महाभारतम्-12-शांतिपर्व-249
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--------------- प्रतिपादकव्यासयाक्यानुवादः।। 1।।
व्यास उवाच। | 12-249-1x |
--तीयमायुषो भागं गृहमेधी गृहे वसेत्। धर्मलब्धैर्युतो दारैरग्नीनाहृत्य सुव्रतः।। | 12-249-1a 12-249-1b |
गृहस्थवृत्तयश्चैव चतस्रः कविभिः स्मृताः। कुमूलधान्यः प्रथमः कुम्भधान्यस्त्वनन्तरम्।। | 12-249-2a 12-249-2b |
अश्वस्तनोऽथ कापोतीमाश्रितो वृत्तिमाहरेत्। तेषां परः परो ज्यायान्धर्मतो लोकजित्तमः।। | 12-249-3a 12-249-3b |
षट्कर्मावर्तयत्येकस्त्रिभिरन्यः प्रवर्तते। द्वाभ्यामेकश्चतुर्थस्तु ब्रह्मसत्रे व्यवस्थितः।। | 12-249-4a 12-249-4b |
गृहमेधिव्रतान्यत्र महान्तीह प्रचक्षते। नात्मार्थे पाचयेदन्नं न वृथा घातयेत्पशून्।। | 12-249-5a 12-249-5b |
प्राणी वा यदि वाऽप्राणी संस्कारं यजुषाऽर्हति। न दिवा प्रस्वपेज्जातु न पूर्वापररात्रयोः।। | 12-249-6a 12-249-6b |
न भुञ्जीतान्तराकाले नानृतावाह्वयेत्स्त्रियम्। नास्यानश्नन्गृहे विप्रो वसेत्कश्चिदपूजितः।। | 12-249-7a 12-249-7b |
तथास्यातिथयः पूज्या हव्यकव्यवहाः सदा। वेदविद्याव्रतस्नाताः श्रोत्रिया वेदपारगाः।। | 12-249-8a 12-249-8b |
स्वकर्मजीविनो दान्ताः क्रियावन्तस्तपस्विनः। तेषां हव्यं च कव्यं चाप्यर्हणार्थं विधीयते।। | 12-249-9a 12-249-9b |
नखरैः संप्रयातस्य स्वकर्मव्यापकस्य च। अपविद्धाग्निहोत्रस्य गुरोर्वाऽलीकचारिणः।। | 12-249-10a 12-249-10b |
संविभागोऽत्र भूतानां सर्वेषामेव शिष्यते। तथैवापचमानेभ्यः प्रदेयं गृहमेधिना।। | 12-249-11a 12-249-11b |
विस्साशी भवेन्नित्यं नित्यं चामृतभोजनः। असुत --शेषं स्याद्भोजनं हविषा समम्।। | 12-249-12a 12-249-12b |
भृत्यशेष तु योऽश्नाति तमाहुर्विघसा शिनम्। विघसं भृत्यशेषं तु यज्ञशेषमथास्मृतय।। | 12-249-13a 12-249-13b |
स्वदारनिरतो दान्तो ह्यनसूयुर्जितेन्द्रियः। ऋत्विक्पुरोहिताचार्यर्मालुलातिथिनंश्रितैः।। | 12-249-14a 12-249-14b |
वृद्धबालातुरैर्वैद्यैर्ज्ञातिसंबन्धिरान्धवैः। मातापितृभ्यां जामीभिर्भ्रात्रा पुत्रेण भावया।। | 12-249-15a 12-249-15b |
दुहित्रा दासवर्गेण विवादं न समाचरत्। एतान्विमुच्य संवादान्सर्वपापैर्विमुच्यते।। | 12-249-16a 12-249-16b |
एतैर्जितस्तु जयति सर्वाल्लोँकान्न संशयः। आचार्यो ब्रह्मलोकेशः प्राजापत्ये पिता प्रभुः।। | 12-249-17a 12-249-17b |
अतिथिस्त्विन्द्रलोकस्य देवलोकस्य चर्त्विजः। जामयोऽप्सरसां लोके वैश्वदेवे तु ज्ञातयः।। | 12-249-18a 12-249-18b |
संबन्धिबान्धवा दिक्षु पृथिव्यां मातृमातुलौ। बृद्धबावातुरकृशास्त्वाकाशे प्रभविष्णवः।। | 12-249-19a 12-249-19b |
भ्राता ज्येष्ठः समः पित्रा भार्या पुत्रः स्वका तनुः। छाया स्वा दासवर्गश्च दुहिता कृपणं परम्।। | 12-249-20a 12-249-20b |
तस्मादेतैरधिक्षिप्तः सहेन्नित्यमसंज्वरः। गृहधर्मरतो विद्वान्धर्मनित्यो जितक्लमः।। | 12-249-21a 12-249-21b |
