महाभारतम्-12-शांतिपर्व-222
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति जनकाय पञ्चशिखोक्तसांपरायिकभावादिप्रतिपादकवाक्यानुवादः।। 1।।
भीष्म उवाच। | 12-222-1x |
जनको नरदेवस्तु ज्ञापितः परमर्षिणा। पुनरेवानुपप्रच्छ सांपराये भवाभवौ।। | 12-222-1a 12-222-1b |
जनक उवाच। | 12-222-2x |
भगवन्यदि न प्रेत्य संज्ञा भवति कस्यचित्। एवं सति किमज्ञानं ज्ञानं वा किं करिष्यति।। | 12-222-2a 12-222-2b |
सर्वमुच्छेदनिष्ठं स्यात्पश्य चैतद्द्विजोत्तम। अप्रमत्तः प्रमत्तो वा किं विशेषं करिष्यति।। | 12-222-3a 12-222-3b |
असंसर्गो हि भूतेषु संसर्गो वा विनाशिषु। कस्मै क्रियेत तत्वेन निश्चयः कोऽत्र तत्त्वतः।। | 12-222-4a 12-222-4b |
भीष्म उवाच। | 12-222-5x |
तमसा हि प्रतिच्छन्नं विभ्रान्तमिव चातुरम्। पुनः प्रशमयन्वाक्यैः कविः पञ्चशिखोऽब्रवीत्।। | 12-222-5a 12-222-5b |
उच्छेदनिष्ठा नेहास्ति भा निष्ठा न विद्यते। अयं ह्यपि समाहारः शरीरेन्द्रियचेतसाम्। वर्तते पृथगन्योन्यमप्यपाश्रित्य कर्मसु।। | 12-222-6a 12-222-6b 12-222-6c |
धावतः पञ्च तेषां तु खं वायुर्ज्योतिरम्बु भूः। ते स्वभावेन तिष्ठन्ति वियुज्यन्ते स्वभावतः।। | 12-222-7a 12-222-7b |
आकाशो वायुरूष्मा च स्नेहो यश्चापि पार्थिवः। एष पञ्चसमाहारः शरीरमपि नैकधा।। | 12-222-8a 12-222-8b |
`अहं वाच्यं द्विजानां यद्विशिष्टं बुद्धिरूपवत्। वाचामगोचरं नित्यं ज्ञेयमेवं भविष्यति।। | 12-222-9a 12-222-9b |
ज्ञानं ज्ञेयं तथा ज्ञानं त्रिविधं ज्ञानमुच्यते।' ज्ञानमूष्मा च वायुश्च त्रिविधः कर्मसंग्रहः।। | 12-222-10a 12-222-10b |
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थाश्च स्वभावश्चेतना मनः। प्राणापानौ विकारश्च धातवश्चात्र निःसृताः।। | 12-222-11a 12-222-11b |
`प्राणादयस्तथा स्पर्शा न संबाधगतास्तथा। पुत्राधीनं भविष्येत चिन्मात्रः स परः पुमान्।। | 12-222-12a 12-222-12b |
श्रवणं स्पर्शनं जिह्वा दृष्टिर्नासा तथैव च। इन्द्रियाणीति पञ्चैते चित्तपूर्वगमा गुणाः।। | 12-222-13a 12-222-13b |
तत्र विज्ञानसंयुक्ता त्रिविधा चेतना ध्रुवा। सुखदुःखेति यामाहुरदुःखेत्यसुखेति च।। | 12-222-14a 12-222-14b |
शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धश्च मूर्तयः। एते ह्यामरणात्पञ्च षङ्गुणा ज्ञानसिद्धये।। | 12-222-15a 12-222-15b |
तेषु कर्मविसर्गश्च सर्वतत्वार्थनिश्चयः। तमाहुः परमं शुक्रं `पारे च रजसः प्रभुम्।। | 12-222-16a 12-222-16b |
विरागाद्वर्तते तस्मिन्मतो रजसि नित्यगम्। तस्मिन्प्रसन्ने संपश्ये' द्वुद्धिरित्यव्ययं महत्।। | 12-222-17a 12-222-17b |
इमं गुणसमाहारमात्मभावेन पश्यतः। असम्यद्गर्शिनो दुःखमनन्तं नोपशाम्यति।। | 12-222-18a 12-222-18b |
