महाभारतम्-12-शांतिपर्व-178
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति इतरनिपेधपूर्वकं प्रज्ञायाः सुखसाधनतायां प्रमाणतया सृगालकाश्यपसंवादानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-178-1x |
बान्धवाः कर्म वित्तं वा प्रज्ञा वेह पितामह। नरस्य का प्रतिष्ठा स्यादेतत्पृष्टो वदस्व मे।। | 12-178-1a 12-178-1b |
भीष्म उवाच। | 12-178-2x |
प्रज्ञा प्रतिष्ठा भूतानां प्रज्ञा लाभः परो मतः। प्रज्ञा निःश्रेयसी लोके प्रज्ञा स्वर्गो मतः सताम्।। | 12-178-2a 12-178-2b |
प्रज्ञया प्रापितार्थो हि बलिरैश्वर्यसंक्षये। प्रह्लादो नमुचिर्मङ्किस्तस्याः किं विद्यते परम्।। | 12-178-3a 12-178-3b |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। इन्द्रकाश्यपसंवादं तन्निबोध युधिष्ठिर।। | 12-178-4a 12-178-4b |
वैश्यः कश्चिदृषिसुतं काश्यपं संशितव्रतम्। रथेन पातयामास श्रीमान्दृप्तस्तपस्विनम्।। | 12-178-5a 12-178-5b |
आर्तः स पतितः क्रुद्धस्त्यक्त्वाऽऽत्मानमथाब्रवीत्। मरिष्याम्यधनस्येह जीवितार्थो न विद्यते।। | 12-178-6a 12-178-6b |
तथा मुमूर्षमासीनमकूजन्तमचेतसम्। इन्द्रः सृगालरूपेण बभाषे क्षुब्धमानसम्।। | 12-178-7a 12-178-7b |
मनुष्ययोनिमिच्छन्ति सर्वभूतानि सर्वशः। मनुष्यत्वे च विप्रत्वं सर्व एवाभिनन्दति।। | 12-178-8a 12-178-8b |
मनुष्यो ब्राह्मणश्चासि श्रोत्रियश्चासि काश्यप। सुदुर्लभमवाप्यैतन्न दोषान्मर्तुमर्हसि।। | 12-178-9a 12-178-9b |
सर्वे लाभाः साभिमाना इति सत्यवती श्रुतिः। संतोषणीयरूपोऽसि लोभाद्यदभिमन्यसे।। | 12-178-10a 12-178-10b |
अहो सिद्धार्थता तेषां येषां सन्तीह पाणयः। [अतीव स्पृहये तेषां येषां सन्तीह पाणयः।।] | 12-178-11a 12-178-11b |
पाणिमद्भ्यः स्पृहाऽस्माकं यथा तव धनस्य वै। न पाणिलाभादधिको लाभः कश्चन विद्यते।। | 12-178-12a 12-178-12b |
अपाणित्वाद्वयं ब्रह्मन्कण्टकं नोद्धरामहे। जन्तूनुच्चावचानङ्गे दशतो न कषाम वा।। | 12-178-13a 12-178-13b |
अथ येषां पुनः पाणी देवदत्तौ दशाङ्गुली। उद्धरन्ति कृमीनङ्गाद्दशतो निकषन्ति च।। | 12-178-14a 12-178-14b |
वर्षाहिमातपानां च परित्राणानि कुर्वते। चेलमन्नं सुखं शय्यां निवातं चोपभुञ्जते।। | 12-178-15a 12-178-15b |
अधिष्ठाय च गां लोके भुञ्जते वाहयन्ति च। उपायैर्बहुभिश्चैव वश्यानात्मनि कुर्वते।। | 12-178-16a 12-178-16b |
ये खल्वजिह्वाः कृपणा अल्पप्राणा अपाणयः। सहन्ते तानि दुःखानि दिष्ट्या त्वं न तथा मुने।। | 12-178-17a 12-178-17b |
दिष्ट्या त्वं न शृगालो वै न कृमिर्न च मूषकः। न सर्पो न च मण्डूको न चान्यः पापयोनिजः।। | 12-178-18a 12-178-18b |
एतावताऽपि लाभेन तोष्टुमर्हसि काश्यप। किं पुनर्योसि सत्वानां सर्वेषां ब्राह्मणोत्तमः।। | 12-178-19a 12-178-19b |
इमे मां कृमयोऽदन्ति येषामुद्धरणाय वै। नास्ति शक्तिरपाणित्वात्पश्यावस्थामिमां मम।। | 12-178-20a 12-178-20b |
अकार्यमिति चैवेमं नात्मानं संत्यजाम्यहम्। नातः पापीयसीं योनिं पतेयमपरामिति।। | 12-178-21a 12-178-21b |
