महाभारतम्-12-शांतिपर्व-014
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युधिष्ठिरंप्रति द्रौपदीवचनम्।। 1।।
वैशंपायन उवाच। | 12-14-1x |
अव्याहरति कौन्तेये धर्मराजे युधिष्ठिरे। भ्रातृणां ब्रुवतां तांस्तान्विविधान्वेदनिश्चयान्।। | 12-14-1a 12-14-1b |
महाभिजनसंपन्ना श्रीमत्यायतलोचना। अभ्यभाषत राजानं द्रौपदी योषितां वरा।। | 12-14-2a 12-14-2b |
आसीनमृषभं राज्ञां भ्रातृभिः परिवारितम्। सिंहशार्दूलसदृशैर्वारणैरिव यूथपम्।। | 12-14-3a 12-14-3b |
अभिमानवती नित्यं विशेषेण युधिष्ठिरे। लालिता सततं राज्ञा धर्माधर्मनिदर्शिनी।। | 12-14-4a 12-14-4b |
आमन्त्रयित्वा सुश्रोणी साम्ना परमवल्गुना। भर्तारमभिसंप्रेक्ष्य ततो वचनमब्रवीत्।। | 12-14-5a 12-14-5b |
द्रौपद्युवाच। | 12-14-6x |
इमे ते भ्रातरः पार्थ शुष्यन्ते स्तोकका इव। वावाश्यमानास्तिष्ठन्ति न चैनानभिनन्दसे।। | 12-14-6a 12-14-6b |
नन्दयैतान्महाराज मत्तानिव महाद्विपान्। उपपन्नेन वाक्येन सततं दुःखभागिनः।। | 12-14-7a 12-14-7b |
कथं द्वैतवने राजन्पूर्वमुक्त्वा तथा वचः। भ्रातॄनेतान्स्म सहिताञ्शीतवातातपार्दितान्।। | 12-14-8a 12-14-8b |
वयं दुर्योधनं हत्वा मृधे भोक्ष्याम मेदिनीम्। संपूर्णां सर्वकामानामाहवे विजयैषिणः।। | 12-14-9a 12-14-9b |
नृवीरांश्च रथान्हत्वा निहत्य च महागजान्। संस्तीर्य च रथैर्भूमिं ससादिभिररिंदमाः।। | 12-14-10a 12-14-10b |
यजेभ विविधैर्यज्ञैः समृद्धैराप्तदक्षिणैः। वनवासकृतं दुःखं भविष्यति सुखाय नः।। | 12-14-11a 12-14-11b |
इत्येतानेवमुक्त्वा त्वं स्वयं धर्मभृतां वर। कथमद्य पुनर्वीर विनिहंसि मनांसि नः।। | 12-14-12a 12-14-12b |
न क्लीबो वसुधां भुङ्क्ते न क्लीबो धनमश्नुते। न क्लीबस्य गृहे पुत्रा मत्स्याः पङ्क इवासते।। | 12-14-13a 12-14-13b |
नादण्डः क्षत्रियो भाति नादण्डो भूमिमश्नुते। नादण्डस्य प्रजा राज्ञः सुखं विन्दन्ति भारत।। | 12-14-14a 12-14-14b |
`सदेवासुरगन्घर्वैरप्सरोभिर्विभूषितम्। रक्षोभिर्गुह्यकैर्नागैर्मनुष्यैश्च विभूषितम्।। | 12-14-15a 12-14-15b |
त्रिवर्गेण च संपूर्णं त्रिवर्गस्यागमेन च। दण्डेनाभ्याहृतं सर्वं जगद्भोगाय कल्पते।। | 12-14-16a 12-14-16b |
स्वायंभुवं महीपाल आगमं शृणु शाश्वतम्। विप्राणां विदितश्चायं तव चैव विशांपते।। | 12-14-17a 12-14-17b |
अराजके हि लोकेऽस्मिन्सर्वतो विद्रुते भयात्। रक्षार्थमस्य लोकस्य राजानमसृजत्प्रभुः। महाकायं महावीर्यं पालने जगतः क्षमम्।। | 12-14-18a 12-14-18b 12-14-18c |
