महाभारतम्-12-शांतिपर्व-075
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राज्यस्वीकारे अधर्माशङ्किनं युधिष्ठिरं प्रति भीष्मेण तस्य धार्मिकत्वसमर्थनेन तद्विधानम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-75-1x |
यया वृत्त्या महीपालो विवर्धयति मानवान्। पुण्यांश्च लोकाञ्जयति तन्मे ब्रूहि पितामह।। | 12-75-1a 12-75-1b |
भीष्म उवाच। | 12-75-2x |
दानशीलो भवेद्राजा यज्ञशीलश्च भारत। उपवासतपः शीलः प्रजानां पालने रतः।। | 12-75-2a 12-75-2b |
सर्वाश्चैव प्रजा नित्यं राजा धर्मेण पालयन्। उत्थानेन प्रदानेन पूजयेच्चापि धार्मिकान्।। | 12-75-3a 12-75-3b |
राज्ञा हि पूजितो धर्मस्ततः सर्वत्र पूज्यते। यद्यदाचरते राजा तत्प्रजानां स्म रोचते।। | 12-75-4a 12-75-4b |
नित्यमुद्यतदण्डश्च भवेन्मृत्युरिवारिषु। निहन्यात्सर्वतो दस्यून्न राज्ञो दस्युषु क्षमा।। | 12-75-5a 12-75-5b |
यं हि धर्मं चरन्तीह प्रजा राज्ञा सुरक्षिताः। चतुर्थं तस्य धर्मस्य राजा भागं च विन्दति।। | 12-75-6a 12-75-6b |
यदधीते यद्ददाति यञ्जुहोति यदर्चति। राजा चतुर्थभाक्तस्य प्रजा धर्मेण पालयन्।। | 12-75-7a 12-75-7b |
यद्राष्ट्रोऽकुशलं किंचिद्राज्ञो रक्षयतः प्रजाः। चतुर्थं तस्य पापस्य राजा भारत विन्दति।। | 12-75-8a 12-75-8b |
अप्याहुः सर्वमेवेति भूयोऽर्धमिति निश्चयः। कर्मणा पृथिवीपाल नृशंसोऽनृतवागपि।। | 12-75-9a 12-75-9b |
तादृशात्किल्बिपाद्राजा शृणु येन प्रमुच्यते। प्रत्याहर्तुमशक्यं स्याद्धनं चोरैर्हृतं यदि। तत्स्वकोशात्प्रदेयं स्यादशक्तेनोपजीवतः।। | 12-75-10a 12-75-10b 12-75-10c |
सर्ववर्णैः सदा रक्ष्यं ब्रह्मस्वं ब्राह्मणा यथा। न स्थेयं विषये तेन योऽपकुर्याद्द्विजातिषु।। | 12-75-11a 12-75-11b |
ब्रह्मस्वे रक्ष्यमाणे तु सर्वं भवति रक्षितम्। तेषां प्रसादे निर्वृत्ते कृतकृत्यो भवेन्नृपः।। | 12-75-12a 12-75-12b |
पर्जन्यमिव भूतानि महाद्रुममिव द्विजाः। नरास्तमुपजीवन्ति नृपं सर्वार्थसाधकम्।। | 12-75-13a 12-75-13b |
न हि कामात्मना राज्ञा सततं शठबुद्धिना। नृशंनेनातिलुब्धेन शक्यं पालयितुं प्रजाः।। | 12-75-14a 12-75-14b |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-75-15x |
नाहं राज्यसुखान्वेषी राज्यमिच्छाम्यपि क्षणम्। धर्मार्थं रोचये राज्यं धर्मश्चात्र न विद्यते।। | 12-75-15a 12-75-15b |
तदल मम राज्येन यत्र धर्मो न विद्यते। वनमेव गमिष्यामि तस्माद्धर्मचिकीर्षया।। | 12-75-16a 12-75-16b |
तत्र मेध्येष्वरण्येषु न्यस्तदण्डो जितेन्द्रियः। धर्ममाराधयिष्यामि मुनिर्मूलफलाशनः।। | 12-75-17a 12-75-17b |
भीष्म उवाच। | 12-75-18x |
वेदाहं तव या बुद्धिरानृशंस्येऽगुणैव सा। न च नित्यानृशंसेन शक्यं राज्यमुपासितुम्।। | 12-75-18a 12-75-18b |
सदैव त्वां मृदुप्रज्ञमत्यार्यमतिधार्मिकम्। क्लीबं धर्मघृणायुक्तं न लोको बहुमन्यते।। | 12-75-19a 12-75-19b |