न चार्थबद्धः कर्माणि धर्मं वा किंचिदाचरेत्। गृहस्थवृत्तयस्तिस्रस्तासां निःश्रेयसं परम्।। | 12-249-22a 12-249-22b |
परंपरं तथैवाहुश्चातुराश्रम्यमेव तत्। ये चोक्ता नियमास्तेषां सर्वं कार्यं बुभूषता।। | 12-249-23a 12-249-23b |
कुम्भधान्यैरुच्छशिलैः कापोतीं चास्थितास्तथा। यस्मिंश्चैते वसन्त्यर्हास्तद्राष्ट्रमभिवर्धते।। | 12-249-24a 12-249-24b |
दश पूर्वान्दश परान्पुनाति च पितामहान्। गृहस्थवृत्तीश्चाप्येता वर्तयेद्यो गतव्यथः।। | 12-249-25a 12-249-25b |
स चक्रधरलोकानां सदृशीमाप्नुयाद्गतिम्। वितेन्द्रियाणामथवा गतिरेषा विधीयते।। | 12-249-26a 12-249-26b |
सर्वलोको गृहस्थानामुदारमनसां हितः। -- विमानसंयुक्तो वेददृष्टः -----।। | 12-249-27a 12-249-27b |
--लोको गृहस्थानां प्रतिष्ठा निवतात्मनान्। ब्रह्मणा विहिता श्रेणिरेषा पस्पाद्विधीयते। द्वितीयं क्रमशः प्राप्य स्वर्गलोके महीयते।। | 12-249-28a 12-249-28b 12-249-28c |
अतः परं परममुदारमाश्रम् तृतीयमाहुस्त्यजतां कलेवरम्। वनौकसां गृहपतिनामनुत्तमं शृणुष्व संश्लिष्टशरीरकारिणाम्।। | 12-249-29a 12-249-29b 12-249-29c 12-249-29d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि एकोनपञ्चाशदधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 249।। |
12-249-2 वृत्तयो जीविकाः।। 12-249-3 कापोतीमुञ्छवृत्तिम्।। 12-249-4 षट् यजनयाजनाध्ययनाध्यापनदानप्रतिग्रहाः कर्म तस्य एको गृहस्थाः त्रिभिर्यजनाध्ययनदानैः। अन्यो वानप्रस्थः द्वाभ्यां दानाध्ययनाभ्याम्। ब्रह्मसत्रे प्रणवोपास्तौ।। 12-249-5 अत्र गार्हस्थ्ये।। 12-249-6 प्राणी छागादिः। अप्राणी अश्वत्यादिः। यजुषा छेदनमन्त्रेणैव क्रत्वर्थमेव संस्कारमर्हति नतु भक्षणमात्रार्थम्।। 12-249-7 अन्तरा भोजनद्वयमध्ये। स्त्रियं मैथुनायेति शेषः।। 12-249-10 नखरैर्नखैः। दम्भार्थं नखलोमधरस्य। अपविद्धमविधिना त्यक्तमग्निहोत्रं येन तस्य। एवंविधानां चाण्डालादीनां च भूतानामत्र गार्हस्थ्ये संविभागोऽस्ति।। 12-249-11 अपचमानेभ्यो ब्रह्मचारिसंन्यासिभ्यः। तथैव याचमानेभ्य इति ध. पाठः।। 12-249-15 जामीभिः सगोत्रस्त्रीभिः।। 12-249-16 संवादानंशाद्यर्थं कलहान्।। 12-249-17 आचार्यादयः सम्यगाराधिता ब्रह्मलोकादीन् प्रति नयन्तीत्याहाचार्य इति सार्धाभ्याम्।। 12-249-20 कृपणं कृपास्थानमिति रत्नगर्भः।। 12-249-22 नचेति। अर्थाशयाऽग्निहोत्रादीन्न कुर्यात्। तिस्रो वक्ष्यमाणाः कुम्भधान्यमुञ्छशिलं कापोतीं च तासां परमुत्तरमुत्तरं श्रेयः।। 12-249-23 चातुराश्रम्यमध्येऽपि परं परं श्रेयः।। 12-249-26 चक्रधराश्चक्रवर्तिनो मान्धात्रादयस्तल्लोकानां सदृशीं गतिं तत्तुल्यताम्।। 12-249-27 सुपुष्पितो रमणीयः।। 12-249-29 गृहपतिनां हस्वत्वमार्षम्। गृहस्थेभ्यः श्रेष्ठं संश्लिष्टमस्थिचर्ममात्रसंश्लेषवत् तच्च तच्छरीरं च तस्य कारिणां शरीरशोषकाणामित्यर्थः। शरीरकर्मणामिति ध. पाठः।।
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