महाभारतम्-12-शांतिपर्व-157
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रत्यज्ञानलक्षणादिप्रतिपादनम्।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-157-1x |
अनर्थानामधिष्ठानमुक्तो लोभः पितामह। अज्ञानमपि कौरव्य श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः।। | 12-157-1a 12-157-1b |
भीष्म उवाच। | 12-157-2x |
करोति पापं योऽज्ञानान्नात्मनो वेत्ति च क्षमम्। द्विषते साधुवृत्तांश्च स लोकस्यैति वाच्यताम्।। | 12-157-2a 12-157-2b |
अज्ञानान्निरयं याति तथा ज्ञानेन दुर्गतिम्। अज्ञानात्क्लेशमाप्नोति तथाऽऽपत्सु निमज्जति।। | 12-157-3a 12-157-3b |
युधिष्ठिर उवाच। | 12-157-4x |
प्रजानामप्रवृत्तिं च ज्ञानवृद्धिक्षयोदयान्। मूलं स्थानं गतिं कालं कारणं हेतुमेव च।। | 12-157-4a 12-157-4b |
श्रोतुमिच्छामि तत्त्वेन यथावदिह पार्थिव। अज्ञानप्रसवं हीदं यद्दुःखमुपलभ्यते।। | 12-157-5a 12-157-5b |
भीष्म उवाच। | 12-157-6x |
रागो द्वेषस्तथा मोहो हर्षः शोकोऽभिमानिता। कामः क्रोधश्च दर्पश्च तन्द्री चालस्यमेव च।। | 12-157-6a 12-157-6b |
इच्छा द्वेषस्तथा तापः परवृद्ध्युपतापिता। अज्ञानमेन्निर्दिष्टं पापानां चैव याः क्रियाः।। | 12-157-7a 12-157-7b |
एतस्य वा प्रवृत्तेश्च वृद्ध्यादीन्यांश्च पृच्छसि। विस्तरेण महाराज शृणु तच्च विशेषतः।। | 12-157-8a 12-157-8b |
उभावेतौ समफलौ समदोषौ च भारत। अज्ञानं चातिलोभश्चाप्येवं जानीहि पार्थिव।। | 12-157-9a 12-157-9b |
लोभप्रभवमज्ञानं वृद्धं भूयः प्रवर्धते। स्थाने स्थानं क्षयेत्क्षीणमुपैति विविधां गतिम्।। | 12-157-10a 12-157-10b |
मूलं लोभस्य मोहो वै कालात्मगतिरेव च। [छिन्ने भिन्ने तथा लोभे कारणं काल एव च।।] | 12-157-11a 12-157-11b |
तस्याज्ञानाद्धि लोभो हि कामात्मा गतिरेव च। सर्वे दोषास्तथा लोभात्तस्माल्लोभं विवर्जयेत्।। | 12-157-12a 12-157-12b |
जनको युवनाश्वश्च पृषदश्वः प्रसेनजित्। लोभक्षयाद्दिवं प्राप्तास्तथैवान्ये नराधिपाः। `छिन्ने छिन्ने तथा लोभे दिवं प्राप्ता जनाधिपाः।।' | 12-157-13a 12-157-13b 12-157-13c |
प्रत्यक्षं तु कुरुश्रेष्ठ त्यज लोभमिहात्मना। त्यक्त्वा लोभं सुखी लोके प्रेत्य चेह च मोदते।। | 12-157-14a 12-157-14b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि सप्तपञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 157।। |
12-157-2 वाच्यतां निन्द्यताम्।। 12-157-4 अज्ञानस्य प्रवृत्तिं चेति झ. पाठः।। 12-157-7 कार्ये कारणोपचाराद्रागादय एवाज्ञानम्। पापाना क्रियाः हिंसादयः।। 12-157-10 लोभप्रभवं लोभात्तस्य प्रवृत्तिः। लोभवृद्धौ वृद्धिर्लोभस्य स्थाने साम्ये स्थानं समता। लोभभये क्षीणं भवति। उपैति उदेति। लोभभोस्यो उदेतीत्यर्थः। विविधां गतिं दुःखसंतापमोहा रूपां प्रापयितुमिति शेषः।। 12-157-11 मूलं लोभस्य महतः करणं लोभ एव च। इति द. पाठः।। 12-157-14 त्यक्त्वा लोभ। लोके प्रेत्य चानुचरिष्यसि इति झ. पाठः।।
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