अनिलाग्नियमार्काणामिन्द्रस्य वरुणस्य च। चन्द्रवित्तेशयोश्चैव मात्रा निर्हृत्य शाश्वतीः।। | 12-14-19a 12-14-19b |
यस्मादेषां सुरेन्द्राणां संभवत्यंशतो नृपः। तस्मादभिभवत्येष सर्वभूतानि तेजसा।। | 12-14-20a 12-14-20b |
तपत्यादित्यवच्चैव चक्षूंषि च मनांसि च। च चैनं भुवि शक्नोति कश्चिदप्यभिवीक्षितुम्।। | 12-14-21a 12-14-21b |
सोऽग्निर्भवति वायुश्च सोऽर्कः सोमश्च धर्मराट्। स कुबेरः स वरुणः स महेन्द्रः प्रतापवान्।। | 12-14-22a 12-14-22b |
पितामहस्य देवस्य विष्णोः शर्वस्य चैव हि। ऋषीणां चैव सर्वेषां तस्मिंस्तेजः प्रतिष्ठितम्।। | 12-14-23a 12-14-23b |
बालोऽपि नावमन्तव्यो मनुष्य इति भूमिपः। महती देवता ह्येषा नररूपेण तिष्ठति।। | 12-14-24a 12-14-24b |
एकमेव दहत्यग्निर्नरं दुरुपसर्पिणम्। कुलं दहति राजाग्निः सपशुद्रव्यसंचयम्।। | 12-14-25a 12-14-25b |
धृतराष्ट्रकुलं दग्धं क्रोधोद्भूतेन वह्निना। प्रत्यक्षमेतल्लोकस्य संशयो हि न विद्यते।। | 12-14-26a 12-14-26b |
कुलजो वृत्तसंपन्नो धार्मिकश्च महीपतिः। प्रजानां पालने युक्तः पूज्यते दैवतैरपि।। | 12-14-27a 12-14-27b |
कार्यं योऽवेक्ष्य शक्तिं च देशकालौ च तत्वतः। कुरुते धर्मसिद्ध्यर्थं वैश्वरूप्यं पुनः पुनः।। | 12-14-28a 12-14-28b |
तस्य प्रसादे पद्मा श्रीर्विजयश्च पराक्रमे। मृत्युश्च वसति क्रोधे सर्वतेजोमयो हि सः।। | 12-14-29a 12-14-29b |
तं यस्तु द्वेष्टि संमोहात्स विनश्यति मानवः। तस्य ह्याशुविनाशाय राजाऽपि कुरुते मनः।। | 12-14-30a 12-14-30b |
तस्माद्धर्मं यदिष्टेषु स व्यवस्यति पार्थिवः। अनिष्टं चाप्यनिष्टेषु तद्धर्मं न विचालयेत्।। | 12-14-31a 12-14-31b |
तस्यार्थे सर्वभूतानां गोप्तारं धर्ममात्मजम्।। ब्रह्मतेजोमयं दण्डमसृजत्पूर्वमीश्वरः।। | 12-14-32a 12-14-32b |
तस्य सर्वाणि भूतानि स्थावराणि चराणि च। भयाद्भोगाय कल्पन्ते धर्मान्न विचलन्ति च।। | 12-14-33a 12-14-33b |
देशकालौ च शक्तिं च कार्यं चावेक्ष्य तत्वतः। यथार्हतः संप्रणयेन्नरेष्वन्यायवर्तिषु।। | 12-14-34a 12-14-34b |
स राजा पुरुषो दण्डः स नेता शासिता च सः। वर्णानामाश्रमाणां च धर्मप्रभुरथाव्ययः।। | 12-14-35a 12-14-35b |
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति। दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः।। | 12-14-36a 12-14-36b |
सुसमीक्ष्य धृतो दण्डः सर्वा रञ्जयति प्रजाः। असमीक्ष्य प्रणीतस्तु विनाशयति सर्वशः।। | 12-14-37a 12-14-37b |
