महाभारतम्-12-शांतिपर्व-348
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श्वेतद्वीपस्थेन हरिणा नारदंप्रति स्वदशावतारचरित्रकथनम्।। 1।।
भीष्म उवाच। | 12-348-1x |
नारदः परिप्रपच्छ भगवन्तं जनार्दनम्। एकार्णवे महाघोरे नष्टे स्थावरजङ्गमे। | 12-348-1a 12-348-1b |
श्रीभगवानुवाच। | 12-348-2x |
शृणु नारद तत्वेन प्रादुर्भावान्महामुने। मत्स्यः कूर्मो वराहश्च नरसिंहोऽथ वामनः। रामो रामश्च रामश्च कुद्धः कल्कीति ते दश।। | 12-348-2a 12-348-2b 12-348-2c |
पूर्वं मीनो भविष्यामि स्थापयिष्याम्यहं प्रजाः। लोकान्वै धारयिष्यामि मज्जमानान्महार्णवे।। | 12-348-3a 12-348-3b |
द्वितीयः कूर्मरूपो मे हेमकूटनिभः स्मृतः। मन्दरं धारयिष्यामि अमृतार्थं द्विजोत्तम।। | 12-348-4a 12-348-4b |
मप्रां महार्णवे घोरे भाराक्रान्तां भुवं पुनः। ततो बलादहं विद्वन्सर्वभूतहिताय वै।।' | 12-348-5a 12-348-5b |
सत्वैराक्रान्तसर्वाङ्गां नष्टां सागरमेखलाम्। आनयिष्यामि स्वं स्थानं वाराहं रूपमास्थितः। हिरण्याक्षं हनिष्यामि दैतेयं बलगर्वितम्।। | 12-348-6a 12-348-6b 12-348-6c |
नारसिंहं वषुः कृत्वा हिरण्यकशिषुं पुनः। सुरकार्ये हनिष्यामि यज्ञघ्नं दितिनन्दनम्।। | 12-348-7a 12-348-7b |
विरोचनस्य बलवान्बलिः पुत्रो महासुरः। अवध्यः सर्वलोकानां सदेवासुररक्षसाम्। भविष्यति स शक्रं च स्वराज्याच्च्यावयिष्यति।। | 12-348-8a 12-348-8b 12-348-8c |
त्रैलोक्येऽपहृते तेन विमुखे च शचीपतौ। अदित्यां द्वादशः पुत्रः संभविष्यामि कश्यपान्।। | 12-348-9a 12-348-9b |
`वटुर्गत्वा यज्ञसदः स्तूयमानो द्विजोत्तमैः। यज्ञस्तुतिं करिष्यामि श्रुत्वा प्रीतो भवेद्वलिः।। | 12-348-10a 12-348-10b |
किमिच्छसि वटो ब्रूहीत्युक्तो याचे महद्वरम्। | 12-348-11a 12-348-11b |
स दद्यान्मयि संप्रीतः प्रतिषिद्धश्च मन्त्रिभिः। | 12-348-12a 12-348-12b |
ततो राज्यं प्रदास्यामि शक्रायामिततेजसे। | 12-348-13a 12-348-13b |
बलिं चैव करिष्यामि पातालतलवासिनम्। | 12-348-14a 12-348-14b |
त्रेतायुगे भविष्यामि रामो भृगुकुलोद्वहः। | 12-348-15a 12-348-15b |
संधौ तु समनुप्राप्ते त्रेतायां द्वापरस्य च। | 12-348-16a 12-348-16b |
त्रितोपघाताद्वैरूप्यमेकतोऽथ द्वितस्तथा। | 12-348-17a 12-348-17b |
तयोर्ये त्वन्वये जाता भविष्यन्ति वनौकसः। | 12-348-18a 12-348-18b |
ते सहाया भविष्यन्ति सुरकार्ये मम द्विज।। | 12-348-19a 12-348-19b 12-348-19c |
` विभीषणाय दास्यामि राज्यं तस्य यथाक्रमम्> | 12-348-20a 12-348-20b |
द्वापरस्य कलेश्चैव संधौ पार्यवसानिके। प्रादुर्भावः कंसहेतोर्मथुरायां भविष्यति।। | 12-348-21a 12-348-21b |
