महाभारतम्-12-शांतिपर्व-135
दिखावट
← शांतिपर्व-134 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-135 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-136 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति दस्युभावेऽपि शास्त्रमर्यादानुसारिणः परलोकप्राप्तौ दृष्टान्ततया कापच्यचरितोपन्यासः।। 1।।
भीष्म उवाच। | 12-135-1x |
अत्राप्युदाहन्तीममितिहासं पुरातनम्। यथा दस्युः समर्यादो दस्युत्वात्सिद्धिमाप्तवान्।। | 12-135-1a 12-135-1b |
प्रहर्ता मतिमाञ्शूरः श्रुतवान्सुनृशंसवान्। अक्षन्नाश्रमिणां धर्मं ब्रह्मण्यो गुरुपूजकः।। | 12-135-2a 12-135-2b |
अनिषाद्यां क्षत्रियाज्जातः क्षत्रधर्मानुपालकः। कापच्यो नाम नैषादिर्दस्युत्वात्सिद्धिमाप्तवान्।। | 12-135-3a 12-135-3b |
अरण्ये सायं पूर्वाह्णे मृगयूथप्रकोपिता। वेधिज्ञो मृगजातीनां नैषादानां च कोविदः।। | 12-135-4a 12-135-4b |
सर्वकाननदेशज्ञः पारियात्रचरः सदा। धर्मज्ञः सर्ववर्णानाममोघेषुर्दृढायुधः।। | 12-135-5a 12-135-5b |
अप्यनेकशतां सेनामेक एव जिगाय सः। स वृद्धावम्बपितरौ महारण्येऽभ्यपूजयत्।। | 12-135-6a 12-135-6b |
मधुमांसैर्मूलफलैरन्नैरुच्चावचैरपि। सत्कृत्य भोजयामास सम्यक्परिचचार ह।। | 12-135-7a 12-135-7b |
आरण्यकान्प्रव्रजितान्ब्राह्मणान्परिपालयन्। अपि तेभ्यो मृगान्हत्वा निनाय सततं वने।। | 12-135-8a 12-135-8b |
येऽस्मान्न प्रतिगृह्णन्ति दस्युभोजनशङ्कया। तेषामासज्य गेहेषु कल्य एव स गच्छति।। | 12-135-9a 12-135-9b |
तं बहूनि सहस्राणि ग्रामणीत्वेऽभिवव्रिरे। निर्मर्यादानि दस्यूनां निरनुक्रोशवर्तिनाम्।। | 12-135-10a 12-135-10b |
दस्यव ऊचुः। | 12-135-11x |
मुहूर्तदेशकालज्ञः प्राज्ञः शूरो दृढव्रतः। ग्रामणीर्भव नो मुख्यः सर्वेपामेव संमतः।। | 12-135-11a 12-135-11b |
यथायथा वक्ष्यसि नः करिष्यामस्तथातथा। पालयास्मान्यथान्यायं यथा माता यथा पिता।। | 12-135-12a 12-135-12b |
कापच्य उवाच। | 12-135-13x |
मा वधीस्त्वं स्त्रियं भीरुं मा शिशुं मा तपस्विनम्। नायुध्यमानो हन्तव्यो न च ग्राह्या बलात्स्त्रियः।। | 12-135-13a 12-135-13b |
सर्वथा स्त्री न हन्तव्या सर्वसत्वेषु बुध्यत। नित्यं गोब्राह्मणे स्वस्ति योद्धव्यं च तदर्थतः।। | 12-135-14a 12-135-14b |
सत्यं च नापि हर्तव्यं सारविघ्नं च मा कृथाः। पूज्यन्ते यत्र देवाश्च पितरोऽतिथयश्च ह।। | 12-135-15a 12-135-15b |
सर्वभूतेष्वपि वरो ब्राह्मणो मोक्षमर्हति। कार्या चापचितिस्तेषां सर्वस्वेनापि भावयेत्।। | 12-135-16a 12-135-16b |
यस्य त्वेते संप्रदुष्टास्तस्य विद्यात्पराभवम्। न तस्य त्रिषु लोकेषु त्राता भवति कस्चन।। | 12-135-17a 12-135-17b |
यो ब्राह्मणान्परिभवेद्विनाशं चापि रोचयेत्। सूर्योदय इव ध्वान्ते ध्रुवं तस्य पराभवः।। | 12-135-18a 12-135-18b |
इहैव फलमासीनः प्रत्याकाङ्क्षेत सर्वशः। येये नो न प्रदास्यन्ति तांस्तांस्तेनाभियास्यसि।। | 12-135-19a 12-135-19b |
शिष्ट्यर्थं विहितो दण्डो न वधार्थं विधीयते। ये च शिष्टान्प्रबाधन्ते धर्मस्तेषां वधः स्मृतः।। | 12-135-20a 12-135-20b |
ये च राष्ट्रोपरोधेन वृद्धिं कुर्वन्ति केचन। तानेवानुम्रियेरंस्ते कुणपं कृमयो यथा।। | 12-135-21a 12-135-21b |
ये पुनर्धर्मशास्त्रेण वर्तेरन्निह दस्यवः। अपि ते दस्यवो भूत्वा क्षिप्रं सिद्धिमवाप्नुयुः। | 12-135-22a 12-135-22b |
भीष्म उवाच। | 12-135-23x |
ते सर्वमेवानुचक्रुः कापच्यस्यानुशासनम्। वृद्धिं च लेभिरे सर्वे पापेभ्यश्चाप्युपारमन्।। | 12-135-23a 12-135-23b |
कापच्यः कर्मणा तेन महतीं सिद्धिमाप्तवान्। साधूनामाचरन्क्षेमं दस्यून्पापान्निवर्तयन्।। | 12-135-24a 12-135-24b |
इदं कापच्यचरितं यो नित्यमनुचिन्तयेत्। नारण्येभ्योऽपि भूतेभ्यो भयमृच्छेत्कथंचन।। | 12-135-25a 12-135-25b |
न भयं तस्य मर्त्येभ्यो नामर्त्येभ्यः कथंचन। न सतो नासतो राजन्स ह्यरण्येषु गोपतिः।। | 12-135-26a 12-135-26b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि पञ्चत्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः।। 135।। |
12-135-3 कायव्यो नामेति झ. पाठः। कापव्यो नामेति ट. पाठः। काश्यपो नामेति ध. पाठः।। 12-135-4 निपातानां च कोविद इति ड. थ. ध. पाठः।। 12-135-5 पारियात्रः पर्वतविशेषः।। 12-135-9 आसज्य क्वचिन्निधाय। कल्ये प्रातः।। 12-135-13 मावधीस्त्वमित्येकवचनं गणाभिप्रायेण।। 12-135-14 स्वस्ति कल्याणं चिन्तनीयम्।। 12-135-15 सारो विवाहादिकार्यं तत्र विघ्नं मा कृथाः। सस्यं च नोपहन्तव्यं सीरविघ्नं च मा कृथाः इति ट. ड. थ. पाठः।। 12-135-16 अपचितिः पूजा।। 12-135-18 ध्वान्ते ध्वान्तस्य।। 12-135-19 ये ये वणिजः। नः अस्मभ्यम्।। 12-135-20 शिष्ट्यर्थं दुष्टानां शासनार्थम्।।
शांतिपर्व-134 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-136 |