महाभारतम्-12-शांतिपर्व-053
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कृष्णेन भीष्मंप्रति धर्मकथनचोदना।। 1।।
जनमेजय उवाच। | 12-53-1x |
धर्मात्मनि महावीर्ये सत्यसन्धे जितात्मनि। देवव्रते महाभागे शरतल्पगतेऽच्युते।। | 12-53-1a 12-53-1b |
शयाने वीरशयने भीष्मे शन्तनुनन्दने। गाङ्गेये पुरुषव्याघ्रे पाण्डवैः पर्युपासिते।। | 12-53-2a 12-53-2b |
काः कथाः समवर्तन्त तस्मिन्वीरसमागमे। हतेषु सर्वसैन्येषु तन्मे शंस महामुने।। | 12-53-3a 12-53-3b |
वैशंपायन उवाच। | 12-53-4x |
शरतल्पगते भीष्मे कौरवाणां पितामहे। आजग्मुर्ऋषयः सिद्धा नारदप्रमुखा नृप।। | 12-53-4a 12-53-4b |
हतशिष्टाश्च राजानो युधिष्ठिरपुरोगमाः। धृतराष्ट्रश्च कृष्णश्च भीमार्जुनयमास्तथा।। | 12-53-5a 12-53-5b |
तेऽभिगम्य महात्मानो भरतानां पितामहम्। अन्वशोचन्त गाङ्गेयमादित्यं पतितं यथा।। | 12-53-6a 12-53-6b |
मुहूर्तमिव च ध्यात्वा नारदो देवदर्शनः। उवाच पाण्डवान्सर्वान्हतशिष्टांश्च पार्थिवान्।। | 12-53-7a 12-53-7b |
प्राप्तकालं समाचक्षे भीष्मोऽयमनुयुज्यताम्। अस्तमेति हि गाङ्गेयो भानुमानिव भारत।। | 12-53-8a 12-53-8b |
अयं प्राणानुत्सिसृक्षुस्तं सर्वेऽभ्यनुपृच्छत। कृत्स्नान्हि विविधान्धर्मांश्चातुर्वर्ण्यस्य वेत्त्ययम्।। | 12-53-9a 12-53-9b |
एष वृद्धः पराँल्लोकान्संप्राप्नोति तनुं त्यजन्। तं शीघ्रमनुयुञ्जीध्वं संशयान्मनसि स्थितान्।। | 12-53-10a 12-53-10b |
वैशंपायन उवाच। | 12-53-11x |
एवमुक्ते नारदेन भीष्ममीयुर्नराधिपाः। प्रष्टुं चाशक्रुवन्तस्ते वीक्षांचक्रुः परस्परम्।। | 12-53-11a 12-53-11b |
अथोवाच हृषीकेशं पाण्डुपुत्रो युधिष्ठिरः। नान्यस्त्वद्देवकीपुत्र शक्तः प्रष्टुं पितामहम्।। | 12-53-12a 12-53-12b |
प्रव्याहर यदुश्रेष्ठ त्वमग्रे मधुसूदन। त्वं हि नस्तात सर्वेषां सर्वधर्मविदुत्तमः।। | 12-53-13a 12-53-13b |
एवमुक्तः पाण्डवेन भगवान्केशवस्तदा। अभिगम्य दुराधर्षं प्रव्याहारयदच्युतः।। | 12-53-14a 12-53-14b |
कच्चित्सुखेन रजनी व्युष्टा ते राजसत्तम। विस्पष्टलक्षणा बुद्धिः कच्चिच्चोपस्थिता तव।। | 12-53-15a 12-53-15b |
कच्चिज्ज्ञानानि सर्वाणि प्रतिभान्ति च तेऽनघ। न ग्लायते च हृदयं न च ते व्याकुलं मनः।। | 12-53-16a 12-53-16b |
भीष्म उवाच। | 12-53-17x |
दाहो मोहः श्रमश्चैव क्लमो ग्लानिस्तथा रुजा। तव प्रसादाद्वार्ष्णेय सद्यो व्यपगतानि मे।। | 12-53-17a 12-53-17b |
यच्च भूतं भविष्यच्च भवच्च परमद्युते। तत्सर्वमनुपश्यामि पाणौ फलमिवाहितम्।। | 12-53-18a 12-53-18b |
वेदोक्ताश्चैव ये धर्मा वेदान्ताधिगताश्च ये। तान्सर्वान्संप्रपश्यामि वरदानात्तवाच्युत।। | 12-53-19a 12-53-19b |
शिष्टैश्च धर्मो यः प्रोक्तः स च मे हृदि वर्तते। देशजातिकुलानां च धर्मज्ञोऽस्मि जनार्दन।। | 12-53-20a 12-53-20b |