तत्राहं दानवान्हत्वा सुबहून्देवकण्टकान्। कुशस्थलीं करिष्यासि निवासं द्वारकां पुरीम्।। | 12-348-22a 12-348-22b |
वसानस्तत्र वै पुर्यामदितेर्विप्रियंकरम्। हनिष्ये नरकं भौमं मुरं पीठं च दानवम्।। | 12-348-23a 12-348-23b |
प्राग्ज्योतिषं पुरं रम्यं नानाधनसमन्वितम्। कुशस्थलीं नष्यिष्यामि हत्वा वै दानवोत्तमान्।। | 12-348-24a 12-348-24b |
`कृकलास भूतं च नृगं मोचयिष्ये च वै पुनः।। | 12-348-25a |
तत्र पौत्रनिमित्तेन गत्वा वै शोणितं पुरम्। वाणस्य च पुरं गत्वा करिष्ये कदनं महत्।।' | 12-348-26a 12-348-26b |
शंकरं रमहासेनं बाणप्रियहिते रतम्। पराजेष्याम्यथोद्युक्तौ देवौ लोकनमस्कृतौ।। | 12-348-27a 12-348-27b |
ततः सुतं बलेर्जित्वा बाणं बाहुसहस्त्रिणम्। विनाशयिष्यामि ततः सर्वान्सौभनिवासिनः।। | 12-348-28a 12-348-28b |
यः कालयवनः ख्यातो गर्गतेजोभिसंवृतः। भविष्यति वधस्तस्य मत्त एव द्विजोत्तम।। | 12-348-29a 12-348-29b |
`कंसं केशिं तथाक्रूरमरिष्टं च महासुरम्। चाणूरं च महावीर्यं मुष्टिकं च महाबलम्।। | 12-348-30a 12-348-30b |
प्रलम्बं धेनुकं चैव अरिष्टं वृषरूपिणम्। कालीयं च वशे कृत्वा यमुनाया महाह्रदे।। | 12-348-31a 12-348-31b |
गोकुलेषु ततः पश्चाद्भवार्थे तु महागिरिम्। सप्तरात्रं धरिष्यामि वर्षमाणे तु वासवे।। | 12-348-32a 12-348-32b |
अपक्रान्ते ततो वर्षे गिरिमूर्ध्निं व्यवस्थितः। इन्द्रेण सह संवादं करिष्यामि तदा द्विज। लघ्वाच्छिद्य धनं सर्वं वासुदेवं च पौण्ड्रकम्।।' | 12-348-33a 12-348-33b 12-348-33c |
जरासन्धश्च बलवान्सर्वराजविरोधनः भविष्यत्यसुरः स्फीतो भूमिपालो गिरिव्रजे।। | 12-348-34a 12-348-34b |
मम बुद्धिपरिस्पन्दाद्वधस्तस्य भविष्यति। शिशुपालं वधिष्यामि यज्ञे धर्मसुतस्य वै।। | 12-348-35a 12-348-35b |
`दुर्योधनापराधेन युधिष्ठिरगुणेन च।' समागतेषु बलिषु पृथिव्यां सर्वराजसु।। | 12-348-36a 12-348-36b |
वासविः सुसहायो वै मम त्वेको भविष्यति। युधिष्ठिरं स्थापयिष्ये स्वराज्ये भ्रातृभिः सह।। | 12-348-37a 12-348-37b |
एवं लोका वदिष्यन्ति नरनारायणावृषी। उद्युक्तौ दहतः क्षत्रं लोककार्यार्थमीश्वरौ।। | 12-348-38a 12-348-38b |
`शस्त्रैर्निपतिताः सर्वे नृपा यास्यन्ति वै दिवम्।।' | 12-348-39a |
कृत्वा भारावतरणं वसुधाया यथेप्सितम्। सर्वसात्वतमुख्यानां द्वारकायाश्च सत्तम।। | 12-348-40a 12-348-40b |
करिष्ये प्रलयं घोरमात्मज्ञानाभिसंश्रयः। `द्वारकामात्मसात्कृत्वा समुद्रं गमयाम्यहम्।। | 12-348-41a 12-348-41b |
ततः कलियुगस्यादौ द्विजराजतरुं श्रितः। भीषया मागधेनैव धर्मराजगृहे वसन्।। | 12-348-42a 12-348-42b |