मध्ये वै पापयोनीनां सृगालीयामहं गतः। पापीयस्यो बहुतरा इतोऽन्याः पापयोनयः।। | 12-178-22a 12-178-22b |
जात्यैवैके सुखितराः सन्त्यन्ये भृशदुःखिताः। नैकान्तं सुखमेवेह क्वचित्पश्यामि कस्यचित्।। | 12-178-23a 12-178-23b |
मनुष्या ह्याढ्यतां प्राप्य राज्यमिच्छन्त्यनन्तरम्। राज्याद्देवत्वमिच्छन्ति देवत्वादिन्द्रतामपि।। | 12-178-24a 12-178-24b |
भवेस्त्वं यद्यपि त्वाढ्यो न राजा न च दैवतम्। देवत्वं प्राप्य चेन्द्रत्वं नैव तुष्येस्तथा सति।। | 12-178-25a 12-178-25b |
न तृप्तिः प्रियलाभेऽस्ति तृष्णा नाद्भिः प्रशाम्यति। संप्रज्वलति सा भूयः समिद्भिरिव पावकः।। | 12-178-26a 12-178-26b |
अस्त्येव त्वयि शोकोऽपि हर्षश्चापि तथा त्वयि। सुखदुःखे तथा चोभे तत्र का परिदेवना।। | 12-178-27a 12-178-27b |
परिच्छिद्यैव कामानां सर्वेषां चैव कर्मणाम्। मूलं बुद्धीन्द्रियग्रामं शकुन्तानिव पञ्जरे।। | 12-178-28a 12-178-28b |
न द्वितीयस्य शिरसश्छेदनं विद्यते क्वचित्। न च पाणेस्तृतीयस्य यन्नास्ति न ततो भयम्।। | 12-178-29a 12-178-29b |
न खल्वप्यरसज्ञस्य कामः क्वचन जायते। संस्पर्शाद्दर्शनाद्वापि श्रवणाद्वापि जायते।। | 12-178-30a 12-178-30b |
न त्वं स्मरसि वारुण्या लट्वाकानां च पक्षिणाम्। ताभ्यां चाभ्यधिको भक्ष्यो न कश्चिद्विद्यते क्वचित्।। | 12-178-31a 12-178-31b |
यानि चान्यानि भूतेषु भक्ष्यभोज्यानि काश्यप। येषामभुक्तपूर्वाणि तेषामस्मृतिरेव ते।। | 12-178-32a 12-178-32b |
अप्राशनमसंस्पर्शमसंदर्शनमेव च। पुरुषस्यैष नियमो मन्ये श्रेयो न संशयः।। | 12-178-33a 12-178-33b |
पाणिमन्तो बलवन्तो धनवन्तो न संशयः। मनुष्या मानुषैरेव दासत्वमुपपादिताः।। | 12-178-34a 12-178-34b |
वधबन्धपरिक्लेशैः क्लिश्यन्ते च पुनः पुनः। ते खल्वपि रमन्ते च मोदन्ते च हसन्ति च।। | 12-178-35a 12-178-35b |
अपरे बाहुबलिनः कृतविद्या मनस्विनः। जुगुप्सितां च कृपणां पापवृत्तिमुपासते।। | 12-178-36a 12-178-36b |
उत्सहन्ते च ते वृत्तिमन्यामप्युपसेवितुम्। स्वकर्मणा तु नियतं भवितव्यं तु तत्तथा।। | 12-178-37a 12-178-37b |
न पुल्कसो न चण्डाल आत्मानं त्यक्तुमिच्छति। तया तुष्टः स्वया योन्या मायां पश्यस्व यादृशीम्।। | 12-178-38a 12-178-38b |
दृष्ट्वा कुणीन्पक्षहतान्मनुष्यानामयाविनः। सुसंपूर्णः स्वया योन्या लब्धलाभोसि काश्यप।। | 12-178-39a 12-178-39b |
यदि ब्राह्मणदेहस्ते निरातङ्को निरामयः। अङ्गानि च समग्राणि न च लोकेषु धिक्कृतः।। | 12-178-40a 12-178-40b |
न केनचित्प्रवादेन सत्येनैवापहारिणा। धर्मायोत्तिष्ठ विप्रर्षे नात्मानं त्यक्तुमर्हसि।। | 12-178-41a 12-178-41b |
यदि ब्रह्मञ्शृणोष्येतच्छ्रद्दधासि च मे वचः। वेदोक्तस्यैव धर्मस्य फलं मुख्यमवाप्स्यसि।। | 12-178-42a 12-178-42b |
स्वाध्यायमग्निसंस्कारमप्रमत्तोऽनुपालय। सत्यं दमं च दानं च स्पर्धिष्ठा मा च केनचित्।। | 12-178-43a 12-178-43b |
ये केचन स्वध्ययनाः प्राप्ता यजनयाजनम्। कथं ते चानुशोचेयुर्ध्यायेयुर्वाऽप्यशोभनम्।। | 12-178-44a 12-178-44b |