`तस्मादेतेषु मेधावी न प्रसज्येत बुद्धिमान्।' अनात्मेति च यद्दृष्टं तन्नाहं न ममेत्यपि। वर्तते किमधिष्ठाना प्रसक्ता दुःखसंततिः।। | 12-222-19a 12-222-19b 12-222-19c |
यत्र सम्यङ्भनो नाम त्यागमात्रमनुत्तमम्। शृणु यत्तव मोक्षाय भाष्यमाणं भविष्यति।। | 12-222-20a 12-222-20b |
त्याग एव हि सर्वेषां युक्तानामपि कर्मणाम्। नित्यदुःखविनीतानां श्लेषो दुःखवहो हतः।। | 12-222-21a 12-222-21b |
द्रव्यत्यागे तु कर्माणि भोगत्यागे व्रतान्यपि। सुखत्यागे तपोयोगं सर्वत्यागे समापना।। | 12-222-22a 12-222-22b |
तस्य मार्गोऽयमद्वैधः सर्वत्यागस्य दर्शितः। विप्रहाणाय दुःखस्य दुर्गतिस्त्वन्यथा भवेत्।। | 12-222-23a 12-222-23b |
`शेते जरामृत्युभयैर्विमुक्तः क्षीणे पुण्ये विगते च पापे। तपोनिमित्ते विगते च निष्ठे फले यथाऽऽकाशमलिङ्ग एव।।' | 12-222-24a 12-222-24b 12-222-24c 12-222-24d |
पञ्चज्ञानेन्द्रियाण्युक्त्वा मनःषष्ठानि चेतसि। मनःषष्ठानि वक्ष्यामि पञ्चकर्मेन्द्रियाणि तु।। | 12-222-25a 12-222-25b |
हस्तौ कर्मेन्द्रियं ज्ञेयमथ पादौ गतीन्द्रियम्। प्रजनानन्दयोः शेफो निसर्गे पायुरिन्द्रियम्।। | 12-222-26a 12-222-26b |
वाक्च शब्दविशेषार्थं गतिं पञ्चान्वितां विदुः। एवमेकादशैतानि बुद्ध्या तूपहतं मनः।। | 12-222-27a 12-222-27b |
कर्णौ शब्दश्च चित्तं च त्रयः श्रवणसंग्रहे। तथा स्पर्शे तथा रूपे तथैव रसगन्धयोः।। | 12-222-28a 12-222-28b |
एवं पञ्चत्रिका ह्येते गुणास्तदुपलब्धये। येनायं त्रिविधो भावः पर्यायात्समुंपस्थितः।। | 12-222-29a 12-222-29b |
सात्विको राजसश्चापि तामसश्चापि ते त्रयः। त्रिविधा वेदना येषु प्रसूताः सर्वसाधनाः।। | 12-222-30a 12-222-30b |
प्रहर्षः प्रीतिरानन्दः सुखं संशान्तचित्तता। अकुतश्चित्कुतश्चिद्वा चिन्तितः सात्विको गुणः।। | 12-222-31a 12-222-31b |
अतुष्टिः परितापश्च शोको लोभस्तथाऽक्षमा। लिङ्गानि रजसस्तानि दृश्यन्ते हेत्वहेतुतः।। | 12-222-32a 12-222-32b |
अविवेकस्तथा मोहः प्रमादः स्वप्नतन्द्रिता। कथंचिदपि वर्तन्ते विविधास्तामसा गुणाः।। | 12-222-33a 12-222-33b |
तत्र यत्प्रीतिसंयुक्तं काये मनसि वा भवेत्। वर्तते सात्विको भाव इत्यपेक्षेत तत्तथा।। | 12-222-34a 12-222-34b |
यत्तु सन्तापसंयुक्तमप्रीतिकरमात्मनः। प्रवृत्तं रज इत्येवं ततस्तदपि चिन्तयेत्।। | 12-222-35a 12-222-35b |
अथ यन्मोहसंयुक्तं काये मनसि वा भवेत्। अप्रतर्क्यमविज्ञेयं तमस्तदुपधारयेत्।। | 12-222-36a 12-222-36b |
श्रोत्रं व्योमाश्रितं भूतं शब्दः श्रोत्रं समाश्रितः। नोभयं शब्दविज्ञाने विज्ञानस्तेतरस्य वा।। | 12-222-37a 12-222-37b |