चतुर्ष्वाश्रमधर्मेषु योऽर्थः स च हृदि स्थितः। राजधर्मांश्च सकलानवगच्छामि केशव।। | 12-53-21a 12-53-21b |
यच्च यत्र च वक्तव्यं तद्वक्ष्यामि जनार्दन। तव प्रसादाद्धि शुभा मनो मे बुद्धिराविशत्।। | 12-53-22a 12-53-22b |
युवेवास्मि समावृत्तस्त्वदनुध्यानबृंहितः। वक्तुं श्रेयः समर्थोऽस्मि त्वत्प्रसादाज्जनार्दन।। | 12-53-23a 12-53-23b |
स्वयं किमर्थं तु भवाञ्श्रेयो न प्राह पाण्डवम्। किं ते विवक्षितं चात्र तदाशु वद माधव।। | 12-53-24a 12-53-24b |
वासुदेव उवाच। | 12-53-25x |
यशसः श्रेयसश्चैव मूल मां विद्धि कौरव। मत्तः सर्वेऽभिनिर्वृत्ता भावाः सदसदात्मकाः।। | 12-53-25a 12-53-25b |
शीतांशुश्चन्द्र इत्युक्ते लोके को विस्मयिष्यति। तथैव यशसा पूर्णे मयि को विस्मयिष्यति।। | 12-53-26a 12-53-26b |
आधेयं तु मया भूयो यशस्तव महाद्युते। ततो मे विपुला बुद्धिस्त्वयि भीष्म समाहिता।। | 12-53-27a 12-53-27b |
यावद्धि पृथिवीपाल पृथ्वीयं स्थास्यति ध्रुवा। तावत्तवाक्षया कीर्तिर्लोकाननुचरिष्यति।। | 12-53-28a 12-53-28b |
यच्च त्वं वक्ष्यसे भीष्म पाण्डवायानुपृच्छते। वेदप्रवाद इव ते स्थास्यते वसुधातले।। | 12-53-29a 12-53-29b |
यश्चैतेन प्रमाणेन योक्ष्यत्यात्मानमात्मना। स फलं सर्वपुण्यानां प्रेत्य चानुभविष्यति।। | 12-53-30a 12-53-30b |
एतस्मात्कारणाद्भीष्म मतिर्दिव्या मया हि ते। दत्ता यशो विप्रथयेत्कथं भूयस्तवेति ह।। | 12-53-31a 12-53-31b |
यावद्धि प्रथते लोके पुरुषस्य यशो भुवि। तावत्तस्याक्षया कीर्तिर्भवतीति विनिश्चिता।। | 12-53-32a 12-53-32b |
राजानो हतशिष्टास्त्वां राजन्नभित आसते। धर्माननुयुयुक्षन्तस्तेभ्यः प्रब्रूहि भारत।। | 12-53-33a 12-53-33b |
भवान्हि वयसा वृद्धः श्रुताचारसमन्वितः। कुशलो राजधर्माणां सर्वेषामपराश्च ये।। | 12-53-34a 12-53-34b |
जन्मप्रभृति ते किंचिद्वॄजिनं न ददर्श ह। ज्ञातारं सर्वधर्माणां त्वां विदुः सर्वपार्थिवाः।। | 12-53-35a 12-53-35b |
तेभ्यः पितेव पुत्रेभ्यो राजन्ब्रूहि परं नयम्। ऋषयश्चैव देवाश्च त्वया नित्यमुपासिताः।। | 12-53-36a 12-53-36b |
तस्माद्वक्तव्यमेवेदं त्वयाऽवश्यमशेषतः। धर्मं शुश्रूषमाणेभ्यः पृष्टेन न सता पुनः।। | 12-53-37a 12-53-37b |
वक्तव्यं विदुषा चेति धर्ममाहुर्मनीषिणः। अप्रतिब्रुवतः कष्टो दोषो हि भविता प्रभो।। | 12-53-38a 12-53-38b |
तस्मात्पुत्रैश्च पौत्रेश्च धर्मान्पृष्टान्सनातनान्। विद्वञ्जिज्ञासमानेभ्यः प्रब्रूहि भरतर्षभ।। | 12-53-39a 12-53-39b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि त्रिपञ्चाशोऽध्यायः।। 53।। |
12-53-8 अनुयुज्यतां पृच्छ्यताम्।। 12-53-32 यशः परचित्तचमात्कृतिजनको गुणौधः। कीर्तिः साधुतयाऽन्यैः कथनम्।। 12-53-33 अनुयुयुक्षन्तः प्रष्टुमिच्छन्तः।।
शांतिपर्व-052 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-054 |