महाभारतम्-12-शांतिपर्व-114
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति सभायां दुष्टदुर्भाषणे तत्तितिक्षाया गुणत्वप्रतिपादनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-114-1x |
विद्वान्मूढप्रगल्भेन मृदुस्तीक्ष्णेन भारत। आक्रुश्यमानः सदसि कथं कुर्यादरिंदम्।। | 12-114-1a 12-114-1b |
भीष्म उवाच। | 12-114-2x |
श्रूयतां पृथिवीपाल यथैऽषोर्थोऽवगम्यते। सदा सचेताः सहते नरस्येहाल्पचेतसः।। | 12-114-2a 12-114-2b |
आक्रुश्य दूष्यमाणश्च सुकृतं तस्य विन्दति। दुष्कृतं चात्मनो मर्षी तस्मिन्नेव प्रमार्जति।। | 12-114-3a 12-114-3b |
गर्हितं तमुपेक्षेत वाश्यमानमिवातुरम्। लोके विद्वेषमापन्नो निष्फलं प्रतिपद्यते।। | 12-114-4a 12-114-4b |
इति संश्लाघते नित्यं तेन पापेन कर्मणा। इदमुक्तो मया कश्चित्सर्वतो जनसंसदि। स तत्र व्रीडितः शुष्को मृतकल्पोऽवतिष्ठते।। | 12-114-5a 12-114-5b 12-114-5c |
श्लाघन्नश्लाघनीयेन कर्मणा निरपत्रपः। उपेक्षितव्यो दान्तेन तादृशः पुरुषाधमः।। | 12-114-6a 12-114-6b |
यद्यद्ब्रूयादल्पमतिस्तत्तदस्य सहेत्तदा।। | 12-114-7a |
प्रकृत्या हि प्रशंसन्वा निन्दन्वा किं करिष्यति। वने काक इवाबुद्धिर्वाश्यमानो निरर्थकम्।। | 12-114-8a 12-114-8b |
यदि वाग्भिः प्रयोगः स्यात्प्रयोज्यः पापकर्मणा। वागेवार्थो भवेत्तस्य न ह्येवार्थो जिघांसतः।। | 12-114-9a 12-114-9b |
निषेकं वै परस्यासावाचष्टे वृत्तचेष्टया। मयूर इव कौपीनं नृत्यं संदर्शयन्निव।। | 12-114-10a 12-114-10b |
यस्यावाच्यं न लोकेऽस्मिन्नाकार्यं चापि किंचन। वाचं तेन न संदध्याच्छुचिः संश्लिष्टकर्मणा।। | 12-114-11a 12-114-11b |
प्रत्यक्षं गुणवादी यः परोक्षं तु विनिन्दकः। स मानवः श्ववल्लोके नष्टलोकपरायणः।। | 12-114-12a 12-114-12b |
तादृग्दिनशतं चापि यद्ददाति जुहोति च। परोक्षेणापवादेन तं नाशयति तत्क्षणात्।। | 12-114-13a 12-114-13b |
तस्मात्प्राज्ञो नरः सद्यस्तादृशं पापचेतसम्। वर्जयेन्मतिमान्वर्ज्यं सारमेयामिषं यथा।। | 12-114-14a 12-114-14b |
परिवादं ब्रुवाणो हि दुरात्मा वै महाजने। प्रकाशयति दोषान्स्वान्सर्पः फणमिवोन्नतम्।। | 12-114-15a 12-114-15b |
तं स्वकर्मणि कुर्वाणं प्रतिकर्तुं य इच्छति। भस्मकूट इवाबुद्धिः खरो रजसि मज्जति।। | 12-114-16a 12-114-16b |
मनुष्यसालावृकमप्रशान्तं जनापवादे सततं निविष्टम्। मातङ्गमुन्मत्तमिवोन्नदन्तं त्यजेत तं श्वानमिवातिरौद्रम्।। | 12-114-17a 12-114-17b 12-114-17c 12-114-17d |
अनार्यजुष्टे पथि वर्तमानं दमादपेतं विनयाच्च पापम्। अरिव्रतं नित्यमभूतिकामं धिगस्तु तं पापमतिं मनुष्यम्।। | 12-114-18a 12-114-18b 12-114-18c 12-114-18d |
प्रत्युच्यमानस्त्वथ भूय एव निशाम्य माभूस्त्वमथार्तरूपः। उच्चस्य नीचेन हि संप्रयोगं विगर्हयन्ति स्थिरबुद्धयो ये।। | 12-114-19a 12-114-19b 12-114-19c 12-114-19d |
क्रुद्धो दशेद्वाऽपि च ताडयेद्वा स पांसुभिर्वा विकिरेत्तुषैर्वा। विवृत्य दन्तांश्च विभीषयेद्वा सिद्धं हि मूढे कुपिते नृशंसे।। | 12-114-20a 12-114-20b 12-114-20c 12-114-20d |
विगर्हणां नाऽपि दुरात्मना कृतां सहेत यः संसदि दुर्जनानाम्। पठेदिदं चापि निदर्शनं सदा न वाङ्भयं स लभति किंचिदप्रियम्।। | 12-114-21a 12-114-21b 12-114-21c 12-114-21d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि चतुर्दशाधिकशततमोऽध्यायः।। 114।। |
12-114-1 मूढश्चासौ प्रगल्भश्च तेन।। 12-114-2 सहते दुरुक्तम्।। 12-114-3 मर्षी तितिक्षुः।। 12-114-4 वाश्यमानं रटन्तम्।। 12-114-9 यथा वाचा हतो न हन्यते एवं वाचा दूषितो न दुष्यतीत्यर्थः।। 12-114-10 स एवं वदन्वृत्तेन क्रियया चेष्टया वागादिव्यापारेण च लिङ्गेन निषेकं स्वमातरि रेतः सेकं परस्य परेण पितुरन्येन कृतमित्याचष्टे व्यक्तं कथयति। कौपीनं गुह्यप्रदेशं संदर्शयन्निव नृत्यं कुर्वन्मयूरो यथा श्लाघते सम्यङ्नृत्यामीति मन्यते नतु मम गुह्यं लोकाः पश्यन्तीति त्रपते एवं स्वलोपि मया स महानमुकसभायां दुरुक्तमुक्त इति श्लाघते नत्वनेन मम मातुर्दोषः स्पष्टीक्रियते मयैवेति न त्रपते इत्यर्थः।। 12-114-11 मयूर इव कालीनं इति थ. द. पाठः। संश्लिष्टजन्मना इति ट.थ. द. पाठः।। 12-114-13 तादृक्पुमान्।। 12-114-14 सारमेयामिषं शुनोमांसम्।। 12-114-15 दोषान् जारजत्वादीन्।। 12-114-16 भस्मकूटे भस्मराशौ स्वर इवाबुद्धिः रजसि दुःखे निमज्जति।। 12-114-17 सालावृकं श्वानमेव मनुष्यत्वेन लोके गृहीतमित्यर्थः।। 12-114-20 कुद्धो दशार्धेन हि ताडयेद्वा इति झ. पाठः। तत्र दशार्धेन संवृताङ्गुलिपञ्चकेन पाणिनेत्यर्थः। इदं सर्वं कुपितमूढे सिद्धमेव।।
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