महाभारतम्-12-शांतिपर्व-335
दिखावट
← शांतिपर्व-334 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-335 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-336 → |
जनकाभ्यनुज्ञातेन शुकेन व्यासमेत्य स्वस्य जनकेन सह संवादप्रकारकथनम्।। 1।।
व्यासस्य वैशंपायनादिभिः सह संवादः।। 2।।
भीष्म उवाच। | 12-335-1x |
एतच्छ्रुत्वा तु वचनं कृतात्मा कृतनिश्चयः। आत्मनाऽऽत्मानमास्थाय दृष्ट्वा चात्मानमात्मना।। | 12-335-1a 12-335-1b |
कृतकार्यः सुखी शान्तस्तूष्णीं प्रायादुदङ्भुखः। शैशिरं गिरिमुद्दिश्य सधर्मा मातरिश्वनः।। | 12-335-2a 12-335-2b |
एतस्मिन्नेव काले तु देवर्षिर्नारदस्तथा। हिमवन्तमियाद्दुष्टुं सिद्धचारणसेवितम्।। | 12-335-3a 12-335-3b |
तमप्सरोगाकीर्णं गीतस्वननिनादितम्। किन्नराणां सहस्रैश्च भृङ्गराजैस्तथैव च।। | 12-335-4a 12-335-4b |
मद्गुभिः खञ्जरीटैश्च विचित्रैर्जीवजीवकैः।। | 12-335-5a |
चित्रवर्णैर्मयूरैश्च केकाशतविराजितैः। राजहंससमूहैश्च हृष्टैः परभृतैस्तथा।। | 12-335-6a 12-335-6b |
पक्षिराजो गरुत्मांश्च यं नित्यमधितिष्ठति। चत्वारो लोकपालाश्च देवाः सर्षिगणास्तथा।। | 12-335-7a 12-335-7b |
तत्र नित्यं समायान्ति लोकस्य हितकाम्यया। विष्णुना यत्र पुत्रार्थे तपस्तप्तं महात्मना।। | 12-335-8a 12-335-8b |
तत्रैव च कुमारेण बाल्ये क्षिप्ता दिवौकसः। शक्तिर्न्यस्ता क्षितितले त्रैलोक्यमवमन्य वै।। | 12-335-9a 12-335-9b |
तत्रोवाच जगत्स्कन्दः क्षिपन्वाक्यमिदं तदा। योऽन्योस्ति मत्तोऽभ्यधिको विप्रा यस्याधिकं प्रियाः।। | 12-335-10a 12-335-10b |
यो ब्रह्मण्यो द्वितीयोऽस्ति त्रिषु लोकेषु वीर्यवान्। सोभ्युद्धरत्विमां शक्तिमथवा कम्पयत्विति।। | 12-335-11a 12-335-11b |
तच्छुत्वा व्यथिता लोकाः क इमामुद्धरेदिति। अथ देवगणं सर्वं संभ्रान्तेन्द्रियमानसम्।। | 12-335-12a 12-335-12b |
अपश्यद्भगवान्विष्णुः क्षिप्तं सासुरराक्षसम्। किंन्वत्र सुकृतं कार्यं भवेदिति विचिन्तयन्।। | 12-335-13a 12-335-13b |
अनामृष्य ततः क्षेपमवैक्षत च पाविकम्। संप्रगृह्य विशुद्धात्मा शक्तिं प्रज्वलितां तदा।। | 12-335-14a 12-335-14b |
कम्पयामास सव्येन पाणिना पुरुषोत्तमः। शक्त्यां तु कम्प्यमानायां विष्णुना बलिना तदा।। | 12-335-15a 12-335-15b |
मेदिनी कम्पिता सर्वा सशैलवनकानना। शक्तेनापि समुद्धर्तुं कम्पिता साऽभवत्तदा।। | 12-335-16a 12-335-16b |
रक्षिता स्कन्दराजस्य धर्षणा प्रभविष्णुना। तां कम्पयित्वा भगवान्प्रह्लादमिदमब्रवीत्।। | 12-335-17a 12-335-17b |
