महाभारतम्-12-शांतिपर्व-003
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कदाचन रामे कर्णोत्सङ्गे शिरो निधाय निद्राणे केनचित्क्रिमिणा कर्णस्योरुभेदनम्।। 1।। तदूरोः प्रस्रुतरुधिरक्लेदात्प्रबुद्धेन रामेण कर्णस्य शापदानम्।। 2।। रामाज्ञया कर्णस्य स्वदेशगमनम्।। 3।।
नारद उवाच। | 12-3-1x |
कर्णस्य बाहुवीर्येण प्रश्रयेण दमेन च। तुतोष भृगुशार्दूलो गुरुशुश्रूषया तथा।। | 12-3-1a 12-3-1b |
ततस्तस्मै महातेजा ब्रह्मास्त्रं सनिवर्तनम्। प्रोवाच सुमहाप्रज्ञः स तपस्वी तपस्विने।। | 12-3-2a 12-3-2b |
विदितास्त्रस्ततः कर्णो रममाणोऽऽश्रमे भृगोः। चकार वै धनुर्वेदे यत्नमद्भुतविक्रमः।। | 12-3-3a 12-3-3b |
ततः कदाचिद्रामस्तु चरन्नाश्रममन्तिकात्। कर्णेन सहितो धीमानुपवासेन कर्शितः।। | 12-3-4a 12-3-4b |
सुष्वाप जामदग्न्यस्तु विस्रम्भोत्पन्नसौहृदः। तस्योत्सङ्गे समाधाय शिरः क्लान्तमना गुरुः।। | 12-3-5a 12-3-5b |
अथ क्रिमिः श्लेष्ममयो मांसशोणितभोजनः। दारुणो दारुणाकारः कर्णस्याभ्याशमागतः।। | 12-3-6a 12-3-6b |
स तस्योरुमथासाद्य बिभेद रुधिराशनः। न चैनमशकत्क्षेप्तुं वक्तुं वाऽपि गुरोर्भयात्।। | 12-3-7a 12-3-7b |
स दश्यमानोऽपि तथा कृमिणा तेन भारत। गुरोः प्रबोधनाकाङ्क्षी तमुपैक्षत सूर्यजः।। | 12-3-8a 12-3-8b |
कर्णस्तु वेदनां धैर्यादसह्यां विनिगृह्य ताम्। अकम्पयन्नव्यथयन्धारयामास भार्गवम्।। | 12-3-9a 12-3-9b |
यदा स रुधिरेणाङ्गे परिस्पृष्टोऽभवद्गुरुः। तदाऽबुध्यत तेजस्वी संरब्धश्चैनमब्रवीत्।। | 12-3-10a 12-3-10b |
अहोऽस्म्यशुचितां प्राप्तः किमिदं च कृतं त्वया। कथयस्व भयं त्यक्त्वा याथातथ्यमिदं मम।। | 12-3-11a 12-3-11b |
तस्य कर्णस्तदाचष्ट कृमिणा परिभक्षणम्। ददर्श रामस्तं चापि कृमिं सूकरसंस्थितम्।। | 12-3-12a 12-3-12b |
अष्टपादं तीक्ष्णदंष्ट्रं सूचीभिः परिसंवृतम्। रोमभिः सन्निरुद्धाङ्गमलर्कं नाम नामतः।। | 12-3-13a 12-3-13b |
स दृष्टमात्रो रामेण किमिः प्राणानवासृजत्। तस्मिन्नेवासृजि क्लिन्नस्तदद्भुतमिवाभवत्।। | 12-3-14a 12-3-14b |
ततोऽन्तरिक्षे ददृशे विश्वरूपः करालवान्। राक्षसो लोहितग्रीवः कृष्णाङ्गो मेघवाहनः।। | 12-3-15a 12-3-15b |
स रामं प्राञ्जलिर्भूत्वा बभाषे पूर्णमानसः। स्वस्ति ते भृगुशार्दूल गमिष्येऽहं यथागतम्।। | 12-3-16a 12-3-16b |
मोक्षितो नरकादस्माद्भवता मुनिसत्तम। भद्रं च तेऽस्तु सिद्धिश्च प्रियं मे भवता कृतम् | 12-3-17a 12-3-17b |
तमुवाच महाबाहुर्जामदग्न्यः प्रतापवान्। कस्त्वं कस्माच्च नरकं प्रतिपन्नो ब्रवीहि तत्।। | 12-3-18a 12-3-18b |
सोऽब्रवीदहमासं प्राग्दंशो नाम महासुरः। पुरा देवयुगे तात भृगोस्तु सवया इव।। | 12-3-19a 12-3-19b |
सोऽहं भृगोः सुदयितां भार्यामपहरं बलात्। महर्षेरभिशापेन क्रिमिभूतोऽपतं भुवि।। | 12-3-20a 12-3-20b |
अब्रवीद्धि स मां क्रुद्धस्तव पूर्वपितामहः। मूत्र श्लेष्माशनः पाय निरयं प्रतिपत्स्यसे।। | 12-3-21a 12-3-21b |
