महाभारतम्-12-शांतिपर्व-102
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति सेनाया जयचिह्नानां राजनीतेश्च कथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-102-1x |
जयिन्याः कानि रूपाणि भवन्ति भरतर्षभ। पृतनायाः प्रशस्तानि तानि चेच्छामि वेदितुम्।। | 12-102-1a 12-102-1b |
भीष्म उवाच। | 12-102-2x |
जयिन्या यानि रूपाणि भवन्ति भरतर्षभ। पृतनायाः प्रशस्तानि तानि वक्ष्यामि सर्वशः।। | 12-102-2a 12-102-2b |
दैवे पूर्वं प्रकुपिते मानुषे कालचोदिते। तद्विद्व अऽनुपस्यन्ति ज्ञानदीर्घेण चक्षुषा।। | 12-102-3a 12-102-3b |
प्रायश्चित्तविधिं चात्र जपहोमांश्च तद्विदः। मङ्गल नि च कुर्वन्ति शमयन्त्यहितानि च।। | 12-102-4a 12-102-4b |
उदीणानसो योधा वाहनानि च भारत। यस्यां भवन्ति सेनायां ध्रुवं तस्या जयो भवेत्।। | 12-102-5a 12-102-5b |
अन्वेव वायवो यान्ति तथैवेन्द्रधनूंषि च। अनुप्लवन्ते मेघाश्च तथाऽऽदित्यस्य रश्मयः।। | 12-102-6a 12-102-6b |
गोमायवश्चातुलोमबला गृध्राश्च सर्वशः। अर्हयेयुर्यदा सेनां तदा सिद्धिरनुत्तमा।। | 12-102-7a 12-102-7b |
प्रसन्नभाः पावकश्चोर्ध्वरश्मिः प्रदक्षिणावर्तशिखो विधूमः। पुण्या गन्धाश्चाहुतीनां भवन्ति जयस्यैतद्भाविनो रूपमाहुः।। | 12-102-8a 12-102-8b 12-102-8c 12-102-8d |
गम्भीरशब्दाश्च महास्वनाश्च शङ्ख्याश्च भेर्यश्च नदन्ति यत्र। युयुत्सवश्चाप्रतीपा भवन्ति जयस्यैतद्भाविनो रूपमाहुः।। | 12-102-9a 12-102-9b 12-102-9c 12-102-9d |
इष्टा मृगाः पृष्ठतो वामतश्च संप्रस्थितानां च गमिष्यतां च। जिघांसतां दक्षिणाः सिद्धिमाहु र्ये त्वग्रतस्ते प्रतिषेधयन्ति।। | 12-102-10a 12-102-10b 12-102-10c 12-102-10d |
माङ्गल्यशब्दाञ्शकुना वदन्ति हंसाः क्रौञ्चाः शतपत्राश्च चाषाः। हृष्टा योधाः सत्ववन्तो भवन्ति जयस्यैतद्भाविनो रूपमाहुः।। | 12-102-11a 12-102-11b 12-102-11c 12-102-11d |
शस्त्रैर्यन्त्रैः कवचैः केतुभिश्च सुभानुभिर्मुखवर्णैश्च यूनाम्। भ्राजिष्मती दुष्प्रतिवीक्षणीया येषां चमूस्तेऽभिभवन्ति शत्रून्।। | 12-102-12a 12-102-12b 12-102-12c 12-102-12d |
शुश्रूषवश्चानभिमानिनश्च परस्परं सौहृदमास्थिताश्च। येषां योधाः शौर्यमनुष्ठिताश्च जयस्यैतद्भाविनो रुपमाहुः।। | 12-102-13a 12-102-13b 12-102-13c 12-102-13d |
शब्दाः स्पर्शास्तथा गन्धा विचरन्ति मनः प्रियाः। धैर्यं चाविशते योधान्विजयस्य मुखं च तत्।। | 12-102-14a 12-102-14b |
शब्दो वामः प्रस्थितस्य दक्षिणः प्रविविक्षतः। पश्चात्संसाधयत्यर्थं पुरस्ताच्च निषेधति।। | 12-102-15a 12-102-15b |
संहत्य महतीं सेनां चतुरङ्गां युधिष्ठिर। साम्नैव वर्तयेः पूर्वं प्रसतेथास्ततो युधि।। | 12-102-16a 12-102-16b |
जघन्य एष विजयो यद्युद्धे सामभाषणम्। यादृच्छिको युधि जयो दैवेनेति विचारणम्।। | 12-102-17a 12-102-17b |
आपगेव महावेगा त्रस्ता इव महामृगाः। दुर्निवार्यतमा चैव प्रभग्ना महती चमूः।। | 12-102-18a 12-102-18b |
भग्ना इत्येव भज्यन्ते विद्वांसोऽपि न कारणम्। उदारसारा महती रुरुसंघोपमा चमूः।। | 12-102-19a 12-102-19b |
परस्परज्ञाः संहृष्टास्त्यक्तप्राणाः सुनिश्चिताः। अपि पञ्चत्रतै शूरा निघ्नन्ति परवाहिनीम्।। | 12-102-20a 12-102-20b |
अपि वा पञ्चषट्सप्तसंहिताः कृतनिश्चयाः। क्ललीनाः पूजिताः सम्यग्विजयन्तीह शात्रवान्।। | 12-102-21a 12-102-21b |