पश्य वीर्यं कुमारस्य नैतदन्यः करिष्यति। सोऽमृष्यमाणस्तद्वाक्यं समुद्धरणनिश्चितः।। | 12-335-18a 12-335-18b |
जग्राह तां तदा शक्तिं न चैनामभ्यकम्पयत्। नादं महान्तं मुक्त्वा स मूर्च्छितो गिरिमूर्घनि।। | 12-335-19a 12-335-19b |
विह्वलः प्रापतद्भूमौ हिरण्यकशिपोः सुतः। तत्रोत्तरां दिशं गत्वा शैलराजस्य पार्श्वतः।। | 12-335-20a 12-335-20b |
तपोऽतप्यत दुर्घर्षं तात नित्यं वृषध्वजः। पावकेन परिक्षिप्तं दीप्यता यस्य चाश्रमम्।। | 12-335-21a 12-335-21b |
आदित्यपर्वतं नाम दुर्घर्षमकृतात्मभिः। न तत्र शक्यते गन्तुं यक्षराक्षसदानवैः।। | 12-335-22a 12-335-22b |
दशयोजनविस्तारमग्निज्वालसमावृतम्। भगवान्पावकस्तत्र स्वयं तिष्ठति वीर्यवान्।। | 12-335-23a 12-335-23b |
सर्वान्विघ्नान्प्रशमयन्महादेवस्य धीमतः। दिव्यं वर्षसहस्रं हि पादेनैकेन तिष्ठतः।। | 12-335-24a 12-335-24b |
देवान्संतापयंस्तत्र महादेवो महाव्रतः। ऐन्द्रीं तु दिशमास्थाय शैलराजस्य धीमतः।। | 12-335-25a 12-335-25b |
विविक्ते पर्वततटे पाराशर्यो महातपाः। वेदानध्यापयामास व्यासः शिष्यान्महातपाः।। | 12-335-26a 12-335-26b |
सुमन्तुं च महाभागं वैशंपायनमेव च। जैमिनिं च महाप्राज्ञं पैलं चापि तपस्विनम्।। | 12-335-27a 12-335-27b |
एभिः शिष्यैः परिवृतो व्यास आस्ते महातपाः। तत्राश्रमपदं रम्यं ददर्श पितुरुत्तमम्। आरणेयो विशुद्धात्मा नभसीव दिवाकरः।। | 12-335-28a 12-335-28b 12-335-28c |
अथ व्यासः परिक्षिप्तं ज्वलन्तमिव पावकम्। ददृशे सुतमायान्तं दिवाकरसमप्रभम्।। | 12-335-29a 12-335-29b |
असज्जमानं वृक्षेषु शैलेषु विषयेषु च। योगयुक्तं महात्मानं यथा बाणं गुणच्युतम्।। | 12-335-30a 12-335-30b |
सोऽभिगम्य पितुः पादावगृह्णादरणीसुतः। यथोपजोषं तैश्चापि समागच्छन्महामुनिः।। | 12-335-31a 12-335-31b |
ततो निवेदयामास पित्रे सर्वमशेषतः। शुको जनकराजेन संवादं प्रीतमानसः।। | 12-335-32a 12-335-32b |
एवमध्यापयञ्शिष्यान्व्यासः पुत्रं च वीर्यवान्। उवास हिमवत्पृष्ठे पाराशर्यो महामुनिः।। | 12-335-33a 12-335-33b |
ततः कदाचिच्छिष्यास्तं परिवार्यावतस्थिरे। वेदाध्ययनसंपन्नाः शान्तात्मानो जितेन्द्रियाः।। | 12-335-34a 12-335-34b |
वेदेषु निष्ठां संप्राप्य साङ्गेष्वपि तपस्विनः। अथोचुस्ते तदा व्यासं शिष्याः प्राञ्जलयो गुरुम्।। शिष्या ऊचुः। | 12-335-35a 12-335-35b 12-335-36c |
महता तेजसा युक्ता यशसा चापि वर्धिताः। एकं त्विदानीमिच्छामो गुरुणाऽनुग्रहं कृतम्।। | 12-335-36a 12-335-36b |
