महाभारतम्-12-शांतिपर्व-285
दिखावट
← शांतिपर्व-284 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-285 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-286 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति वृत्रगीतानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-285-1x |
धन्याधन्या इति जनाः सर्वेऽस्मान्प्रवदन्त्युत। न दुःखिततरः कश्चित्पुमानस्माभिरस्ति ह।। | 12-285-1a 12-285-1b |
लोकसंभावितैर्दुःखं यत्प्राप्तं कुरुसत्तम। प्राप्य जातिं मनुष्येषु देवैरपि पितामह।। | 12-285-2a 12-285-2b |
कदा वयं करिष्यामः संन्यासं दुःखभेषजम्। दुःखमेतच्छरीराणां धारणं कुरुसत्तम।। | 12-285-3a 12-285-3b |
विमुक्ताः सप्तदशभिर्हेतुभूतैश्च पञ्चभिः। इन्द्रियार्थैर्गुणैश्चैव अष्टाभिश्च पितामह।। | 12-285-4a 12-285-4b |
न गच्छन्ति पुनर्भावं मुनयः संशितव्रताः। कदा वयं गमिष्यामो राज्यं हित्वा परंतप।। | 12-285-5a 12-285-5b |
भीष्म उवाच। | 12-285-6x |
नास्त्यनन्तं महाराज सर्वं सङ्ख्यानगोचरम्। पुनर्भावोपि संख्यातो नास्ति किंचिदिहाचलम्।। | 12-285-6a 12-285-6b |
न चापि गम्यते राजन्नैष दोषः प्रसङ्गतः। उद्योगादेव धर्मज्ञाः कालेनैव गमिष्यथ।। | 12-285-7a 12-285-7b |
नेशेऽयं सततं देही नृपते पुण्यपापयोः। तत एव समुत्थेन तमसा रुध्यतेऽपि च।। | 12-285-8a 12-285-8b |
यथाञ्जनमयो वायुः पुनर्मानःशिलं रजः। अनुप्रविश्य तद्वर्णो दृश्यते रञ्जयन्दिशः।। | 12-285-9a 12-285-9b |
तथा कर्मफलैर्देही रञ्जितस्तमसा वृतः। विवर्णो वर्णमाश्रित्य देहेषु परिवर्तते।। | 12-285-10a 12-285-10b |
ज्ञानेन हि यदा जन्तुरज्ञानप्रभवं तमः। व्यपोहति तदा ब्रह्म प्रकाशेत सनातनम्।। | 12-285-11a 12-285-11b |
अयत्नसाध्यं मुनयो वदन्ति चे चापि मुक्तास्तदुपासितव्याः। त्वया च लोकेन च सामरेण तस्मान्न शाम्यन्ति महर्षिसङ्घाः।। | 12-285-12a 12-285-12b 12-285-12c 12-285-12d |
अस्मिन्नर्थे पुरा गीतं शृणुष्वैकमना नृप। यथा दैत्येन वृत्रेण भ्रष्टैश्वर्येण चेष्टितम्।। | 12-285-13a 12-285-13b |
निर्जितेनासहायेन हृतराज्येन भारत। अशोचता शत्रुमध्ये बुद्धिमास्थाय केवलाम्।। | 12-285-14a 12-285-14b |
भ्रष्टैश्वर्यं पुरा वृत्रमुशना वाक्यमब्रवीत्। कच्चित्पराजितस्याद्य न व्यथा तेऽस्ति दानव।। | 12-285-15a 12-285-15b |
वृत्र उवाच। | 12-285-16x |
सत्येन तपसा चैव विदित्वा संक्षयं ह्यहम्। न शोचामि न हृष्यामि भूतानामागतिं गतिम्।। | 12-285-16a 12-285-16b |
कालसंचोदिता जीवा मज्जन्ति नरकेऽवशाः। परिहृष्टानि सर्वाणि दिव्यान्याहुर्मनीषिणः।। | 12-285-17a 12-285-17b |
क्षपयित्वा तु तं कालं गणितं कालचोदिताः। सावशेषेण कालेन संधावन्ति पुनःपुनः।। | 12-285-18a 12-285-18b |
तिर्यग्योनिसहस्राणि गत्वा नरकमेव च। निर्गच्छन्त्यवशा जीवाः कालबन्धनबन्धनाः।। | 12-285-19a 12-285-19b |