काषायवस्रसंवीतो मुण्डितः शुक्लदन्तवान्। शुद्धोदनसुतो बुद्धो मोहयिष्यामि मानवान्।। | 12-348-43a 12-348-43b |
शूद्राः सुद्धेषु भुज्यन्ते मयि बुद्धत्वमागते। भविष्यन्ति नराः सर्वे बुद्धाः काषायसंवृताः।। | 12-348-44a 12-348-44b |
अनध्याया भविष्यन्ति विप्रा यागविवर्जिताः। अग्निहोत्राणि सीदन्ति गुरुपूजा च नश्यति।। | 12-348-45a 12-348-45b |
न शृण्वन्ति पितुः पुत्रा न स्नुषा नैव भ्रातरः। न पौत्रा न कलत्रा वा वर्तन्तेऽप्यधमोत्तमाः।। | 12-348-46a 12-348-46b |
एवंभूतं जगत्सर्वं श्रुतिस्मृतिविवर्जितम्। भविष्यति कलौ पूर्णे ह्यशुद्धो धर्मसंकरः।। | 12-348-47a 12-348-47b |
तेषां सकाशाद्धर्मज्ञा देवब्रह्मविदो नराः। भविष्यन्ति ह्यशुद्धाश्च न्यायच्छलविभाषिणः।। | 12-348-48a 12-348-48b |
ये नष्टधर्मश्रोतारस्ते समाः पापनिश्चये। तस्मादेता न संभाष्या न स्पृश्या च हितार्थिभिः। उपवासत्रयं कुर्यात्तत्संसर्गविशुद्धये।। | 12-348-49a 12-348-49b 12-348-49c |
ततः कलियुगस्यान्ते ब्राह्मणो हरिपिङ्गलः। कल्किर्विष्णुयशः पुत्रो याज्ञवल्क्यः पुरोहितः।। | 12-348-50a 12-348-50b |
तस्मिन्नाशे वनग्रामे तिष्ठेत्सोन्नासिमो हयः। सहया ब्राह्मणाः सर्वे तैरहं सहितः पुनः। म्लेच्छानुत्सादयिष्यामि पाषण्डांश्चैव सर्वशः।। | 12-348-51a 12-348-51b 12-348-51c |
पाषण्डश्च कलौ तत्र माययैव विनश्यते। पाषण्डकांश्चैव हत्वा तत्रान्तं प्रलये ह्यहम्।। | 12-348-52a 12-348-52b |
ततः पश्चाद्भविष्यामि यज्ञेषु निरतः सदा। राज्यं प्रशासति पुनः कुन्तीपुत्र युधिष्ठिरे।।' | 12-348-53a 12-348-53b |
कर्माण्यपरिमेयानि चतुर्मूर्तिधरो ह्यहम्। कृत्वा लोकान्गमिष्यामि स्वानहं ब्रह्मसत्कृतान्।। | 12-348-54a 12-348-54b |
हंसः कूर्मश्च मत्स्यश्च प्रादुर्भावा द्विजोत्तम। वराहो नरसिंहश्च वामनो राम एव च। रामो दाशरथिश्चैव सात्वतः कल्किरेव च।। | 12-348-55a 12-348-55b 12-348-55c |
यदा वेदश्रुतिर्नष्टा मया प्रत्याहृता पुनः। सर्वदाः सश्रुतीकाश्च कृताः पूर्वं कृते युगे।। | 12-348-56a 12-348-56b |
अतिक्रान्ताः पुराणेषु श्रुतास्ते यदि वा क्वचित्। अतिक्रान्ताश्च बहवः प्रादुर्भावा ममोत्तमाः।। | 12-348-57a 12-348-57b |
लोककार्याणि कृत्वा च पुनः स्वां प्रकृतिं गताः। न ह्येतद्ब्रह्मणा प्राप्तमीदृशं मम दर्शनम्।। | 12-348-58a 12-348-58b |
यत्त्वया प्राप्तमद्येह एकान्तगतबुद्धिना। एतत्ते सर्वमाख्यातं ब्रह्मन्भक्तिमतो मया। पुराणं च भविष्यं च सरहस्यं च सत्तम।। | 12-348-59a 12-348-59b 12-348-59c |
भीष्म उवाच। | 12-348-60x |
एवं स भगवान्देवो विश्वमूर्तिधरोऽव्ययः। एतावदुक्त्वा वचनं तत्रैवान्तर्दधे पुनः।। | 12-348-60a 12-348-60b |