इति तेषां वचः श्रुत्वा ब्रह्मर्षिस्तानुवाद ह। उच्यतामिति तद्वत्सा यद्वः कार्यं प्रियं मया।। | 12-335-37a 12-335-37b |
एतद्वाक्यं गुरोः श्रुत्वा शिष्यास्ते हृष्टमानसाः। पुनः प्राञ्जलयो भूत्वा प्रणम्य शिरसा गुरुम्।। | 12-335-38a 12-335-38b |
ऊचुस्ते सहिता राजन्निदं वचनमुत्तमम्। यदि प्रीत उपाध्यायो धन्याः स्मो मुनिसत्तम।। | 12-335-39a 12-335-39b |
काङ्क्षामस्तु वयं सर्वे वरं दत्तं महर्षिणा। पष्ठः शिष्यो न ते ख्यातिं गच्छेदत्र प्रसीद नः।। | 12-335-40a 12-335-40b |
चत्वारस्ते वयं शिष्या गुरुपूत्रश्च पञ्चमः। इह वेदाः प्रतिष्ठेरन्नेष नः काङ्क्षितो वरः।। | 12-335-41a 12-335-41b |
शिष्याणां वचनं श्रुत्वा व्यासो वेदार्थतत्त्ववित्। पराशरात्मजो धीमान्परलोकार्थचिन्तकः।। | 12-335-42a 12-335-42b |
उवाच शिष्यान्धर्मात्मा धर्म्यं नैःश्रेयसं वचः। ब्राह्मणाय सदा देयं ब्रह्म शुश्रूषवे तथा।। | 12-335-43a 12-335-43b |
ब्रह्मलोके निवासं यो ध्रुवं समभिकाङ्क्षते। भवन्तो बहुलाः सन्तु वेदो विस्तार्यतामयम्।। | 12-335-44a 12-335-44b |
नाशिष्ये संप्रदातव्यो नाव्रते नाकृतात्मनि। एते शिष्यगुणाः सर्वे विज्ञातव्या यथार्थतः। नापरीक्षितचारित्रे विद्या देया कथंचन।। | 12-335-45a 12-335-45b 12-335-45c |
यथा हि कनकं शुद्धं तापच्छेदनिकर्षणैः। परीक्षेत तथा शिष्यानीक्षेत्कुलगुणादिभिः।। | 12-335-46a 12-335-46b |
न नियोज्याश्च वः शिष्या अनियोगे महाभये। यथामति यथापाठं तथा विद्या फलिष्यति।। | 12-335-47a 12-335-47b |
सर्वस्तरतु दुर्गाणि सर्वो भद्राणि पश्यतु। श्रावयेच्चतुरो वर्णान्कृत्वा ब्राह्मणमग्रतः।। | 12-335-48a 12-335-48b |
वेदस्याध्ययनं हीदं तच्च कार्यं महत्स्मृतम्। स्तुत्यर्थमिह देवानां वेदाः सृष्टाः स्वयंभुवा।। | 12-335-49a 12-335-49b |
यो निर्वदेत संमोहाद्ब्राह्मणां वेदपारगम्। सोऽभिध्यानाद्ब्राह्मणस्य पराभूयादसंशयम्।। | 12-335-50a 12-335-50b |
यश्चाधर्मेण विब्रूयाद्यश्चाधर्मेण पृच्छति। तयोरन्यतरः प्रैति विद्वेषं चाधिगच्छति।। | 12-335-51a 12-335-51b |
एतद्वः सर्वमाख्यातं स्वाध्यायस्य विधिं प्रति। उपकुर्याच्च शिष्याणामेतच्च हृद्वि वो भवेत्।। | 12-335-52a 12-335-52b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पञ्चत्रिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 335।। |
12-335-2 शैशिरं गिरिं हिमालयम्।। 12-335-4 सहस्रैश्च राजहँसैस्तथैव चेति ड. पाठः।। 12-335-24 आसीदिति शेषः।।
शांतिपर्व-334 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-336 |