राजधर्ममवेक्षस्व पितृपैतामहोचितम्। नैतद्राज्ञामथो वृत्तं यथा त्वं स्थातुमिच्छसि।। | 12-75-20a 12-75-20b |
न हि वैक्लव्यसंसृष्टमानृशंस्यमिहास्थितः। प्रजापालनसंभूतं प्राप्तो धर्मफलं ह्यसि।। | 12-75-21a 12-75-21b |
न ह्येतामाशिषं पाण्डुर्न च कुन्त्यभ्यभाषत। `विचित्रवीर्यो धर्मात्मा चित्रवीर्यो नराधिपः।। | 12-75-22a 12-75-22b |
शन्तनुश्च महीपालः सर्वक्षत्रस्य पूजितः।' तवैतां प्राज्ञतां तात यथा चरसि मेधया।। | 12-75-23a 12-75-23b |
शौर्यं बलं च सत्यं च पिता तव सदाऽब्रवीत्। महत्त्वं बलमौदार्यं भवतः कुन्त्ययाचत।। | 12-75-24a 12-75-24b |
नित्यं स्वाहा स्वधा नित्यं चोभे मानुषदैवते। पुत्रेष्वाशासते नित्यं पितरो दैवतानि च।। | 12-75-25a 12-75-25b |
दानमध्ययनं यज्ञं प्रजानां परिपालनम्। धर्म्यमेतदधर्म्यं वा जन्मनैवाभ्यजायथाः।। | 12-75-26a 12-75-26b |
कुले धुरि च युक्तानां वहतां भारमीदृशम्। सीदतामपि कौन्तेय कीर्तिर्न परिहीयते।। | 12-75-27a 12-75-27b |
समन्ततो विनीतो यो वहत्यस्खलितो हि सः। निर्दोषकर्मवचनात्सिद्धिः कर्मण एव सा।। | 12-75-28a 12-75-28b |
नैकान्ते विनिपातेऽपि विहरेदिह कश्चन। धर्मी गृही वा राजा वा ब्रह्मचार्यथवा द्विजः।। | 12-75-29a 12-75-29b |
अल्पं हि सारभूयिष्ठं यत्कर्मोदारमेव तत्। कृतमेवाकृताच्छ्रेयो न पापीयोऽस्य कर्मणः।। | 12-75-30a 12-75-30b |
यदा कुलीनो धर्मज्ञः प्राप्नोत्यैश्वर्यमुत्तमम्। योगक्षेमस्तदा राज्ञः कुशलायैव कल्पते।। | 12-75-31a 12-75-31b |
दानेनान्यं बलेनान्यमन्यं सूनृतया गिरा। सर्वतः प्रतिगृह्णीयाद्राज्यं प्राप्येह धार्मिकः।। | 12-75-32a 12-75-32b |
यं हि वैद्याः कुले जाता ह्यवृत्तिभयपीडिताः। प्राप्य तृप्ताः प्रतिष्ठन्ति धर्मः कोऽभ्यधिकस्ततः।। | 12-75-33a 12-75-33b |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-75-34x |
किं न्वतः परमं स्वर्ग्यं का ततः प्रीतिरुत्तमा। किं ततः परमैश्वर्यं ब्रूहि मे यदि पश्यसि।। | 12-75-34a 12-75-34b |
भीष्म उवाच। | 12-75-35x |
यस्मिन्भयार्दिताः सन्तः क्षेमं विन्दन्त्यपि क्षणम्। स स्वर्गजित्तमोऽस्माकं सत्यमेतद्ब्रवीमि ते।। | 12-75-35a 12-75-35b |
त्वमेव प्रीतिमांस्तस्मात्कुरूणां कुरुसत्तम। भव राजा जय स्वर्गं सतो रक्षाऽसतो जहि।। | 12-75-36a 12-75-36b |
अनु त्वां तात जीवन्तु सुहृदः साधुभिः सह। पर्जन्यमिव भूतानि स्वादुद्रुममिव द्विजाः।। | 12-75-37a 12-75-37b |
धृष्टं शूरं प्रहर्तारमनृशंसं जितेन्द्रियम्। वत्सलं संविभक्तारमुपजीवन्तु बान्धवाः।। | 12-75-38a 12-75-38b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि पञ्चसप्ततितमोऽध्यायः।। 75।। |
12-75-5 न कामात्कस्यचित्क्षमेदिति झ.पाठः।। 12-75-7 यदधीते ब्राह्मणादिः।। 12-75-10 अशक्तेन राज्ञा उपजीवतः धनोपजीविनो वणिजादेः।। 12-75-32 प्रतिगृह्णीयाद्वशीकुर्यात्।।
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