यदि न प्रणयेद्राजा दण्डं दण्ड्येष्वतन्द्रितः। जले मत्स्यानिवाभक्ष्यन्दुर्बलान्बलवत्तराः।। | 12-14-38a 12-14-38b |
काकोऽद्याच्च पुरोडाशं श्वा चैवावलिहेद्धविः। स्वामित्वं न क्वचिच्च स्यात्प्रपद्येताधरोत्तरम्।। | 12-14-39a 12-14-39b |
सर्वो दण्डजितो लोको दुर्लभस्तु शुचिर्नरः। दण्डस्य हि भयात्सर्वं जगद्भोगाय कल्पते।। | 12-14-40a 12-14-40b |
देवदानवगन्धर्वा रक्षांसि पतगोरगाः। तेऽपि भोगाय कल्पन्ते दण्डेनैवाभिपीडिताः।। | 12-14-41a 12-14-41b |
दूष्येयुः सर्ववर्णाश्च भिद्येरन्सर्वसेतवः। सर्वलोकप्रकोपश्च भवेद्दण्डस्य विभ्रमात्।। | 12-14-42a 12-14-42b |
यत्र श्यामो लोहिताक्षो दण्डश्चरति पापहा। प्रजास्तत्र न मुह्यन्ति नेता चेत्साधु पश्यति।। | 12-14-43a 12-14-43b |
आहुस्तस्य प्रणेतारं राजानं सत्यवादिनम्। समीक्ष्यकारिणं प्राज्ञं धर्मकामार्थकोविदम्।। | 12-14-44a 12-14-44b |
तं राजा प्रणयन्सम्यक्स्वर्गायाभिप्रवर्तते। कामात्मविषयी क्षुद्रो दण्डेनैव निहन्यते।। | 12-14-45a 12-14-45b |
दण्डो हि सुमहातेजा दुर्धरश्चाकृतात्मभिः। धर्माद्विचलितं हन्ति नृपमेव सबान्धवम्।। | 12-14-46a 12-14-46b |
ततो दुर्गं च राष्ट्रं च लोकं च सचराचरम्। अन्तरिक्षगतांश्चैव मुनीन्देवांश्च हिंसति।। | 12-14-47a 12-14-47b |
सोऽसहायेन मूढेन लुब्धेनाकृतबुद्धिना। अशक्यो न्यायतो नेतुं विषयांश्चैव सेवता।। | 12-14-48a 12-14-48b |
शुचिना सत्यसन्धेन नीतिशास्त्रानुसारिणा। दण्डः प्रणेतुं शक्यो हि सुसहायेन धीमता।। | 12-14-49a 12-14-49b |
स्वराष्ट्रे न्यायवर्ती स्याद्भृशदण्डश्च शत्रुषु। सुहृत्स्वजिह्मः स्निग्धेषु ब्राह्मणेषु क्षमान्वितः।। | 12-14-50a 12-14-50b |
एवंवृत्तस्य राज्ञस्तु शिलोञ्छेनापि जीवतः। विस्तीर्येत यशो लोके तैलबिन्दुरिवाम्भसि।। | 12-14-51a 12-14-51b |
अतस्तु विपरीतस्य नृपतेरकृतात्मनः। संक्षिप्येन यशो लोके घृतबिन्दुरिवाम्भसि।। | 12-14-52a 12-14-52b |
देवदेवेन रुद्रेण ब्रह्मणा च महीपते। विष्णुना चैव देवेन शक्रेण च महात्मना।। | 12-14-53a 12-14-53b |
लोकपालैश्च भूतैश्च पाण्डवैश्च महात्मभिः। धर्माद्विचलिता राजन्धार्तराष्ट्रा निपातिताः। अधार्मिका दुराचाराः ससैन्या विनिपातिताः।। | 12-14-54a 12-14-54b 12-14-54c |
तान्निहत्य न दोषस्ते स्वल्पोऽपि जगतीपते। छलेन मायया वाऽथ क्षत्रधर्मेण वा नृप।।' | 12-14-55a 12-14-55b |
मित्रता सर्वभूतेषु दानमध्ययनं तपः। ब्राह्मणस्यैव धर्मः स्यान्न राज्ञो राजसत्तम।। | 12-14-56a 12-14-56b |
असतां प्रतिषेधश्च सतां च परिपालनम्। एष राज्ञां परो धर्मः समरे चापलायनम्।। | 12-14-57a 12-14-57b |