शापस्यान्तो भवेद्ब्रह्मन्नित्येवं तमथाब्रवम्। भविता भार्गवाद्रामादिंति मामब्रवीद्भृगुः।। | 12-3-22a 12-3-22b |
सोऽहमेनां गतिं प्राप्तो यथा नकुशलस्तथा। त्वया साधो समागम्य विमुक्तः पापयोनितः।। | 12-3-23a 12-3-23b |
एवमुक्त्वा नमस्कृत्य ययौ रामं महासुरः। रामः कर्णं तु सक्रोधमिदं वचनमब्रवीत्।। | 12-3-24a 12-3-24b |
अतिदुःखमिदं मूढ न जातु ब्राह्मणः सहेत्। क्षत्रियस्येव ते धैर्यं कामया सत्यमुच्यताम्।। | 12-3-25a 12-3-25b |
तमुवाच ततः कर्णः शापाद्भीतः प्रसादयन्। ब्रह्मक्षत्रान्तरे जातं सूतं मां विद्धि भार्गव।। | 12-3-26a 12-3-26b |
राधेयः कर्ण इति मां प्रवदन्ति जना भुवि। प्रसादं कुरु मे ब्रह्मन्नस्त्रलुब्धस्य भार्गव।। | 12-3-27a 12-3-27b |
पिता गुरुर्न संदेहो वेदविद्याप्रदः प्रभुः। अतो भार्गव इत्युक्तं मया गोत्रं तवान्तिके।। | 12-3-28a 12-3-28b |
तमुवाच भृगुश्रेष्ठः सरोपः प्रदहन्निव। भूमौ निपतितं दीनं वेपमानं कृताञ्जलिम्।। | 12-3-29a 12-3-29b |
यस्मान्मिथ्याविचीर्णोऽहमस्त्रलोभादिह त्वया। तस्मादेतन्न ते मूढ ब्रह्मास्त्रं प्रतिभास्यति।। | 12-3-30a 12-3-30b |
अन्यत्र वधकालात्ते सदृशे न समीयुपः। अब्राह्मणे न हि ब्रह्म चिरं तिष्ठेत्कदाचन।। | 12-3-31a 12-3-31b |
गच्छेदानीं न ते स्थानमनृतस्येह विद्यते। न त्वया सदृशो युद्धे भविता क्षत्रियो भुवि।। | 12-3-32a 12-3-32b |
एवमुक्तः स रामेण न्यायेनोपजगामह। दुर्योधनमुपागम्य कृतास्त्रोऽस्मीति चाब्रवीत्।। | 12-3-33a 12-3-33b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि तृतीयोऽध्यायः।। 3।। |
12-3-1 दभेनेन्द्रियजयेन।। 12-3-5 विस्रम्भो विश्वासः।। 12-3-6 श्लेष्ममेदोमांसेति झ. पाठः।। 12-3-7 क्षेप्तुं दूरीकर्तुम्। भयान्निद्राभङ्गभयात्।। 12-3-8 प्रबोधनाशङ्कीति झ. पाठः। 12-3-12 सूकरस्येव संस्थितं संस्थानं पस्य तम्। सूकरसन्निभमिति झ. पाठः।। 12-3-13 सूचीभिरिव तीक्ष्णै रोमभिः संवृतम्। सन्निरुद्धाङ्गं त्रासेन संकुचिताङ्गं नाम प्रसिद्धम्। नामतो नाम्रा।। 12-3-14 असृजि शोणिते।। 12-3-19 यास्को नामेति ड. पाठः। प्रस्तो नामेति थ. पाठः। देवयुगे सत्ययुगे।। 12-3-23 नकुशलः अभद्रः।। 12-3-25 कामया स्वरसेन। कामये सत्यमुच्यतामिति ट.ड. पाठः।। 12-3-26 ब्रह्मक्षत्रयोरन्तरे अन्यत्र जातम्।। 12-3-29 प्रहसन्निवेति थ. पाठः।। 12-3-30 तस्मादिति। हेमूढ ते तव वधकालादन्यत्र ब्रह्मास्त्रं न प्रतिभास्यतीति न किंतु वधकालएव न प्रतिभास्यति। कालान्तरे तु प्रतिभास्यत्येवेत्यर्थ इत्युत्तरेण संबन्धः।। 12-3-31 सदृशेऽर्जुनादौ शूरे ते पुरतः स्थिते समीयुषः युध्यमानस्य। समित्याजिसमिद्युध इति संपूर्वस्य इणो युद्धार्थत्वदर्शनात्। चिरं मरणावधि न तिष्ठेद्ब्रह्म ब्रह्मास्त्रम्।। 12-3-33 न्यायेनाभिवन्दनादिपूर्वकं उपजगाम। इष्टं देशमिति शेषः।।
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