महाभारतम्-12-शांतिपर्व-012
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युधिष्ठिरंप्रति नकुलवाक्यम्।। 1।।
वैशंपायन उवाच। | 12-12-1x |
अर्जुनस्य वचः श्रुत्वा नकुलो वाक्यमब्रवीत्। राजानमभिसंप्रेक्ष्य सर्वधर्मभृतां वरम्।। | 12-12-1a 12-12-1b |
अनुरुध्य महाप्राज्ञो भ्रातुश्चित्तमरिंदम। व्यूढोरस्को महाबाहुस्ताम्रास्यो मितभाषिता।। | 12-12-2a 12-12-2b |
नकुल उवाच। | 12-12-3x |
विशाखयूपे देवानां सर्वेषामग्नयश्चिताः। तस्माद्विद्वि महाराज देवाः कर्मफले स्थिताः।। | 12-12-3a 12-12-3b |
अनास्तिकानां भूतानां प्राणदाः पितरश्च ये। तेऽपि कर्मैव कुर्वन्ति विधिं पश्यस्व पार्थिव।। | 12-12-4a 12-12-4b |
वेदवादापविद्धास्तु तान्विद्धि भृशनास्तिकान्। न हि वेदोक्तमुत्सृज्य विप्रः सर्वेषु कर्मसु।। | 12-12-5a 12-12-5b |
देवयानेन नाकस्य पृष्ठमाप्नोति भारत। अत्याश्रमानयं सर्वानित्याहुर्वेदमिश्चयाः।। | 12-12-6a 12-12-6b |
ब्राह्मणाः श्रुतिसंपन्नास्तान्निबोध नराधिप। वित्तानि धर्मलब्धानि क्रतुमुख्येष्ववासृजन्।। | 12-12-7a 12-12-7b |
कृतात्मा स महाराज स वै त्यागी स्मृतो नरः।। | 12-12-8a |
अनवेक्ष्य सुखादानं तथैवोर्ध्वं प्रतिष्ठितः। आत्मत्यागी महाराज स त्यागी तापसो मतः।। | 12-12-9a 12-12-9b |
अनिकेतः परिपतन्वृक्षमूलाश्रयो मुनिः। अयाचकः सदायोगी स त्यागी पार्थ भिक्षुकः।। | 12-12-10a 12-12-10b |
क्रोधहर्षावनादृत्य पैशुन्यं च विशेषतः। विप्रो वेदानधीते यः स त्यागी गुरुपूजकः।। | 12-12-11a 12-12-11b |
आश्रमांस्तुलया सर्वान्धृतानाहुर्मनीषिणः। एकतश्च त्रयो राजन्गृहस्थाश्रम एकतः।। | 12-12-12a 12-12-12b |
समीक्ष्य तुलया पार्थ कामं स्वर्गं च भारत। अयं पन्था महर्षीणाप्रियं लोकविदां गतिः।। | 12-12-13a 12-12-13b |
इति यः कुरुते भावं स त्यागी भरतर्षभ। नरः परित्यज्य गृहान्वनमेति विमूढवत्।। | 12-12-14a 12-12-14b |
यदा कामान्समीक्षेत धर्मवैतंसिको नरः। अथैनं मृत्युपाशेन कण्ठे बध्नाति सृत्युराट्।। | 12-12-15a 12-12-15b |
अभिमानकृतं कर्म नैतत्फलवदुच्यते। त्यागयुक्तं महाराज सर्वमेव महाफलम्।। | 12-12-16a 12-12-16b |
शमो दमस्तथा धैर्यं सत्यं शौचमथार्जवम्। यज्ञो धृतिश्च धर्मश्च नित्यमार्षो विधिः स्मृतः।। | 12-12-17a 12-12-17b |
पितृदेवातिथिकृते समारम्भोऽत्र शस्यते। अत्रैव हि महाराज त्रिवर्गः केवलं फलम्।। | 12-12-18a 12-12-18b |
एतस्मिन्वर्तमानस्य विधौ विप्रनिषेविते। त्यागिनः प्रसृतस्येह नोच्छित्तिर्विद्यते क्वचित्।। | 12-12-19a 12-12-19b |
असृजद्धि प्रजा राजन्प्रजापतिरकल्मषः। मां यक्ष्यन्तीति धर्मात्मा यज्ञैर्विविधदक्षिणैः।। | 12-12-20a 12-12-20b |
वीरुधश्चैव वृक्षांश्च यज्ञार्थं वै तथौषधीः। पशूंश्चैव तथा मेध्यान्यज्ञार्थानि हवींषि च।। | 12-12-21a 12-12-21b |
गृहस्थाश्रमिणस्तच्च यज्ञकर्माविरोधितम्। तस्माद्गार्हस्थ्यमेवेह दुष्करं दुर्लभं तथा।। | 12-12-22a 12-12-22b |
तत्संप्राप्य गृहस्था ये पशुधान्यधनान्विताः। न यजन्ते महाराज शाश्वतं तेषु किल्विषम्।। | 12-12-23a 12-12-23b |
