महाभारतम्-12-शांतिपर्व-092
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति वामदेवसुमनस्संवादानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-92-1x |
कथं धर्मे स्थातुमिच्छन्राजा वर्तेत भारत। पृच्छामि त्वां कुरुश्रेष्ठ तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-92-1a 12-92-1b |
भीष्म उवाच। | 12-92-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। गीतं दृष्टार्थतत्त्वेन वामदेवेन धीमता।। | 12-92-2a 12-92-2b |
राजा वसुमना नाम कौसल्यो बलवाञ्शुचिः। महर्षि परिपप्रच्छ वामदेवं तपस्विनम्।। | 12-92-3a 12-92-3b |
धर्मार्थसहितैर्वाक्यैर्भगवन्ननुशाधि माम्। येन वृत्तेन वै तिष्ठन्न च्यवेयं स्वधर्मतः।। | 12-92-4a 12-92-4b |
तमब्रवीद्धामदेवस्तेजस्वी तपतां वरः। हेमवर्णं सुखासीनं ययातिमिव नाहुषम्।। | 12-92-5a 12-92-5b |
वामदेव उवाच। | 12-92-6x |
धर्ममेवानुवर्तस्व न धर्माद्विद्यते परम्। धर्मे स्थिता हि राजानो जयन्ति पृथिवीमिनाम्।। | 12-92-6a 12-92-6b |
अर्थसिद्धेः परं धर्मं मन्यते यो महीपतिः। वृद्ध्यां च कुरुते बृद्धिं स धर्मेण विराजते।। | 12-92-7a 12-92-7b |
अधर्मदर्शी यो राजा बलादेव प्रवर्तते। क्षिप्रमेवापयातोऽस्मादुभौ प्रथममध्यमौ।। | 12-92-8a 12-92-8b |
असत्पापिष्ठसचिवो वध्यो लोकस्य धर्महा। सहैव परिवारेण क्षिप्रमेवावसीदति।। | 12-92-9a 12-92-9b |
अर्थानामननुष्ठाता कामचारी विकत्थनः। अपि सर्वां महीं लब्ध्वा क्षिप्रमेव विनश्यति।। | 12-92-10a 12-92-10b |
अथाददानः कल्याणमनसूयुर्जितेन्द्रियः। वर्धते मतिमान्राजा स्रोतोभिरिव सागरः।। | 12-92-11a 12-92-11b |
न पूर्णोऽस्मीति मन्येत धर्मतः कामतोऽर्थतः। बुद्धितो मन्त्रतश्चापि सततं वसुधाधिप।। | 12-92-12a 12-92-12b |
एतेष्वेव हि सर्वेषु लोकयात्रा प्रतिष्ठिता। एतानि शृण्वँल्लभते यशः कीर्ति श्रियं प्रजाः।। | 12-92-13a 12-92-13b |
एवं यो धर्मसंरम्भी धर्मार्थपरिचिन्तकः। अर्थान्परीक्ष्यारभते स ध्रुवं महदश्नुते।। | 12-92-14a 12-92-14b |
अदाता ह्यनभिस्नेहो दण्डेनावर्तयन्प्रजाः। साहसप्रकृती राजा क्षिप्रमेव विनश्यति।। | 12-92-15a 12-92-15b |
अथ पापं कृतं बुद्ध्या न च पश्यत्यबुद्धिमान्। अकीर्त्याऽभिसमायुक्तो भूयो नरकमश्नुते।। | 12-92-16a 12-92-16b |
ततो न याचितुर्दातुः शुक्लस्य रसवेदिनः। व्यसनं स्वमिवोत्पन्नं विजिघांसन्ति मानवाः।। | 12-92-17a 12-92-17b |
यस्य नास्ति गुरुर्धर्मे न चान्यानपि पृच्छति। सुखतन्त्रोऽर्थलाभेषु न चिरं सुखमश्नुते।। | 12-92-18a 12-92-18b |
गुरुप्रधानो धर्मेषु स्वयमर्थानवेक्षिता। धर्मप्रधानो लाभेषु स चिरं सुखमश्नुते।। | 12-92-19a 12-92-19b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वमि राजधर्मपर्वणि द्विनवतितमोऽध्यायः।। 92।। |
[सम्पाद्यताम्]
12-92-8 उभौ धर्मार्थौ।। 12-92-9 असन्तो दुष्टाः।। 12-92-13 एतेषु धर्मादिषु।।
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