महाभारतम्-12-शांतिपर्व-345
दिखावट
← शांतिपर्व-344 | महाभारतम् द्वादशपर्व महाभारतम्-12-शांतिपर्व-345 वेदव्यासः |
शांतिपर्व-346 → |
भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति उपरिचरवसोः शापप्राप्तितद्विमोचनप्रकारकथनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-345-1x |
यदा भक्तो भगवति आसीद्राजा महान्वसुः। किमर्थं स परिभ्रष्टो विवेश विवरं भुवः।। | 12-345-1a 12-345-1b |
भीष्म उवाच। | 12-345-2x |
अत्राप्युदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। ऋषीणां चैव संवादं त्रिदशानां च भारत।। | 12-345-2a 12-345-2b |
`इयं वै कर्मभूमिः स्यात्स्वर्गो भोगाय कल्पितः। तस्मादिन्द्रो महीं प्राप्य यजनाप तु दीक्षितः।। | 12-345-3a 12-345-3b |
सवनीयपशोः काल आगते तु बृहस्पतिः। पिष्टमानीयतामत्र पश्वर्थमिति भाषत।। | 12-345-4a 12-345-4b |
तच्छ्रुत्वा देवताः सर्वा इदमूचुर्द्विजोत्तमम्। बृहस्पतिं मांसगृद्धाः पृथक्पृथगिदं पुनः।।' | 12-345-5a 12-345-5b |
अजेन यष्टव्यमिति प्राहुर्देवा द्विजोत्तमान्। स च छागोप्यजो ज्ञेयो नान्यः पशुरिति स्थितिः।। | 12-345-6a 12-345-6b |
ऋषय ऊचुः। | 12-345-7x |
बीजैर्यज्ञेषु यष्टव्यमिति वै वैदिकी श्रुतिः। अजसंज्ञानि बीजानि च्छागं नो हन्तुमर्हथ।। | 12-345-7a 12-345-7b |
नैष धर्मः सतां देवा यत्र बध्येत वै पशुः। इदं कृतयुगं श्रेष्ठं कथं वध्येत वै पशुः।। | 12-345-8a 12-345-8b |
भीष्म उवाच। | 12-345-9x |
तेषां संवदतामेवमृषीणां विबुधैः सह। मार्गागतो नृपश्रेष्ठस्तं देशं प्राप्तवान्वसुः।। | 12-345-9a 12-345-9b |
अन्तरिक्षचरः श्रीमान्सहस्रबलवाहनः। तं दृष्ट्वा सहसाऽऽयान्तं वसुं ते त्वन्तरिक्षगम्।। | 12-345-10a 12-345-10b |
ऊचुर्द्विजातयो देवानेष च्छेत्स्यति संशयम्। यज्वा दानपतिः श्रेष्ठः सर्वभूतहितप्रियः। कथंस्विदन्यथा ब्रूयादेष वाक्यं महान्वसुः।। | 12-345-11a 12-345-11b 12-345-11c |
एवं ते संविदं कृत्वा विबुधा ऋषयस्तथा। अपृच्छन्सहिताऽभ्येत्य वसुं राजानमन्तिकात्।। | 12-345-12a 12-345-12b |
भो राजन्केन यष्टव्यमजेनाहोस्विदौषधैः। एतन्नः संशयं छिन्धि प्रमाणं नो भवान्मतः।। | 12-345-13a 12-345-13b |
स तान्कृताञ्जलिर्भूत्वा परिपप्रच्छ वै वसुः। कस्य वै को मतः पक्षो ब्रूत सत्यं द्विजोत्तमाः।। | 12-345-14a 12-345-14b |
ऋषय ऊचुः। | 12-345-15x |
धान्यैर्यष्टव्यमित्येव पक्षोऽस्माकं नराधिप। देवानां तु पशुः पक्षो मतो राजन्वदस्व नः।। | 12-345-15a 12-345-15b |
भीष्म उवाच। | 12-345-16x |
देवानां तु मतं ज्ञात्वा वसुना पक्षसंश्रयात्। छागेनाजेन यष्टव्यमेवमुक्तं वचस्तदा।। | 12-345-16a 12-345-16b |
कुपितास्ते ततः सर्वे मुनयः सूर्यवर्चसः। ऊचुर्वसुं विमानस्थं देवपक्षार्थवादिनम्।। | 12-345-17a 12-345-17b |
सुरपक्षो गृहीतस्ते यस्मात्तस्माद्दिवः पत। अद्यप्रभृति ते राजन्नाकाशे विहता गतिः।। | 12-345-18a 12-345-18b |
अस्माच्छापाभिघातेन महीं भित्त्वा प्रवेक्ष्यसि। ` विरुद्धं वेदसूत्राणामुक्तं यदि भवेन्नृप। वयं विरुद्धवचना यदि तत्र पतामहे।।' | 12-345-19a 12-345-19b 12-345-19c |
ततस्तस्मिन्मुहूर्तेऽथ राजोपरिचरस्तदा। अधो वै संबभूवाशु भूमेर्विवरगो नृप।। | 12-345-20a 12-345-20b |
स्मृतिस्त्वेवं न विजहौ तदा नारायणाज्ञया।। | 12-345-21a |
देवास्तु सहिताः सर्वे वमोः शापविमोक्षणम्। चिन्तयामासुरव्यग्राः सुकृतं हि नृपस्य तत्।। | 12-345-22a 12-345-22b |
अनेनास्मत्कृते राज्ञा शापः प्राप्तो महात्मना। अस्य प्रतिप्रियं कार्यं सहितैर्नो दिवौकसः।। | 12-345-23a 12-345-23b |