नारदोऽपि महातेजाः प्राप्यानुग्रहमीप्सितम्। नरनारायणौ द्रष्टुं बदर्याश्रममाद्रवत्।। | 12-348-61a 12-348-61b |
इदं महोपनिषदं चतुर्वेदसमन्वितम्। सांख्ययोगकृतं तेन पञ्चरात्रानुशब्दितम्।। | 12-348-62a 12-348-62b |
नारायंणमुखोदीतं नारदोऽश्रावयत्पुनः। ब्रह्मणः सदने तात यथादृष्टं यथाश्रुतम्।। | 12-348-63a 12-348-63b |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-348-64x |
एतदाश्चर्यभूतं हि माहात्म्यं तस्य धीमतः। किं वै ब्रह्मा न जानीते यतः शुश्राव नारदात्।। | 12-348-64a 12-348-64b |
पितामहोऽपि भगवांस्तस्माद्देवादनन्तरः। कथं स न विजानीयात्प्रभावममितौजसः।। | 12-348-65a 12-348-65b |
भीष्म उवाच। | 12-348-66x |
महाकल्पसहस्राणि महाकल्पशतानि च। समतीतानि राजेन्द्र सर्गाश्च प्रलयाश्च ह।। | 12-348-66a 12-348-66b |
सर्गस्यादौ स्मृतो ब्रह्मा प्रजासर्गकरः प्रभुः। जानाति देवप्रवरं भूयश्चातोधिकं नृप। परमात्मानमीशानमात्मनः प्रभवं तथा।। | 12-348-67a 12-348-67b 12-348-67c |
ये त्वन्ये ब्रह्मसदने सिद्धसङ्घाः समागताः। तेभ्यस्तच्छ्रावयामास पुराणं वेदसंमितम्।। | 12-348-68a 12-348-68b |
अष्टाविंशत्सहस्राणि ऋषीणां भावितात्मनाम्। आत्मानुगामिनां ब्रह्मा श्रावयामास तत्वतः। एवं पुरा प्राप्तमिदं भानुना मुनिभाषितम्।। | 12-348-69a 12-348-69b 12-348-69c |
वर्षषष्टिसहस्राणि षष्टिवर्षशतानि च। सूर्यस्य तपतो लोकान्निर्मिता ये पुरःसराः। तेषामकथयत्सूर्यः सर्वेषां भावितात्मनाम्।। | 12-348-70a 12-348-70b 12-348-70c |
सूर्यानुगामिभिस्तात ऋषिभिस्तैर्महात्मभिः। मेरौ समागता देवाः श्राविताश्चेदनुत्तमम्।। | 12-348-71a 12-348-71b |
देवानां तु सकाशाद्वै ततः श्रुत्वाऽसितो द्विजः। श्रावयामास राजेन्द्र पितॄन्वै मुनिसत्तमः।। | 12-348-72a 12-348-72b |
मम चापि पिता तात कथयामास शंतनुः। ततो मयापि श्रुत्वा च कीर्तितं तव भारत।। | 12-348-73a 12-348-73b |
सुरैर्वा मुनिभिर्वापि पुराणं यैरिदं श्रुतम्। सर्वे ते परमात्मानं पूजयन्ते समन्ततः।। | 12-348-74a 12-348-74b |
इदमाख्यानमार्षेयं पारम्पर्यागतं नृप। नावासुदेवभक्ताय त्वया देयं कथंचन।। | 12-348-75a 12-348-75b |
`आख्यानमुत्तमं चेदं श्रावयेद्यः सदा नृप। तदैव मनुजो भक्तः शुचिर्भूत्वा समाहितः। प्राप्नुयादचिराद्राजन्विष्णुलोकं च शाश्वतम्।।' | 12-348-76a 12-348-76b 12-348-76c |
मत्तोन्यानि च ते राजन्नुपाख्यानशतानि वै। यानि श्रुतानि सर्वाणि तेषां सारोयमुद्धृतः।। | 12-348-77a 12-348-77b |
सुरासुरैर्यथा राजन्निर्मथ्यामृतमुद्धृतम्। एवमेतत्पुरा विप्रैः कथामृतमिहोद्धृतम्।। | 12-348-78a 12-348-78b |
