महाभारतम्-12-शांतिपर्व-116
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केनचिन्मुनिवरेण द्वीपिभये सति द्वीपित्वं प्रापितस्य स्वीयशुनःपुनर्व्याघ्नाङ्भये सति व्याघ्रीकरणम्।। 1।।
`युधिष्ठिर उवाच। | 12-116-1x |
न सन्ति कुलजा यत्र सहायाः पार्थिवस्य तु। अकुलीनाश्च कर्तव्या न वा भरतसत्तम्।।' | 12-116-1a 12-116-1b |
भीष्म उवाच। | 12-116-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। निदर्शनं परं लोके सज्जनाचरितं सदा।। | 12-116-2a 12-116-2b |
अस्यैवार्थस्य सदृशं यच्छ्रुतं मे तपोवने। जामदग्न्यस्य रामस्य यदुक्तमृषिसत्तमैः।। | 12-116-3a 12-116-3b |
वने महति कस्मिंश्चिदमनुष्यनिषेविते। ऋषिर्मूलफलाहारो नियतो नियतेन्द्रियः।। | 12-116-4a 12-116-4b |
दीक्षादमपरिश्रान्तः स्वाध्यायपरमः शुचिः। उपवासविशुद्धात्मा सततं सत्पथे स्थितः।। | 12-116-5a 12-116-5b |
तस्य संदृश्य सद्भावमुपविष्टस्य धीमतः। सर्वे सत्वाः समीपस्था भवन्ति वनचारिणः।। | 12-116-6a 12-116-6b |
सिंहा व्याघ्राः सशरभा मत्ताश्चैव महागजाः। द्वीपिनः खङ्गभल्लूका ये चान्ये भीमदर्शनाः।। | 12-116-7a 12-116-7b |
ते सुखप्रश्नदाः सर्वे भवन्ति क्षतजाशनाः। तस्यर्षेः शिष्यवच्चैव चित्तज्ञाः प्रियकारिणः।। | 12-116-8a 12-116-8b |
उक्त्वा च ते सुखप्रश्नं सर्वे यान्ति यथासुखम्। ग्राम्यस्त्वेकः पशुस्तत्र नाजहात्स महामुनिम्।। | 12-116-9a 12-116-9b |
भक्तोऽनुरक्तः सततमुपवासकृशोऽबलः। फलमूलोत्तराहारः शान्तः शिष्टाकृतिर्यथा।। | 12-116-10a 12-116-10b |
तस्यर्षेरुपविष्टस्य पादमूले महामतेः। मनुष्यवद्गतो भावं स्नेहबद्धोऽभवद्भृशम्।। | 12-116-11a 12-116-11b |
ततोऽभ्ययान्महारौद्रो द्वीपी क्षतजभोजनः। श्वार्थमत्यर्थमुद्धुष्टः क्रूरः कालइवान्तकः।। | 12-116-12a 12-116-12b |
लेलिह्यमानस्तृषितः पुच्छास्फोटनतत्परः। व्यादितास्यः क्षुधाः भुग्नः प्रार्थयानस्तदामिषम्।। | 12-116-13a 12-116-13b |
दृष्ट्वा तं क्रूरमायान्तं जीवितार्थी नराधिप। प्रोवाच श्वा मुनिं तत्र तच्छृणुष्व विशांपते।। | 12-116-14a 12-116-14b |
श्वशत्रुर्भगवन्नेष द्वीपी मां हन्तुमिच्छति। त्वत्प्रसादाद्भयं न स्यादस्मान्मम महामुने। [तथा कुरु महाबाहो सर्वज्ञस्त्वं न संशयः।। | 12-116-15a 12-116-15b 12-116-15c |
स मुनिस्तस्य विज्ञाय भावज्ञो भयकारणम्। रुतज्ञः सर्वसत्वानां तमैश्वर्यसमन्वितः।।] | 12-116-16a 12-116-16b |
मुनिरुवाच। | 12-116-17x |
न भयं द्वीपिनः कार्यं मृत्युतस्ते कथंचन। एष श्वरूपरहितो द्वीपी भवसि पुत्रक।। | 12-116-17a 12-116-17b |
ततः श्वा द्वीपितां नीतो जाम्बूनदनिभाकृति। चित्राङ्गो विस्फुरद्दंष्ट्रो वने वसति निर्भयः।। | 12-116-18a 12-116-18b |
तं दृष्ट्वा संमुखे द्वीपी आत्मनः सदृशं पशुम्। अविरुद्धस्ततस्तस्य क्षणेन समपद्यत।। | 12-116-19a 12-116-19b |
ततोऽभ्ययान्महारौद्रो व्यादितास्यः क्षुधान्विः। द्वीपिनं लेलिहन्वक्रं व्याघ्रो रुधिरलालसः।। | 12-116-20a 12-116-20b |
व्याघ्रं दृष्ट्वा क्षुधा भुग्नं दंष्ट्रिणं वनचारिणम्। द्वीपि जीवितरक्षार्थमृषिं शरणमेयिवान्।। | 12-116-21a 12-116-21b |
ततः संवासजं स्नेहमृषिणा कुर्वता तदा। स द्वीपी व्याघ्रतां नीतो रिपुभ्यो बलवत्तरः।। | 12-116-22a 12-116-22b |
ततोऽदृष्ट्वा स शार्दूलो नाभ्यघ्नत्तं विशांपते। स तु श्चा व्याघ्रतां प्राप्य बलवान्पिशिताशनः।। | 12-116-23a 12-116-23b |
न मूलफलभोगेषु स्पृहामप्यकरोत्तदा। यथा मृगपतिर्नित्यं प्रकाङ्क्षति वनौकसः। तथैव स महाराज व्याघ्रः समभवत्तदा।। | 12-116-24a 12-116-24b 12-116-24c |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि षोडशाधिकशततमोऽध्यायः।। 116।। |
12-116-2 अत्र उत्तमाधममध्यमस्थानेषु क्रमात् तएव योज्या नतु उच्चस्थाने नीचो नियोज्य इत्यस्मित्रर्थे।। 12-116-3 अस्यैव वक्ष्यमाणस्य।। 12-116-6 सत्वाः प्राणिनः।। 12-116-8 सुखप्रश्नदाः सुखिनः स्थ इति प्रश्नस्योत्तरं सुखिनः स्मः इति तत्प्रदा इत्यर्थः।। 12-116-11 भावं चित्तम्।। 12-116-13 सुधामत्तः इति ड.थ. पाठः।। 12-116-17 द्वीपिनो द्वीपिरूपान्मृत्युतः।। 12-116-21 क्षुधाभुग्नं पीडितम्।।
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