादिप्रशंसापरव्यासवाक्यानुवादः।। 1।।
व्यास उवाच। | 12-255-1x |
सृजते त्रिगुणान्सत्वं क्षेत्रज्ञस्त्वधितिष्ठति। गुणान्विक्रियते सर्वानुदासीनवदीश्वरः।। | 12-255-1a 12-255-1b |
स्वभावयुक्तं तत्सत्वं यदिमान्सृजते गुणान्। ऊर्णनाभिर्यथा सूत्रं सृजते तन्तुवद्गुणान्।। | 12-255-2a 12-255-2b |
प्रध्वस्ता न निवर्तन्ते प्रवृत्तिर्नोपलभ्यते। एवमेके व्यवस्यन्ति निवृत्तिरिति चापरे।। | 12-255-3a 12-255-3b |
उभयं संप्रधार्यैतदध्यवस्येद्यथामति। अनेनैव विधानेन भवेद्गर्भशयो महान्।। | 12-255-4a 12-255-4b |
अनादिनिधनं नित्यं तं बुद्ध्वा विचरेन्नरः। अक्रुध्यन्नप्रहृष्यंश्च नित्यं विगतमत्सरः।। | 12-255-5a 12-255-5b |
इत्येवं हृदयग्रन्थिं बुद्धिचिन्तामयं दृढम्। अतीत्य सुखमासीत अशोचंश्छिन्नसंशयः।। | 12-255-6a 12-255-6b |
ताम्येयुः प्रच्युताः पृथ्व्यां यथा पूर्णां नदीं नराः। अवगाढा ह्यविद्वांसो विद्धि लोकमिमं तथा।। | 12-255-7a 12-255-7b |
न तु ताम्यति वै विद्वान्स्थले चरति तत्त्ववित्। एवं यो विन्दतेऽऽत्मानं केवलं ज्ञानमात्मनः।। | 12-255-8a 12-255-8b |
एवं बुद्ध्वा नरः सर्वं भूतानामागतिं गतिम्। समवेक्ष्य च वैषम्यं लभते शममुत्तमम्।। | 12-255-9a 12-255-9b |
एतद्वै जन्मसामर्थ्यं ब्राह्मणस्य विशेषतः। आत्मज्ञानं शमश्चैव पर्याप्तं तत्परायणम्।। | 12-255-10a 12-255-10b |
एतद्बुद्ध्वा भवेद्बुद्धः किमन्यद्बुद्धलक्षणम्। विज्ञायैतद्विमुच्यन्ते कृतकृत्या मनीषिणः।। | 12-255-11a 12-255-11b |
न भवति विदुषां महद्भयं यदविदुषां सुमहद्भयं परत्र। न हि गतिरधिकाऽस्ति कस्यचि द्भवति हि या विदुषः सनातनी।। | 12-255-12a 12-255-12b 12-255-12c 12-255-12d |
लोकमातुरमसूयते जन स्तत्तदेव च निरीक्ष्य शोचते। तत्र पश्य कुशलानशोचतो ये विदुस्तदुभयं कृताकृतम्।। | 12-255-13a 12-255-13b 12-255-13c 12-255-13d |
यत्करोत्यनभिसन्धिपूर्वकं तच्च निर्णुदति --- न प्रियं तदुभयं न चाप्रिय तस्य तज्जनयतीह कुर्वतः।। | 12-255-14a 12-255-14b 12-255-14c 12-255-14d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पञ्चपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 255।। |
12-255-2 ऊर्णनाभिर्यथा सत्वमिति ट. ड. पाठः।। 12-255-7 नात्येयुः प्रच्युता इति ध. पाठः।।
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