एवं त्वक्चक्षुषी जिह्वा नासिका चेति पञ्चमी। स्पर्शे रूपे रसे गन्धे तानि चेतो मनश्च तत्।। | 12-222-38a 12-222-38b |
स्वकर्मयुगपद्भावो दशस्वेतेषु तिष्ठति। चित्तमेकादशं विद्धि बुद्धिर्द्वादशमी भवेत्।। | 12-222-39a 12-222-39b |
तेषामयुगपद्भाव उच्छेदो नास्ति तामसः। आस्थितो युगपद्भावे व्यवहारः स लौकिकः।। | 12-222-40a 12-222-40b |
इन्द्रियाण्युपसृत्यापि दृष्ट्वा पूर्वं श्रुतागमात्। चिन्तयन्ननुपर्येति त्रिभिरेवान्वितो गुणैः।। | 12-222-41a 12-222-41b |
यत्तमोपहतं चित्तमाशुसंचारमध्रुवम्। करोत्युपरमं काये तदाहुस्तामसं सुखम्।। | 12-222-42a 12-222-42b |
यद्यदागमसंयुक्तं न कृच्छ्रादुपशाम्यति। अथ तत्राप्युपादत्ते तमो व्यक्तमिवानृतम्।। | 12-222-43a 12-222-43b |
एवमेव प्रसङ्ख्यातः स्वकर्मप्रत्ययो गुणः। कथंचिद्वर्तते सम्यक्केषांचिद्वा निवर्तते।। | 12-222-44a 12-222-44b |
`अहमित्येष वै भावो नान्यत्र प्रतितिष्ठति। यस्य भावो दृढो नित्यं स वै विद्वांस्तथेतरः।। | 12-222-45a 12-222-45b |
देहधर्मस्तथा नित्यं सर्वभूतेषु वै दृढः। एतेनैवानुमानेन त्याज्यो धर्मस्तथा ह्यसौ।। | 12-222-46a 12-222-46b |
ज्ञानेन मुच्यते जन्तुर्धर्मात्मा ज्ञानवान्भवेत्। धर्मेण धार्यते लोकः सर्वं धर्मे प्रतिष्ठितम्।। | 12-222-47a 12-222-47b |
सर्वार्थजनकश्चैव धर्मः सर्वस्य कारणम्। सर्वो हि दृश्यते लोके न सर्वार्थः कथंचन।। | 12-222-48a 12-222-48b |
सर्वत्यागे कृते तस्मात्परमात्मा प्रसीदति। व्यक्तादव्यक्तमतुलं लोकेषु परिवर्तते।।' | 12-222-49a 12-222-49b |
एतदाहुः समाहारं क्षेत्रमध्यात्मचिन्तकाः। स्थितो मनसि यो भावः स वै क्षेत्रज्ञ उच्यते।। | 12-222-50a 12-222-50b |
एवं सति क उच्छेदः शाश्वतो वा कथं भवेत्। स्वभावाद्वर्तमानेषु सर्वभूतेषु हेतुषु।। | 12-222-51a 12-222-51b |
यथार्णवगता नद्यो व्यक्तीर्जहति नाम च। नतु स्वतां नियच्छन्ति तादृशः सत्वसंक्षयः।। | 12-222-52a 12-222-52b |
एवं सति कुतः संज्ञा प्रेत्यभावे पुनर्भवेत्। प्रतिसंमिश्रिते जीवे गृह्यमाणे च सर्वतः।। | 12-222-53a 12-222-53b |
इमां च यो वेद विमोक्षबुद्धि मात्मानमन्विच्छति चाप्रमत्तः। न लिप्यते कर्मफलैरनिष्टैः पत्रं बिसस्येव जलेन सिक्तम्।। | 12-222-54a 12-222-54b 12-222-54c 12-222-54d |
दृढैर्हि पाशैर्बहुभिर्विमुक्तः प्रजानिमित्तैरपि दैवतैश्च। यदा ह्यसौ सुखदुःखे जहाति मुक्तस्तदाग्र्यां गतिमेत्यलिङ्गः।। | 12-222-55a 12-222-55b 12-222-55c 12-222-55d |
मास्थाय पश्यन्ति महत्यसक्ताः।। | 12-222-56f |
यथोर्णनाभिः परिवर्तमान स्तन्तुक्षये तिष्ठति पात्यमानः। तथा विमुक्तः प्रजहाति दुःखं बिध्वंसते लोष्ठ इवाद्रिमृच्छन्।। | 12-222-57a 12-222-57b 12-222-57c 12-222-57d |