इति बुद्ध्या व्यवस्याशु गत्वा निश्चयमीश्वराः। ऊचुः संहृष्टमनसो राजोपरिचरं तदा।। | 12-345-24a 12-345-24b |
ब्रह्मण्य देवभक्तस्त्वं सुरासुरगुरुर्हरिः। कामं स तव तुष्टात्मा कुर्याच्छापविभोक्षणम्।। | 12-345-25a 12-345-25b |
मानना तु द्विजातीनां कर्तव्या वै महात्मनाम्। अवश्यं तपसा तेषां फलितव्यं नृपोत्तम।। | 12-345-26a 12-345-26b |
यतस्त्वं सहसा भ्रष्ट आकाशान्मेदिनीतलम्। `विरुद्धं वेदसूत्राणां न वक्तव्यं हितार्थिना।। | 12-345-27a 12-345-27b |
अस्मत्पक्षनिमित्तेन व्यसनं प्राप्तमीदृशम्।' एकं त्वनुग्रहं तुभ्यं दद्मो वै नृप्रसत्तम। यावत्त्वं शापदोषेण कालमासिप्यसेऽनघ।। | 12-345-28a 12-345-28b 12-345-28c |
भूमेर्विवरगो भूत्वा तावत्त्वं कालमाप्स्यसि। यज्ञेषु सुहुतां विप्रैर्वसोर्धारां समाहितैः।। | 12-345-29a 12-345-29b |
प्राप्स्यसेऽस्मदनुध्यानान्मा च त्वां ग्लानिराविशेत्। न क्षुत्पिपासे राजेन्द्र भूमेश्छिद्रे भविष्यतः।। | 12-345-30a 12-345-30b |
वसोर्धारामिपीतत्वात्तेजसाऽऽप्यायितेन च। स देवोऽस्मद्वरात्प्रीतो ब्रह्मलोकं हि नेष्यति।। | 12-345-31a 12-345-31b |
एवं दत्त्वा वरं राज्ञे सर्वे ते च दिवौकसः। ऋतुं समाप्य पिष्टेन मुनीनां वचनात्तदा।।' | 12-345-32a 12-345-32b |
गताः धमवनं देवा ऋषगश्च तपोधनाः। `गृहीत्वा दक्षिणां सर्वे गतः स्वानाश्रमान्पुनः।। | 12-345-33a 12-345-33b |
वसुं विचिन्त्य शक्रश्च प्रविनेशामरावतीम्। वसुर्विवरगस्तत्र व्यलीकस्य फलं गुरोः।।' | 12-345-34a 12-345-34b |
चक्रे वसुस्ततः पूजां विष्वक्सेनाय भारत। जप्यं जगौ च सततं नारायणमुखोद्गवम्।। | 12-345-35a 12-345-35b |
तत्रापि पञ्चभिर्यज्ञैः पञ्चकालानरिंदम्। अयजद्धरिं सुरपतिं भूमेर्विवरगोऽपि सन्।। | 12-345-36a 12-345-36b |
ततोऽस्य तुष्टो भगवान्भक्त्या नारायणो हरिः। अनन्यभक्तस्य सतस्तत्परस्य जितात्मनः।। | 12-345-37a 12-345-37b |
वरदो भगवान्विष्णुः समीपस्थं द्विजोत्तमम्। गरुत्मन्तं महावेगमावभाषेऽप्सितं तदा।। | 12-345-38a 12-345-38b |
द्विजोत्तम महाभाग पश्यतां वचनान्मम। सम्राड्राजा वसुर्नाम धर्मात्मा संशितव्रतः।। | 12-345-39a 12-345-39b |
ब्राह्मणानां प्रकोपेन प्रविष्टो वसुधातलम्। मानितास्ते तु विप्रेन्द्रास्त्वं तु गच्छ द्विजोत्तम्।। | 12-345-40a 12-345-40b |
भूमेर्विवरसंगुप्तं गरुडेह ममाज्ञया। अधश्चरं नृपश्रेष्ठं खेचरं कुरु माचिरम्।। | 12-345-41a 12-345-41b |
गरुत्मानथ विक्षिप्य पक्षौ मारुतवेगवान्। विवेश विवरं भूमेर्यत्रास्ते वाग्यतो वसुः।। | 12-345-42a 12-345-42b |
तत एनं समुत्क्षिप्य सहसा विनतासुतः। उत्पपात नभस्तूर्णं तत्र चैनममुञ्चत।। | 12-345-43a 12-345-43b |
अस्मिन्मुहुर्ते संजज्ञे राजोपरिचरः पुनः। सशरीरो गतश्चैव ब्रह्मलोकं नृपोत्तमः।। | 12-345-44a 12-345-44b |
एवं तेनापि कौन्तेय वाग्दोषाद्देवताज्ञया। प्राप्ता गतिरधस्तात्तु द्विजशापान्महात्मना।। | 12-345-45a 12-345-45b |
केवलं पुरुषस्तेन सेवितो हरिरीश्वरः। ततः शीघ्रं जहौ शापं ब्रह्मलोकमवाप च।। | 12-345-46a 12-345-46b |
भीष्म उवाच। | 12-345-47x |
एतत्ते सर्वमाख्यातं संभूता मानवा यथा। नारदोऽपि यथा श्वेतं द्वीपं स गतवानृषिः। तत्ते सर्वं प्रवक्ष्यामि शृणुष्वैकमना नृप।। | 12-345-47a 12-345-47b 12-345-47c |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि पञ्चचत्वारिंशदधिकत्रिशततमोऽध्यायः।। 345।। |
12-345-7 अजस्थस्म मेधस्य बीजेषु संक्रमाद्वीजान्येवाजसंज्ञानीति युक्तम्।। 12-345-23 अस्य प्रतिक्रिया कार्येति ध. पाठः।।
शांतिपर्व-344 | पुटाग्रे अल्लिखितम्। | शांतिपर्व-346 |