एवं संसरमाणानि ह्यहं भूतानि दृष्टवान्। यथा कर्म तथा लाभ इति शास्त्रनिदर्शनम्।। | 12-285-20a 12-285-20b |
तिर्यग्गच्छन्ति नरकं मानुष्यं दैवमेव च। सुखदुःखे प्रिये द्वेष्ये चरित्वा पूर्वमेव च।। | 12-285-21a 12-285-21b |
कृतान्तविधिसंयुक्तः सर्वो लोकः प्रपद्यते। गतं गच्छन्ति चाध्वानं सर्वभूतानि सर्वदा।। | 12-285-22a 12-285-22b |
कालसङ्ख्यानसङ्ख्येयं सृष्टिस्थितिपरायणम्। तं भाषमाणं भगवानुशना प्रत्यभाषत। इमान्दुष्टप्रलापांस्त्वं तात कस्मात्प्रभाषते।। | 12-285-23a 12-285-23b 12-285-23c |
वृत्र उवाच। | 12-285-24x |
प्रत्यक्षमेतद्भवतस्तथाऽन्येषां मनीषिणाम्। मया यज्जयलुब्धेन पुरा तप्तं महत्तपः।। | 12-285-24a 12-285-24b |
गन्धानादाय भूतानां रसांश्च विविधानपि। अवर्धं त्रीन्समाक्रम्य लोकान्वै स्वेन तेजसा।। | 12-285-25a 12-285-25b |
ज्वालामालापरिक्षिप्तो वैहायसगतिस्तथा। अजेयः सर्वभूतानामासं नित्यमपेतभीः।। | 12-285-26a 12-285-26b |
ऐश्वर्यं तपसा प्राप्तं भ्रष्टं तच्च स्वकर्मभिः। धृतिमास्थाय भगवन्न शोचामि ततस्त्वहम्।। | 12-285-27a 12-285-27b |
युयुत्सता महेन्द्रेण पुरा सार्धं महात्मना। ततो मे भगवान्दृष्टो हरिर्नारायणः प्रभुः।। | 12-285-28a 12-285-28b |
वैकुण्ठः पुरुषोऽनन्तः शुक्लो विष्णुः सनातनः। मुञ्जकेशो हरिश्मश्रुः सर्वभूतपितामहः।। | 12-285-29a 12-285-29b |
नूनं तु तस्य तपसः सावशेषं ममास्ति वै। यदहं प्रष्टुमिच्छामि भवन्तं कर्मणः फलम्।। | 12-285-30a 12-285-30b |
ऐश्वर्यं वै महद्ब्रह्मन्वर्णे कस्मिन्प्रतिष्ठितम्। निवर्तते चापि पुनः कथमैश्वर्यमुत्तमम्।। | 12-285-31a 12-285-31b |
भवन्ति कस्माद्भूतानि प्रवर्तन्ते यथा पुनः। किं वा फलं परं प्राप्य जीवस्तिष्ठति शाश्वतः।। | 12-285-32a 12-285-32b |
केन वा कर्मणा शक्यमथ ज्ञानेन केन वा। ब्रह्मर्षे तत्फलं प्राप्तुं तन्मे व्याख्यातुमर्हसि।। | 12-285-33a 12-285-33b |
इतीदमुक्तः स मुनिस्तदानीं प्रत्याह यत्तच्छृणु राजसिंह। मयोच्यमानं पुरुषर्षभ त्व मनन्यचित्तः सह सोदरीयैः।। | 12-285-34a 12-285-34b 12-285-34c 12-285-34d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पञ्चाशीत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 285।। |
12-285-2 देवैर्धर्मादिभिः। जातिं जन्म।। 12-285-3 सुखसंज्ञिकमिति ध. पाठः।। 12-285-5 व्रजन्ति येषु न भवमिति ध. पाठः।। 12-285-7 न चापि मन्यते राजन्नेष धर्मोऽत्रसन्तत इति ध. पाठः।। 12-285-8 नेशे नेष्टे। ईदृशो यतते देहीति ट.ड. पाठः।। 12-285-9 यथाञ्जनचयं वायुरिति ड. ध. पाठः।। 12-285-18 संभवन्ति पुनःपुनरिति झ. पाठः।। 12-285-23 धीमन्दुष्टप्रलापांस्त्वमिति झ. पाठः। दुष्टप्रलापान् असुरभावविनाशकान् असुरे भूत्वा कथं भाषस इत्यर्थः।। 12-285-25 गन्धाद्यादानं तदाश्रयोपमर्देन। अवर्धं हिंसितवान्।। 12-285-26 वैहायसगतिश्चरन्निति झ. ध. पाठः।।
शांतिपर्व-284 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-286 |