यथा रुरुः शृङ्गमथो पुराणं हित्वा त्वचं वाऽप्युरगो यथा च। विहाय गच्छत्यनवेक्षमाण स्तथा विमुक्तो विजहाति दुःखम्।। | 12-222-58a 12-222-58b 12-222-58c 12-222-58d |
द्रुमं यथावाऽप्युदकै पतन्त मुत्सृज्य पक्षी निपतत्यसक्तः। तथा ह्यसौ सुखदुःखे विहाय मुक्तः पराद्धर्यां गतिमेत्यलिङ्गः।। | 12-222-59a 12-222-59b 12-222-59c 12-222-59d |
ह्यहं तदन्तर्ह्यहमेव भोक्ता।।' | 12-222-60f |
अपिच भवति मैथिलेन गीतं नगरमुपाहितमग्निनाऽभिवीक्ष्य। न खलु मम तुषोऽपि दह्यतेऽत्र स्वयमिदमाह किल स्म भूमिपालः।। | 12-222-61a 12-222-61b 12-222-61c 12-222-61d |
भीष्म उवाच। | 12-222-62x |
इदममृतपदं विदेहराजा स्वयमिह पञ्चशिखेन भाष्यमाणम्। निखिलमभिसमीक्ष्य निश्चितार्थः परमसुखी विजहार वीतशोकः।। | 12-222-62a 12-222-62b 12-222-62c 12-222-62d |
इमं हि यः पठति विमोक्षनिश्चयं महीपते सततमवेक्षते तथा। उपद्रवान्नानुभवत्यदुःखितः प्रमुच्यते कपिलमिवैत्य मैथिलः।। | 12-222-63a 12-222-63b 12-222-63c 12-222-63d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोश्रधर्मपर्वणि द्वाविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 222।। |
12-222-2 भगवन्यविदं प्रोक्तं इति ट. ड. थ. पाठः।। 12-222-3 पञ्चत्वे तद्द्विजोत्तमेति ध. पाठः।। 12-222-6 उच्छेदनिष्ठा देहेऽस्ति इति ट. थ. पाठः।। 12-222-13 चित्तरूपं गमा गुणाः इति ध. पाठः।। 12-222-15 गन्धश्च पञ्चमः इति ड. पाठः। आमरणाद्युक्ता इति ट. ड. थ. पाठः।। 12-222-20 तत्तु सम्यङ्भातं नाम स्यागशास्त्रमनुत्तममिति ट. ड. थ. पाठः। अत्र सम्यग्बधो नाम त्यागशास्त्रमनुत्तममिति झ. पाठः।। 12-222-21 नित्यं मिथ्या विनीतानां क्लेशो दुःखवहो मतः इति झ. पाठः।। 12-222-22 सर्वशास्त्रतात्पर्यं त्यागे एवेत्याह द्रव्येति। द्रव्यादित्यागनिमित्तं यज्ञकर्मादीन्युपदिशन्तीति शेषः। सर्वत्यागनिमित्तं योगमुपदिशन्ति। यतः सा त्यागस्य समापना समाप्तिः पराकाष्ठेत्यर्थः।। 12-222-27 बुच्द्याशु विसृजेन्मनः इति झ. पाठः।। 12-222-34 इत्युपेक्षेत तं तथा इति ड. ध. पाठः।। 12-222-35 यत्त्वसन्तोषसंयुक्तं इति झ. पाठः।। 12-222-40 उच्छेदो नास्ति मानसः इति ड. थ. पाठः। तामसे इति झ. पाठः।। 12-222-41 इन्द्रियाण्यपि सूक्ष्माणि इति झ. पाठः।। 12-222-42 तामसं गुणं इति ट. ड. पाठः। तामसं बुधाः इति झ. पाठः।। 12-222-43 न कृच्छ्रमनुपश्यति इति झ. पाठः।। 12-222-52 नदाश्च तानि यच्छन्ति इति झ. पाठः।। 12-222-58 रुरुर्मृगभेदः।। 12-222-59 परार्द्भ्यां श्रेष्ठाम्।। 12-222-63 अवेक्षते अर्थतः पर्यालोचयति। कपिलं कपिलप्रशिष्यं पञ्चशिखम्।।
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