स्वाध्याययज्ञा ऋषयो ज्ञानयज्ञास्तथा परे। अथापरे महायज्ञान्मनस्येव वितन्वते।। | 12-12-24a 12-12-24b |
`इदमन्यन्महाराज विद्वद्भिः कथितं मम। भूमिरग्निश्च वायुश्च न चापो न दिवाकरः।। | 12-12-25a 12-12-25b |
नक्षत्राणि न चन्द्रश्च न दिशः काल एव च। शब्दः स्पर्शश्च रूपं च न गन्धो न रसः क्वचित्।। | 12-12-26a 12-12-26b |
न च सन्ति प्रमाणानि यैः प्रमेयं प्रसाध्यते। प्रत्यक्षमनुमानं न नोपमानमथागमः।। | 12-12-27a 12-12-27b |
नार्थापत्तिर्न चैतिह्यं न दृष्टान्तो न संशयः। न क्वचिन्निर्णयो राजन्न धर्माधर्म एव च।। | 12-12-28a 12-12-28b |
तिर्यक्व स्थावरं चैव न देवा न च मानुषाः। वर्णाश्रमविभागाश्च न च कर्ता न कामकृत्। न चार्थश्च विभूतिश्च न चार्थस्य विचेष्टितम्।। | 12-12-29a 12-12-29b 12-12-29c |
तमोभूतमिदं सर्वमनालोकं जगन्नृप। न चात्मा विद्यमानोपि मनसा योगमिच्छति।। | 12-12-30a 12-12-30b |
अचेतनं मनस्त्वासीदात्मा एव सचेतनः। ईश्वरश्चेतनस्त्वेकस्तेनेदं गहनीकृतम्। मन्त्राश्च चेतना राजन्न च देहेन योजिताः।। | 12-12-31a 12-12-31b 12-12-31c |
तेन विश्वसृजो नाम ऋषयो मन्त्रदेवताः। चैतन्यमीश्वरात्प्राप्य ब्रह्माण्डं तैर्विनिर्मितम्।। | 12-12-32a 12-12-32b |
इष्ट्वा विश्वसृजं यज्ञं निर्मितः प्रपितामहः। सृष्टिस्तेन समारब्धा प्रसादादीश्वरस्य च।। | 12-12-33a 12-12-33b |
चैतन्यमीश्वरस्येदं सचेतनमिदं जगत्। योगेन च समाविष्टं जगत्कृत्स्नं च शंभुना।। | 12-12-34a 12-12-34b |
धर्मश्चार्थश्च कामश्च उक्तो मोक्षश्च संक्षये। ब्रह्मणः परमेशस्य ईश्वरेण यदृच्छया।। | 12-12-35a 12-12-35b |
अज्ञो जन्तुरनीशश्च भाजनं सुखदुःखयोः। ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्गं वा श्वभ्रमेव वा।। | 12-12-36a 12-12-36b |
प्रधानं पुरुषः चैव आत्मानं सर्वदेहिनाम्। मनसा विषयैश्चैव चेतनेन प्रचोदिताः। सुखदुःखेन युज्यन्ते कर्मभिश्च प्रचोदिताः।। | 12-12-37a 12-12-37b 12-12-37c |
वर्णाश्रमविभागाश्च ईश्वरेण प्रवर्तिताः। सदेवासुरगन्धर्वं येनेदं निर्मितं जगत्।। | 12-12-38a 12-12-38b |
त्वं चान्ये च महाराज ईश्वरस्य वशे स्थिताः। जीवन्ते च म्रियन्ते च न स्वतन्त्राः कथंचन।। | 12-12-39a 12-12-39b |
हित्वाहित्वा च भूतानि हत्वा सर्वमिदं जगत्। यजन्ते कर्मणा देवा न स पापेन लिप्यते।। | 12-12-40a 12-12-40b |
हिंसात्मकानि कर्माणि सर्वेषां गृहमेधिनाम्। देवतानामृषीणां च ते च यान्ति परां गतिम्।। | 12-12-41a 12-12-41b |
पातिताः शत्रवः पूर्व सर्वत्र वसुधाधिपैः। प्रजानां हितकामैश्च आत्मनश्च हितैषिभिः। | 12-12-42a 12-12-42b |
यदि तत्र भवेत्पापं कथं ते स्वर्गमास्थिताः। न प्राप्ता नरकं राजन्वेष्टिताः पापकर्मभिः।।' | 12-12-43a 12-12-43b |
एवं मनःसमाधानं मार्गमातिष्ठतो नृप। द्विजातेर्ब्रह्मभूतस्य स्पृहयन्ति दिवौकसः।। | 12-12-44a 12-12-44b |
स रत्नानि विचित्राणि संहृतानि ततस्ततः। मखेष्वनभिसन्त्यज्य नास्तिक्यमभिजल्पसि।। | 12-12-45a 12-12-45b |
कुटुम्बमास्थिते त्यागं न पश्यामि नराधिप। राजसूयाश्वमेधेषु सर्वमेधेषु वा पुनः।। | 12-12-46a 12-12-46b |