यस्मिन्क्षमा च क्रोधश्च दानादाने भयाभये। निग्रहानुग्रहौ चोभौ स वै धर्मविदुच्यते।। | 12-14-58a 12-14-58b |
न श्रुतेन न दानेन न सांत्वेन न चेज्यया। त्वयेयं पृथिवी लब्धा न संकोचेन चाप्युत।। | 12-14-59a 12-14-59b |
यत्तद्बलममित्राणां तथा वीरसमुद्यतम्। हस्त्यश्वरथसंपन्नं त्रिभिरङ्गैरनुत्तमम्।। | 12-14-60a 12-14-60b |
रक्षितं द्रोणकर्णाभ्यामश्वत्थाम्ना कृपेण च। तत्त्वया निहतं वीर तस्माद्भुङ्क्ष्व वसुंधराम्।। | 12-14-61a 12-14-61b |
जम्बूद्वीपो महाराज नानाजनपदैर्युतः। त्वया पुरुषशार्दूल दण्डेन मृदितः प्रभो।। | 12-14-62a 12-14-62b |
जम्बूद्वीपेन सदृशः क्रौञ्चद्वीपो नराधिप। अपरेण महामेरोर्दण्डेन मृदितस्त्वया।। | 12-14-63a 12-14-63b |
क्रौञ्चद्वीपेन सदृशः शाकद्वीपो नराधिप। पूर्वेण तु महामेरोर्दण्डेन मृदितस्त्वया।। | 12-14-64a 12-14-64b |
उत्तरेण महामेरोः शाकद्वीपेन संमितः। भद्राश्वः पुरुषव्याघ्र दण्डेन मृदितस्त्वया।। | 12-14-65a 12-14-65b |
द्वीपाश्च सान्तरद्वीपा नानाजनपदाश्रयाः। विगाह्य सागरं वीर दण्डेन मृदितास्त्वया।। | 12-14-66a 12-14-66b |
एतान्यप्रतिमेयानि कृत्वा कर्माणि भारत। न प्रीयसे महाराज पूज्यमानो द्विजातिभिः।। | 12-14-67a 12-14-67b |
स त्वं भ्रातॄनिमान्दृष्ट्वा प्रतिनन्दस्व भारत। ऋषभानिव संमत्तान्गजेन्द्रान्गर्जितानिव।। | 12-14-68a 12-14-68b |
अमरप्रतिमाः सर्वे शत्रुसाहाः परंतपाः। एकैकोऽपि सुखायैषां मम स्यादिति मे मतिः।। | 12-14-69a 12-14-69b |
किं पुनः पुरुषव्याघ्राः पतयो मे नरर्षभाः। समस्तानीन्द्रियाणीव शरीरस्य विचेष्टने।। | 12-14-70a 12-14-70b |
अनृतं नाब्रवीच्छ्वश्रूः सर्वज्ञा सर्वदर्शिनी। युधिष्ठिरस्त्वां पाञ्चालि सुखे धास्यत्यनुत्तमे।। | 12-14-71a 12-14-71b |
इत्वा राजसहस्राणि बहून्याशुपराक्रमः। तद्व्यर्थं संप्रपश्यामि मोहात्तव जनाधिप।। | 12-14-72a 12-14-72b |
येषामुन्मत्तको ज्येष्ठः सर्वे तेऽप्यनुसारिणः। तवोन्मादान्महाराजसोन्मादाः सर्वपाण्डवाः।। | 12-14-73a 12-14-73b |
यदि हि स्युरनुन्मत्ता भ्रातरस्ते नराधिप। बद्ध्वा त्वां नास्तिकैः सार्धं प्रशासेयुर्वसुंधराम्।। | 12-14-74a 12-14-74b |
कुरुते मूढ एवं हि यः श्रेयो नाधिगच्छति। धूपैरञ्जनयोगैश्च नस्यकर्मभिरेव च।। | 12-14-75a 12-14-75b |
`उन्मत्तिरपनेतव्या तव राजन्यदृच्छया।' भेषजैः स चिकित्स्यः स्याद्य उन्मार्गेण गच्छति।। | 12-14-76a 12-14-76b |
साहं सर्वाधमा लोके स्त्रीणां भरतसत्तम। तथा विनिकृता पुत्रैर्याऽहमिच्छामि जीवितुम्।। | 12-14-77a 12-14-77b |
