महाभारतम्-12-शांतिपर्व-029
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कृष्णेन युधिष्ठिरंप्रति नारदपर्वतोपाख्यानकथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-29-1x |
स कथं काञ्चनष्ठीवी सृञ्जयस्य सुतोऽभवत्। पर्वतेन किमथे वा दत्तस्तेन ममार च।। | 12-29-1a 12-29-1b |
यदा वर्षसहस्रायुस्तदा भवति मानवः। कथमप्राप्तकौमारः सृञ्जयस्य सुतो मृतः।। | 12-29-2a 12-29-2b |
उताहो नाममात्रं वै सुवर्णष्ठीविनोऽभवत्। कथं वा काञ्चनष्ठीवीत्येतदिच्छामि वेदितुम्।। | 12-29-3a 12-29-3b |
श्रीकृष्ण उवाच। | 12-29-4x |
अत्र ते वर्णयिष्यामि यथावृत्तं जनेश्वर। नारदः पर्वतश्चैव द्वावृवी लोकसत्तमौ।। | 12-29-4a 12-29-4b |
मातुलो भागिनेयश्च देवलोकादिहागतौ। विहर्तुकामौ संप्रीत्या मानुषेषु पुरा विभो।। | 12-29-5a 12-29-5b |
हविःपवित्रभोज्येन देवभोज्येन चैव हि। नारदो मातुलस्तत्र भागिनेयश्च पर्वतः।। | 12-29-6a 12-29-6b |
तावुभौ तपसोपेताववनीतलचारिणौ। भुञ्जानौ मानुषान्भोगान्यथावत्पर्यधावताम्।। | 12-29-7a 12-29-7b |
प्रीतिमन्तौ मुदा युक्तौ समयं चैव चक्रतुः। यो भवेद्धृदि संकल्पः शुभो वा यदि वाऽशुभः।। | 12-29-8a 12-29-8b |
अन्योन्यस्य च आख्येयो मृषा शापोऽन्यथा भवेत्। तौ तथेति प्रतिज्ञाय महर्षी लोकपूजितौ।। | 12-29-9a 12-29-9b |
सृञ्जयं श्वैत्यमभ्येत्य राजानमिदमूचतुः। आवां भवति वत्स्यावः कंचित्कालं हिताय ते।। | 12-29-10a 12-29-10b |
यथावत्पृथिवीपाल आवयोः प्रगुणीभव। तथेति कृत्वा राजा तौ सत्कृत्योपचचार ह।। | 12-29-11a 12-29-11b |
ततः कदाचित्तौ राजा महात्मानौ तपोधनौ। अब्रवीत्परमप्रीतः सुतेयं देवरूपिणी।। | 12-29-12a 12-29-12b |
एकैव मम कन्यैषा युवां परिचरिष्यति। दर्शनीयानवद्याङ्गी शीलवृत्तसमाहिता। सुकुमारी कुमारी च पझकिञ्जल्कसुप्रभा।। | 12-29-13a 12-29-13b 12-29-13c |
परमं सौम्यमित्युक्तं ताभ्यां राजा शशास ताम्। कन्ये विप्रावुपचर देववत्पितृवच्च ह।। | 12-29-14a 12-29-14b |
सा तु कन्या तथेत्युक्त्वा पितरं धर्मचारिणी। यथानिदेशं राज्ञस्तौ सत्कृत्योपचचार ह।। | 12-29-15a 12-29-15b |
तस्यास्तेनोपचारेण रूपेणाप्रतिमेन च। नारदं हृच्छयस्तूर्णं सहसैवाभ्यपद्यत।। | 12-29-16a 12-29-16b |
ववृधे हि ततस्तस्य हृदि कामो महात्मनः। यथा शुक्लस्य पक्षस्य प्रवृत्तौ चन्द्रमाः शनैः।। | 12-29-17a 12-29-17b |
न च तं भागिनेयाय पर्वताय महात्मने। शशंस मन्मथं तीव्रं व्रीडमानः स धर्मवित्।। | 12-29-18a 12-29-18b |
तपसा चेङ्गितैश्चैव पर्वतोऽथ बुबोध तम्। कामार्तं नारदं क्रुद्धः शशापैनं ततो भृशम्।। | 12-29-19a 12-29-19b |
कृत्वा समयमव्यग्रो भवान्वै सहितो मया। यो भवेद्धृदि संकल्पः शुभो वा यदि वाऽशुभः।। | 12-29-20a 12-29-20b |
अन्योन्यस्य स आख्येय इति तद्वै मृषा कृतम्। भवता वचनं ब्रह्मंस्तस्मादेष शपाम्यहम्।। | 12-29-21a 12-29-21b |
न हि कामं प्रवर्तन्तं भवानाचष्ट मे पुरा। सुकुमार्यां कुमार्यां ते तस्मान्नैष क्षमाम्यहम्।। | 12-29-22a 12-29-22b |
ब्रह्मचारी गुरुर्यस्मात्तपस्वी ब्राह्मणश्च सन्। अकार्षीः समयभ्रंशमावाभ्यां यः कृतो मिथः।। | 12-29-23a 12-29-23b |