ये चान्ये क्रतवस्तात ब्राह्मणैरभिपूजिताः। तैर्यजस्व महीपाल शक्रो देवपतिर्यथा। | 12-12-47a 12-12-47b |
राज्ञः प्रमाददोषेण दस्युभिः परिमुष्यताम्। अशरण्यः प्रजानां यः स राजा कलिरुच्यते।। | 12-12-48a 12-12-48b |
अश्वान्गाश्चैव दासीश्च करेणूश्च स्वलंकृताः। ग्रामाञ्जनपदांश्चैव क्षेत्राणि च गृहाणि च।। | 12-12-49a 12-12-49b |
अप्रदाय द्विजातिभ्यो मात्सर्याविष्टचेतसः। वयं ते राजकलयो भविष्याम विशांपते।। | 12-12-50a 12-12-50b |
अदातारोऽशरण्याश्च राजकिल्विषभागिनः। दुःखानामेव भोक्तारो न सुखानां कदाचन।। | 12-12-51a 12-12-51b |
अनिष्ट्वा च महायज्ञैरकृत्वा च पितृस्वधाम्। तीर्थेष्वनभिसंप्लुत्य प्रव्रजिष्यसि चेत्प्रभो।। | 12-12-52a 12-12-52b |
छिन्नाभ्रमिव गन्तासि विलयं मारुतेरितम्। लोकयोरुभयोर्भ्रष्टो ह्यन्तराले व्यवस्थितः।। | 12-12-53a 12-12-53b |
अन्तर्बहिश्च यत्किंचिन्मनोव्यासङ्गकारकम्। परित्यज्य भवेत्त्यागी न हित्वा प्रतितिष्ठति।। | 12-12-54a 12-12-54b |
एतस्मिन्वर्तमानस्य विधौ विप्रनिषेविते। ब्राह्मणस्य महाराज नोच्छित्तिर्विद्यते क्वचित्।। | 12-12-55a 12-12-55b |
निहत्य शत्रूंस्तरसा समृद्धाञ्शक्रो यथा दैत्यबलानि सङ्ख्ये। कः पार्थ शोचेन्निरतः स्वधर्मे पूर्वैः स्मृते पार्थिवशिष्टजुष्टे।। | 12-12-56a 12-12-56b |
क्षात्रेण धर्मेण पराक्रमेण जित्वा महीं मन्त्रविद्भ्यः प्रदाय। नाकस्य पृष्ठेऽसि नरेन्द्र गन्ता न शोचितव्यं भवताऽद्य पार्थ।। | 12-12-57a 12-12-57b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि द्वादशोऽध्यायः।। 12।। |
12-12-2 तम्रास्यो दुःखेन विवर्णमुस्रः।। 12-12-3 विशाखयूपे क्षेत्रविशेषे। देवानां देवैः। अग्नयोऽग्निस्थापनार्थानि स्थण्डिलानि। चिता इष्टकाभी रचिता अद्यापि दृश्यन्ते। तेन देवत्वमपि कर्मफलमेवेत्यर्थः। विशालयूप इति थ. पाठः।। 12-12-4 अनास्तिकानामास्तिक्यशून्यानामपि प्राणदा वृष्टिद्वारा अन्नप्रदाः। विधिं अग्निं वा अकामयतेत्यादि अग्न्यादिभावस्य कर्मसाध्यत्वज्ञापकम्। अनास्तिकनास्तिकानां प्राणदा इति थ. ड. पाठः।। 12-12-5 वेदवादः अपविद्धस्त्यक्तो यैस्तान्।। 12-12-6 देवयानेन मार्गण। पृष्ठमुपरिभागं ब्रह्मलोकमित्यर्थः। अयं गृहाश्रमः सर्वानाश्रमान् अति अतिक्रान्तः। तेभ्यः श्रेष्ठ इत्यर्थः।। 12-12-7 तान्ब्राह्मणान् गत्वा निबोध बुध्यस्व। अवासृजन् समार्पयन्।। 12-12-8 कृतात्मा जितचित्तः।। 12-12-9 सुखादानं गार्हथ्यसुखभोगम्। ऊर्ध्वं वनादौ प्रतिष्ठितो निष्ठावान् सन्यः आत्मत्यागी देहत्यागी।। 12-12-10 परिपतन् भिक्षार्थं पर्यटन्।। 12-12-13 आश्रमान्तरे स्वर्गएवास्ति न कामः। गार्हस्थ्ये तूभयमस्तीति अयमेव मार्गो गतिश्चेत्यर्थः।। 12-12-15 धर्मवैतंसिको धर्मध्वजी।। 12-12-16 त्यागयुक्तं अभिमानत्यागोपेतम्।। 12-12-17 आर्षः ऋषीणां हितः।। 12-12-18 अत्र गार्हस्थ्ये।। 12-12-19 इह विधौ। प्रसृतस्य निष्ठावतः।। 12-12-48 प्रमादो राज्याकरणम्। परिमुष्यतां लुप्यमानानाम्।। 12-12-53 अन्तराले पिशाचयोनौ।।
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