यश्चेदं पठते नित्यं यश्चेदं शृणुयान्नरः। एकान्तभावोपगत एकान्ते सुसमाहितः।। | 12-348-79a 12-348-79b |
प्राप्य श्वेतं महाद्वीपं भूत्वा चन्द्रप्रभो नरः। स सहस्रार्चिपं देवं प्रविशेन्नात्र संशयः।। | 12-348-80a 12-348-80b |
मुच्येदार्तस्तथा रोगाच्छ्रुत्वेमामादितः कथाम्। जिज्ञासुर्लभते कामान्भक्तो भक्तगतिं व्रजेत्।। | 12-348-81a 12-348-81b |
त्वयापि सततं राजत्रभ्यर्च्यः पुरुषोत्तमः। स हि माता पिता चैव कृत्स्नस्य जगतो गुरुः।। | 12-348-82a 12-348-82b |
ब्रह्मण्यदेवो भगवान्प्रीयतां ते सनातनः। युधिष्ठिर महाबाहो महाबुद्धिर्जनार्दनः।। | 12-348-83a 12-348-83b |
वैशंपायन उवाच। | 12-348-84x |
श्रुत्वैतदाख्यानवरं धर्मराड्जनमेजय। भ्रातरश्चास्य ते सर्वे नारायणपराभवन्।। | 12-348-84a 12-348-84b |
जितं भगवता तेन पुरुषेणेति भारत। नित्यं जप्यपरा भूत्वा सारस्वतमुदीरयन्।। | 12-348-85a 12-348-85b |
यो ह्यस्माकं गुरुः श्रेष्ठः कृष्णद्वैपायनो मुनिः। जगौ परमकं जप्यं नारायणमुदीरयन्।। | 12-348-86a 12-348-86b |
गत्वान्तरिक्षात्सततं क्षीरोदममृताशयम्। पूजयित्वा च देवेशं पुनरायात्स्वगाश्रमम्।। | 12-348-87a 12-348-87b |
भीष्म उवाच। | 12-348-88x |
एतत्ते सर्वमाख्यातं नारदोक्तं मयेरितम्। पारम्पर्यागतं ह्येतत्पित्रा मे कथितं पुरा।। | 12-348-88a 12-348-88b |
सौतिरुवाच। | 12-348-89x |
एतत्ते सर्वमाख्यातं वैशंपायनकीर्तितम्। जनमेजयेन तच्छ्रुत्वा कृतं सम्यग्यथाविधि।। | 12-348-89a 12-348-89b |
यूयं हि तप्ततपसः सर्वे च चरितव्रताः। शौनकस्य महासत्रं प्राप्ताः सर्वे द्विजोत्तमाः। | 12-348-90a 12-348-90b |
यजध्वं सुहुतैर्यज्ञैः शाश्वतं परमेश्वरम्। पारम्पर्यागतं ह्येतत्पित्रा मे कथितं पुरा।। | 12-348-91a 12-348-91c |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि नारायणीये अष्टचत्वारिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 348।। |
12-348-2 रामश्च कृष्णः कल्की च ते दशेति थ. पाठः।। 12-348-6 यज्ञघ्नं बलगर्वितमिति ध. पाठः।। 12-348-9 अदित्यां द्वादशादित्य इति झ. पाठः।। 12-348-15 ततः कृतयुगे प्राप्ते द्वात्रिंशद्युगपर्यये। भविष्यामि ऋषिस्तत्र जमदग्निकुलोद्भवः। इति ध. पाठः।। 12-348-19 रावणं दृप्तं सर्वलोकैककण्टकमिति ट. पाठः।। 12-348-21 द्वपारस्य कलेश्चैव अष्टार्विशच्चतुर्युगे। प्रादुर्भावं करिष्यामि भूयो वृष्णिकुलोद्भवः। मधुरायां कंसहेतोर्वासुदेवेति नामतः। तृतीयो राम इत्येव वसुदेवसुतो बलीति थ. ध. पाठः। कलेश्चैव अष्टार्विशच्चतुर्युगे इति ध. पाठः।। 12-348-58 ईदृशं ब्रह्मदर्शनमिति ध. पाठः।।
शांतिपर्व-347 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-349 |