इच्छन्तस्ते विहाराय सुखं महदवाप्नुयुः। येऽनुजाताः सुनक्षत्रे सुतिथौ सुमुहूर्तके। यज्ञदानप्रजेहायां यतन्ते शक्तिपूर्वकम्।। | 12-178-45a 12-178-45b 12-178-45c |
नक्षत्रेष्वासुरेष्वन्ये दुस्तिथौ दुर्मुहूर्तजाः। सम्पतन्त्यासुरीं योनिं यज्ञप्रसववर्जिताः।। | 12-178-46a 12-178-46b |
अहमासं पण्डितको हैतुको वेदनिन्दकः। आन्वीक्षिकीं तर्कविद्यामनुरक्तो निरर्थिकाम्।। | 12-178-47a 12-178-47b |
हेतुवादान्प्रवदिता वक्ता संसत्सु हेतुमत्। आक्रोष्टा चातिवक्ता च ब्रह्मवाक्येषु च द्विजान्।। | 12-178-48a 12-178-48b |
नास्तिकः सर्वशङ्की च मूर्खः पण्डितमानिकः। तस्येयं फलनिर्वृत्तिः सृगालत्वं मम द्विज।। | 12-178-49a 12-178-49b |
अपि जातु तथा तत्स्यादहोरात्रशतैरपि। यदहं मानुषीं योनिं सृगालः प्राप्नुयां पुनः।। | 12-178-50a 12-178-50b |
संतुष्टश्चाप्रमत्तश्च यज्ञदानतपोरतः। ज्ञेयं ज्ञाता भवेयं वै वर्ज्यं वर्जयिता तथा।। | 12-178-51a 12-178-51b |
भीष्म उवाच। | 12-178-52x |
ततः स मुनिरुत्थाय काश्यपस्तमुवाच ह। अहो बतामि कुशलो बुद्धिमांश्चेति विस्मितः।। | 12-178-52a 12-178-52b |
समवैक्षत तं विप्रो ज्ञानदीर्घेण चक्षुषा। ददर्श चैनं देवानां देवमिन्द्रं शचीपतिम्।। | 12-178-53a 12-178-53b |
ततः संपूजयामास काश्यपो हरिवाहनम्। अनुज्ञातस्तु तेनाथ प्रविवेश स्वमालयम्।। | 12-178-54a 12-178-54b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि अष्टसप्तत्यधिकशततमोऽध्यायः।। 178।। |
12-178-5 रथेन रथघातेन। वैश्यः कश्चिदृषिं दान्तं इति ट. पाठः।। 12-178-6 आत्मानं धैर्यं त्यक्त्वा।। 12-178-7 अकूजन्तं मूर्च्छया निःशब्दम्।। 12-178-9 श्रोत्रियोऽधीतदेवः। दोषात् मौढ्यात्।। 12-178-10 यत्संतोषणीयं रूपं त्वं स्वस्याऽभिमन्यसेऽवमन्यसे।। 12-178-13 न कषाम न नाशयाम्। 12-178-14 निकषन्ति कण्डूयनेन।। 12-178-16 अधिष्ठायाध्यास्य। गां पृथिवीम्। बलीवर्दादि वा। आत्मनि आत्मभोगनिमित्तम्।। 12-178-17 अल्पप्राणा अल्पबलाः।। 12-178-20 अदन्ति दशन्ति।। 12-178-23 एके देवाद्याः। अन्ये पश्वाद्याः।। 12-178-25 यदि कदाचिद्भवेस्तथापि न तुष्येरिति योज्यम्।। 12-178-28 कामादीनां मूलं बुद्धीन्द्रियग्रामं शकुन्तानिव शरीरपञ्चरे परिच्छिद्य निरुध्य स्थितस्य भयं नास्तीत्युत्तरेण संबन्धः।। 12-178-31 वारुण्या मद्यस्य लट्वाख्यपक्षिमासस्य च। कर्मणि षष्ठ्यौ। त्वं न स्मरसि ब्राह्मणत्वेन तव तद्रसग्रहाभावात्।। 12-178-32 येषां यान्यभुक्तपूर्वाणि।। 12-178-38 असंतुष्टः स्वया वृत्त्या मायां प्रेक्षस्व यादृशीन्। इति ट.ड.थ. पाठः।। 12-178-39 पक्षहतानर्धाङ्गवातादिना नष्टान्। आमयाविनोरोगाक्रान्तान्।। 12-178-41 प्रवादेन कलङ्केन। अपहारिणा जाविभ्रंशकरेण।। 12-178-45 विहाराय यथोचितेन यज्ञादिना विहर्तुम्।। 12-178-48 पण्डितकः कुत्सितः पण्डितः हेतुमदेव वक्ता न श्रुतिमत्। आक्रोष्टापरुषवाक्।। 12-178-49 सर्वशङ्की स्वर्गादृष्टादिसद्भावेऽपि शङ्कावान्।। 12-178-54 हरिवाहनमिन्द्रम्।।
शांतिपर्व-177 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-179 |