धृतराष्ट्रसुता राजन्नित्यमुत्पथगामिनः। तादृशानां वधे दोषं नाहं पश्यामि कर्हिचित्।। | 12-14-78a 12-14-78b |
इमांश्चोशनसा गीताञ्श्लोकाञ्श्रृणु नराधिप।। | 12-14-79a |
आत्महन्ताऽर्थहन्ता च बन्धुहन्ता विषप्रदः। अकारणेन हन्ता च यश्च भार्यां परामृशेत्।। | 12-14-80a 12-14-80b |
निर्दोषं वधमेतेषां षण्णामप्याततायिनाम्। ब्रह्मा प्रोवाच भगवान्भार्गवाय महात्मने।। | 12-14-81a 12-14-81b |
ब्रह्मक्षत्रविशां राजन्सत्पथे वर्तिनामपि। प्रसह्यागारमागम्य हन्तारं गरदं तथा।। | 12-14-82a 12-14-82b |
अभक्ष्यापेयदातारमग्निदं च निशातयेत्। मार्ग एष महीपानां गोब्राह्मणवधेषु च।। | 12-14-83a 12-14-83b |
केशग्रहे च नारीणामपि युध्येत्पितामहम्। ब्रह्माणं देवदेवेशं किं पुनः पापकारिणम्।। | 12-14-84a 12-14-84b |
गोब्राह्मणार्थे व्यसने च राज्ञां राष्ट्रोपमर्दे स्वशरीरहेतोः। स्त्रीणां च विक्रुष्टरुतानि श्रुत्वा विप्रोऽपि युध्येत महाप्रभावः।। | 12-14-85a 12-14-85b |
धर्माद्विचलितं विप्रं निहन्यादाततायिनम्। तस्यान्यत्र वधं विद्वान्मनसाऽपि न चिन्तयेत्।। | 12-14-86a 12-14-86b |
गोब्राह्मणवधे वृत्तं मन्त्रत्राणार्थमेव च। निहन्यात्क्षत्रियो विप्रं स्वकुटुम्बस्य चाप्तये।। | 12-14-87a 12-14-87b |
तस्करेण नृशंसेन धर्मात्प्रचलितेन च। क्षत्रबन्धुः परं शक्त्या युध्येद्विप्रेण संयुगे।। | 12-14-88a 12-14-88b |
आततायिनमायान्तमपि वेदान्तपारगम्। जिघांसन्तं जिघांसीयान्न तेन भ्रूणहा भवेत्।। | 12-14-89a 12-14-89b |
ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यः शूद्रो वाऽप्यन्त्यजोपि वा। न हन्याद्ब्राह्मणं शान्तं तृणेनापि कदाचन।। | 12-14-90a 12-14-90b |
ब्राह्मणायावगुर्याद्यः स्पृष्ट्वा गुरुतरं महत्। वर्षाणां त्रिशतं पापः प्रतिष्ठां नाधिगच्छति।। | 12-14-91a 12-14-91b |
सहस्राणि च वर्षाणि निहत्य नरके पतेत्। तस्मान्नैवावगुर्याद्धि नैव शस्त्रं निपातयेत्।। | 12-14-92a 12-14-92b |
शोणितं यावतः पांसून्गृह्णातीति हि धारणा। तावतीः स समाः पापो नरके परिवर्तते।। | 12-14-93a 12-14-93b |
त्वगस्थिभेदं विप्रस्य यः कुर्यात्कारयेत वा। ब्रह्महा स तु विज्ञेयः प्रायश्चित्ती नराधमः।। | 12-14-94a 12-14-94b |
श्रोत्रियं ब्राह्मणं हत्वा तथाऽऽत्रेयीं च ब्राह्मणीम्। चतुर्विशतिवर्षाणि चरेद्ब्रह्महणो व्रतम्।। | 12-14-95a 12-14-95b |
द्विगुणां ब्रह्महत्येयं सर्वैः प्रोक्ता महर्षिभिः। प्रायश्चित्तमकुर्वाणं कृताङ्कं विप्रवासयेत्।। | 12-14-96a 12-14-96b |
ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं वा घातयेन्नृपः। ब्रह्मघ्नं तस्करं चैव माभूदेवं चरिष्यति।। | 12-14-97a 12-14-97b |
छित्त्वा हस्तौ च पादौ च नासिकोष्ठौ च भूपतिः। ब्रह्मघ्नं चोत्तमं पापं नेत्रोद्धारेण योजयेत्।। | 12-14-98a 12-14-98b |
शूद्रस्यैव स्मृतो दण्डस्तद्वद्राजन्यवैश्ययोः। प्रायश्चित्तमकुर्वाणं ब्राह्मणं तु प्रवासयेत्।। | 12-14-99a 12-14-99b |
क्षत्रियं वैश्यशूद्रौ च शस्त्रेणैव च घातयेत्। ब्रह्मघ्नान्ब्राह्मणात्राजा कृताङ्कान्विप्रवासयेत्।। | 12-14-100a 12-14-100b |
विकलेन्द्रियांस्त्रिवर्णांश्च चण्डालैः सह वासयेत्। तैश्च यः संपिबेत्कश्चित्स पिबन्ब्रह्महा भवेत्।। | 12-14-101a 12-14-101b |
प्रेतानां न च देयानि पिण्डदानानि केनचित्।। | 12-14-102a |
कृष्णवर्णा विरूपा च निर्णीता लम्बमूर्धजा। दुनोत्यदृष्ट्वा कर्तारं ब्रह्महत्येति तां विदुः।। | 12-14-103a 12-14-103b |
ब्रह्मघ्नेन पिबन्तश्च विप्रा देशाः पुराणि च। अचिरादेव पीड्यन्ते दुर्भिक्षव्याधितस्करैः।। | 12-14-104a 12-14-104b |
ब्राह्मणं पापकर्माणं विप्राणामाततायिनम्। क्षत्रियं वैश्यशूद्रौ च नेत्रोद्धारेण योजयेत्।। | 12-14-105a 12-14-105b |
दुर्बलानां बलं राजा बलिनो ये च साधवः। बलिनां दुर्बलानां च पापानां मृत्त्युरिष्यते।। | 12-14-106a 12-14-106b |
सदोषमपि यो हन्यादश्राव्य जगतीपते। दुर्बलं बलवन्तं वा स पराजयमर्हति।। | 12-14-107a 12-14-107b |
राजाज्ञां प्राड्विवाकं च नेच्छेद्यच्चापि निष्पतेत्। साक्षिणं साधुवाक्यं च जितं तमपि निर्दिशेत्।। | 12-14-108a 12-14-108b |
बन्धनान्निष्पतेद्यच्च प्रतिभूर्न ददाति च। कुलजश्च धनाढ्यश्च स पराजयमर्हति।। | 12-14-109a 12-14-109b |
राजाज्ञया समाहूतो यो न गच्छेत्सभां नरः। बलवन्तमुपाश्रित्य सायुधः स पराजितः।। | 12-14-110a 12-14-110b |
तं दण्डेन विनिर्जित्य महासाहसिकं नरम्। वियुक्तदेहसर्वस्वं परलोकं विसर्जयेत्।। | 12-14-111a 12-14-111b |
मृतस्यापि न देयानि पिण्डदानानि केनचित्। दत्त्वा दण्डं प्रयच्छेत मध्यमं पूर्वसाहयम्।। | 12-14-112a 12-14-112b |
कुलस्त्रीव्यभिचारं च राष्ट्रस्य च विमर्दनम्। ब्रह्महत्यां च चौर्यं च राजद्रोहं च पञ्चमम्।। | 12-14-113a 12-14-113b |
युद्धादन्यत्र हिंसायां सुरापस्य च कीर्तने। महान्तं गुरुतल्पे च मित्रद्रोहे च पातकम्।। | 12-14-114a 12-14-114b |
न कथंचिदुपेक्षेत महासाहसिकं नरम्। सर्वस्वमपहृत्याशु ततः प्राणैर्वियोजयेत्।। | 12-14-115a 12-14-115b |