सन्निपातो न मन्तव्यः शक्ये सति कथंचन। सान्त्वभेदप्रदानानां युद्धमुत्तरमुच्यते।। | 12-102-22a 12-102-22b |
संसर्पेण हि सेनाया भयं भीरून्प्रबाधते। वज्रादिय प्रज्वलितादियं स्वित्क्षपयिष्यति।। | 12-102-23a 12-102-23b |
अमिप्रयातां समितिं ज्ञात्वा ये प्रतियान्त्यथ। तेषां सन्दन्ति गात्राणि योधानां विवयस्य च।। | 12-102-24a 12-102-24b |
विषयो व्यथते राजन्सर्वः सस्थाणुजङ्गमः। अस्त्रप्रतापतप्तानां मज्जाः सीदन्ति देहिनाम्।। | 12-102-25a 12-102-25b |
तेषां सान्त्वं क्रूरमिश्रं प्रणेतव्यं पुनः पुनः। संपीड्यमाना हि परैर्योगमायान्ति सर्वतः।। | 12-102-26a 12-102-26b |
आन्तराणां च भेदार्थं चरानभ्यवचारयेत्। यश्च तस्मात्परो राजा तेन संधिः प्रशस्यते।। | 12-102-27a 12-102-27b |
न हि तस्यान्यथा पीडा शक्या कर्तुं तथाविधा। यथा सार्धममित्रेण सर्वतः प्रतिबाधनम्।। | 12-102-28a 12-102-28b |
क्षमा वै साधुमायाति न ह्यसाधून्क्षमा सदा। क्षमायाश्चाक्षमायाश्च पार्थ विद्धि प्रयोजनम्।। | 12-102-29a 12-102-29b |
विजित्य क्षममाणस्य यशो राज्ञो विवर्धते। महापराधे ह्यप्यस्मिन्विश्वसन्त्यपि शत्रवः।। | 12-102-30a 12-102-30b |
मन्यन्ते कर्षयित्वा तु क्षमा साध्वीति शाम्बराः। असंतप्तं तु यद्दारु प्रत्येति प्रकृतिं पुनः।। | 12-102-31a 12-102-31b |
नैतत्प्रशंसन्त्याचार्या न चैतत्साधु दर्शनम्। अक्रोधेनाविनाशेन नियन्तव्याः स्वपुत्रवत्।। | 12-102-32a 12-102-32b |
द्वेष्यो भवति भूतानामुग्रो राजा युधिष्ठिर। मृदुमप्यवमन्यन्ते तस्मादुभयभाग्भवेत्।। | 12-102-33a 12-102-33b |
प्रहरिष्यन्प्रियं ब्रूयात्प्रहरन्नपि भारत। प्रहृत्य च प्रियं ब्रूयाच्छोचन्निव रुदन्निव।। | 12-102-34a 12-102-34b |
न मे प्रिया ये स्म हताः संप्रहृष्टाः परेऽपि च। न च कत्थनमेवाग्र्यमुच्यमानं पुनः पुनः।। | 12-102-35a 12-102-35b |
अहो जीवितमाकाङ्क्षेन्नेदृशो वधमर्हति। सुदुर्लभाः सुपुरुषाः संग्रामेष्वपलायिनः।। | 12-102-36a 12-102-36b |
कृतं ममाप्रियं तेन येनायं निहतो मृधे। इति वाचा वदन्हन्तृन्पूजयेत रहोगतः।। | 12-102-37a 12-102-37b |
हन्तॄणां च हतानां च पूजां कुर्याद्यथार्थतः। क्रोशेद्बाहुं प्रगृह्यापि चिकीर्षञ्जनसंग्रहम्।। | 12-102-38a 12-102-38b |
एवं सर्वास्ववस्थासु सान्त्वपूर्वं समाचरेत्। प्रियो भवति भूतानां धर्मज्ञो वीतभीर्नृपः।। | 12-102-39a 12-102-39b |
विश्वासं चात्र गच्छन्ति सर्वभूतानि भारत। विश्वस्तः शक्यते भोक्तुं यथाकालं समुत्थितः।। | 12-102-40a 12-102-40b |
तस्माद्विश्वासयेद्राजा सर्वभूतान्यमायया। सर्वतः परिरक्षेच्च यो महीं भोक्तुमिच्छति।। | 12-102-41a 12-102-41b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि द्व्यधिकशततमोऽध्यायः।। 102।। |
12-102-15 शब्दः काकस्येति शेषः।। 12-102-22 सन्निपातो युद्धम्।। 12-102-24 सन्निति युद्धम्। स्यन्दन्ति स्तिद्यन्ति।। 12-102-25 विधयो देशः।। 12-102-26 योगं सम्विम्।। 12-102-27 आन्तराणां शत्रोः सद्धीनाम्। तस्माच्छत्रोः परः श्रेष्ठस्तेन सन्धिं च कुर्यात्।। 12-102-29 क्षमा वै साध्वमायानां नहि साधु सदा क्षमा इति ड. थ. पाठः।। 12-102-30 अस्मिन्क्षमावति।। 12-102-31 असंताप्य ऋजूकृतं वंशादि पुनर्वक्रीभवत्यर्थः शत्रुं संताप्य क्षमां कुर्यादिति शम्बरस्य दैत्यस्य मतम्।। 12-102-32 स्वमतमाह नैतदिति।। 12-102-40 विस्वस्तो जनः।।
शांतिपर्व-101 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-103 |