शप्स्ये तस्मात्सुसंक्रुद्धो भवन्तं तं निबोध मे।। | 12-29-24a |
सुकुमारी च ते भार्या भविष्यति न संशयः। वानरत्वं च ते कन्या विवाहात्प्रभृति प्रभो। संद्रक्ष्यन्ति नराश्चान्ये स्वरूपेण विनाकृतम्।। | 12-29-25a 12-29-25b 12-29-25c |
स तद्वाक्यं तु विज्ञाय नारदः पर्वतं तथा। अशपत्तमपि क्रोधाद्भागिनेयं स मातुलः।। | 12-29-26a 12-29-26b |
तपसा ब्रह्मचर्येण सत्येन च दमेन च। युक्तोऽपि नित्यधर्मश्च न वै स्वर्गमवाप्स्यसि।। | 12-29-27a 12-29-27b |
तौ तु शावा भृशं क्रुद्धौ परस्परममर्षणौ। प्रतिजग्मतुहृन्योन्यं क्रुद्धाविव गजोत्तमौ।। | 12-29-28a 12-29-28b |
पर्वतः पृथिवीं कृत्स्नां विचचार महामतिः। पूज्यमानो यथान्यांयं तेजसा स्वेन भारत।। | 12-29-29a 12-29-29b |
अथ तामलभत्कन्यां नारदः सृञ्जयात्मजाम्। धर्मेण विप्रप्रवरः सुकुमारीमनिन्दिताम्।। | 12-29-30a 12-29-30b |
सा तु कन्या यथाशापं नारदं तं ददर्श ह। पाणिग्रहणमन्त्राणां नियोगादेव नारदम्।। | 12-29-31a 12-29-31b |
सुकुमारी च देवर्षि वानरप्रतिमाननम्। नैवावमन्यत तदा प्रीतिमत्येव चाभवत्।। | 12-29-32a 12-29-32b |
उपतस्थे च भर्तारं न चान्यं मनसाऽप्यगात्। देवं मुनीं वा यक्षं वा पतित्वे पतिवत्सला।। | 12-29-33a 12-29-33b |
ततः कदाचिद्भगवान्पर्वतोऽनुचचार ह। वनं विरहितं किंचित्तत्रापश्यत्स नारदम्।। | 12-29-34a 12-29-34b |
ततोऽभिवाद्य प्रोवाच नारदं पर्वतस्तदा। भवान्प्रसादं कुरुतात्स्वर्गादेशाय ये प्रभो।। | 12-29-35a 12-29-35b |
तमुवाच ततो दृष्ट्वा पर्वतं नारदस्तथा। कृताञ्जलिमुपासीनं दीनं दीनतरः स्वयम्।। | 12-29-36a 12-29-36b |
त्वयाऽहं प्रथमं शप्तो वानरस्त्वं भविष्यसि। इत्युक्तेन मया पश्चाच्छप्तस्तवमपि मत्सरात्।। | 12-29-37a 12-29-37b |
अद्यप्रभृति वै वासं स्वर्गे नावाप्स्यसीति ह। तव नैतद्विसदृशं पुत्रस्थाने हि मे भवान्।। | 12-29-38a 12-29-38b |
निवर्तयेतां तौ शापावन्योन्येन तदा मुनी।। | 12-29-39a |
श्रीसमृद्धं तदा दृष्ट्वा नारदं देवरूपिणम्। सुकुमारी प्रदुद्राव परपुंसविशङ्कया।। | 12-29-40a 12-29-40b |
तां पर्वतस्ततो दृष्ट्वा प्रद्रवन्तीमनिन्दिताम्। अब्रवीत्तव भर्तैष नात्र कार्या विचारणा।। | 12-29-41a 12-29-41b |
ऋषिः परमधर्मात्मा नारदो भगवान्प्रभुः। तवैवाभेद्यहृदयो मा ते भूदत्र संशयः।। | 12-29-42a 12-29-42b |
सानुनीता बहुविधं पर्वतेन महात्मना। शापदोषं च तं भर्तुः श्रुत्वा प्रकृतिमागता। पर्वतोऽथ ययौ स्वर्गं नारदोऽभ्यगमद्गृहान्।। | 12-29-43a 12-29-43b 12-29-43c |
वासुदेव उवाच। | 12-29-44x |
प्रत्यक्षकर्ता सर्वस्य नारदो भगवानृषिः। एष वक्ष्यति ते पृष्टो यथावृत्तं नरोत्तम।। | 12-29-44a 12-29-44b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि एकोनत्रिंशोऽध्यायः।। 29।। |
12-29-6 हविः पवित्रभोज्येन शाल्यन्नेन देवभोज्येन घृतेन ताभ्यां विहर्तुकामाविति पूर्वेण संबन्धः।। 12-29-11 प्रगुणीभवानुकूलो भव।। 12-29-13 सुकुमारी नाम्रा।। 12-29-14 सौम्यमुत्तमम्।। 12-29-20 समयं कृत्वा भवानवसदिति शेषः।। 12-29-22 प्रवर्तन्तं प्रवर्तमानम्। ते त्वाम्।।
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