त्रिषु वर्णेषु यो दण्डः प्रणीतो ब्रह्मणा पुरा। महासाहसिकं विप्रं कृताङ्कं विप्रवासयेत्।। | 12-14-116a 12-14-116b |
साहस्रो वा भवेद्दण्डः काञ्चनो देहनिष्क्रिया। चतुर्णामपि वर्णानामेवमाहोशना कविः।। | 12-14-117a 12-14-117b |
नारीणां बालवृद्धानां गोपतेश्च महामतिः। पापानां दुर्विनीतानां प्राणान्तं च बृहस्पतिः। दण्डमाह महाभाग सर्वेषामाततायिनाम्।। | 12-14-118a 12-14-118b 12-14-118c |
सर्वेषां पापबुद्धीनां पापकर्मैव क्वुर्वताम्। धृतराष्ट्रस्य पुत्राणां दण्डो निर्दोष इष्यते। सौबलस्य च दुर्बुद्धेः कर्णस्य च दुरात्मनः।। | 12-14-119a 12-14-119b 12-14-119c |
पश्यतां चैव शूराणां याऽहं द्यूते सभां तदा। रजस्वला समानीता भवतां पश्यतां नृप। वाससैकेन संवीता तव दोषेण भूपते।। | 12-14-120a 12-14-120b 12-14-120c |
माभूद्धर्मविलोपस्ते धृतराष्ट्रकुलक्षयात्। क्रोधाग्निना तु दग्धं च सपशुद्रव्यसंचयम्।। | 12-14-121a 12-14-121b |
साऽहमेवंविधं दुःखं संप्राप्ता तव हेतुना। आदित्यस्य प्रसादेन न च प्राणैर्वियोजिता।। | 12-14-122a 12-14-122b |
रक्षिता देवदेवेन जगतः कालहेतुना। दिवाकरेण देवेन विवस्त्रा न कृता तदा'।। | 12-14-123a 12-14-123b |
एतेषां यतमानानां न मेऽद्य वचनं मृषा। त्वं तु सर्वां महीं त्यक्त्वा कुरुषे स्वयमापदम्।। | 12-14-124a 12-14-124b |
यथाऽऽस्तां संमतौ राज्ञां पृथिव्यां राजसत्तम्। मांधाता चाम्बरीषश्च तथा राजन्विराजसे।। | 12-14-125a 12-14-125b |
प्रशाधि पृथिवीं देवीं प्रजा धर्मेण पालयन्। सपर्वतवनद्वीपां मा राजन्विमना भव।। | 12-14-126a 12-14-126b |
यजस्व विविधैर्यज्ञैर्युध्यस्वारीन्प्रयच्छ च। धनानि भोगान्वासांसि द्विजातिभ्यो नृपोत्तम।। | 12-14-127a 12-14-127b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि चतुर्दशोऽध्यायः।। 14।। |
12-14-6 स्तोककाश्चातका वावाश्यमानाः पुनः पुनः क्रन्दन्तः।। 12-14-7 उपपन्नेन युक्तियुक्तेन।। 12-14-9 सर्वकामानां सर्वैरर्थैः।। 12-14-13 क्लीबोऽधीरः। अविपाला इवासत इति. ट. ड. पाठः। वत्सपाला इवासत इति थ. पाठः।। 12-14-57 प्रतिषेधो दण्डो राज्यान्निर्वासनं वा।। 12-14-58 दानं आदानं च ते।। 12-14-59 संकोचेन याञ्चया।। 12-14-63 अपरेण पश्चिमतः 12-14-64 क्रौञ्चद्वीपादिवशीकरणं सिद्धद्वारा राजसूये।। 12-14-73 सर्वे तेप्यवमानिता इति ट. ड. द. पठः।। 12-14-75 नस्यकर्म नासाद्वारा भेषजग्रहणम्।।
शांतिपर्व-013 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-015 |