महाभारतम्-12-शांतिपर्व-011
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अर्जुनेन युधिष्ठिरंप्रति गार्हस्थ्यस्य श्रैष्ठ्योपपादनम्।। 1।।
अर्जुन उवाच। | 12-11-1x |
अत्रैवोदाहरन्तीममितिहासं पुरातनम्। तापसैः सह संवादं शक्रस्य भरतर्षभ।। | 12-11-1a 12-11-1b |
`शक्यं पुनररण्येषु सुखमेतेन जीवितुम्।' केचिद्गृहान्परित्यज्य वनमभ्यागमन्द्विजाः। अजातश्मश्रवो मन्दाः कुले जाताः प्रवव्रजुः।। | 12-11-2a 12-11-2b 12-11-2c |
धर्मोऽयमिति मन्वानाः समृद्धा धर्मचारिणः। त्यक्त्वा भ्रातॄन्पितॄंश्चैव तानिन्द्रोऽन्वकृपायत।। | 12-11-3a 12-11-3b |
स तान्बभाषे मघवान्पक्षीभूत्वा हिरण्मयः। सुदुष्करं मनुष्यैस्तु यत्कृतं विघसाशिभिः।। | 12-11-4a 12-11-4b |
पुण्यं भवति कर्मैषां प्रशस्तं चैव जीवितम्। सिद्धार्थास्ते गतिं मुख्यां प्राप्ताः कर्मपरायणाः।। | 12-11-5a 12-11-5b |
ऋषय ऊचुः। | 12-11-6x |
अहो बतायं शकुनिर्विघसाशान्प्रशंसति। अस्मान्नूनमयं शास्ति वयं च विघसाशिनः।। | 12-11-6a 12-11-6b |
शकुनिरुवाच। | 12-11-7x |
नाहं युष्मान्प्रशंसामि पङ्कदिग्धान्रजस्वलान्। उच्छिष्टभोजिनो मन्दानन्ये वै विघसाशिनः।। | 12-11-7a 12-11-7b |
ऋषय ऊचुः। | 12-11-8x |
इदं श्रेयः परमिति वयमेवममंस्महि। शकुने ब्रूहि यच्छ्रेयो वयं ते श्रद्दधामहे।। | 12-11-8a 12-11-8b |
शकुनिरुवाच। | 12-11-9x |
यदि मां नाभिशङ्कध्वं विभज्यात्मानमात्मना। ततोऽहं वः प्रवक्ष्यामि याथातथ्यं हितं वचः।। | 12-11-9a 12-11-9b |
ऋषय ऊचुः। | 12-11-10x |
शृणुमस्ते वचस्तात पन्थानो विदितास्तव। नियोगे चैव धर्मात्मन्स्थातुमिच्छाम शाधि नः।। | 12-11-10a 12-11-10b |
शकुनिरुवाच। | 12-11-11x |
चतुष्पदां गौः प्रवरा लोहानां काञ्चनं वरम्। शब्दानां प्रवरो मन्त्रो ब्राह्मणो द्विपदां वरः।। | 12-11-11a 12-11-11b |
मन्त्रोऽयं जातकर्मादिर्ब्राह्मणस्य विधीयते। जीवतोऽपि यथाकालं श्मशाननिधनान्तकः।। | 12-11-12a 12-11-12b |
कर्माणि वैदिकान्यस्य स्वर्ग्यः पन्थास्त्वनुत्तमः। अथ सर्वाणि कर्माणि मन्त्रसिद्धानि चक्षते। आम्नायदृढवादीनि तथा सिद्धिरिहेष्यते।। | 12-11-13a 12-11-13b 12-11-13c |
मासार्धमासा ऋतव आदित्यशशितारकम्। ग्रसन्ते कर्म भूतानि तदिदं कर्मशंसिनाम्।। | 12-11-14a 12-11-14b |
सिद्धिक्षेत्रमिदं पुण्यमयमेवाश्रमो महान्।। | 12-11-15a |
अथ ये कर्म निन्दन्तो मनुष्याः कापथं गताः। मूढानामर्थहीनानां तेषामेनस्तु विद्यते।। | 12-11-16a 12-11-16b |
देववंशान्पितृवंशान्ब्रह्मवंशांश्च शाश्चतान्। संत्यज्य मूढा वर्तन्ते ततो यान्त्यशुचीन्पथः।। | 12-11-17a 12-11-17b |
एतद्वोऽस्तु तपोयुक्तं ददामीत्यृषिचोदितम्। तस्मात्तदध्यावसतस्तपस्वित्वमिहोच्यते।। | 12-11-18a 12-11-18b |
देववंशान्ब्रह्मवंशान्पितृवंशांश्च शाश्वतान्। संविभज्य गुरोश्चर्यां तद्वै दुष्करमुच्यते।। | 12-11-19a 12-11-19b |
देवा वै दुष्करं कृत्वा विभूतिं परमां गताः। तस्माद्गार्हस्थ्यमुद्वोढुं दुष्करं प्रब्रवीमि वः।। | 12-11-20a 12-11-20b |
तपः श्रेष्ठं प्रजानां हि मूलमेतन्न संशयः। कुटुम्वविधिनाऽनेन यस्मिन्सर्वं प्रतिष्ठितम्।। | 12-11-21a 12-11-21b |
एतद्विदुस्तपो विप्रा द्वन्द्वातीता विमत्सराः। एतस्माद्वनमध्ये तु लोकेषु तप उच्यते।। | 12-11-22a 12-11-22b |
दुराधर्षं पदं चैव गच्छन्ति विघसाशिनः। सायंप्रातर्विभज्यान्नं स्वकुटुम्बे यथाविधि।। | 12-11-23a 12-11-23b |
दत्त्वाऽतिथिभ्यो देवेभ्यः पितृभ्यः स्वजनाय च। अवशिष्टानि येऽश्नन्ति तानाहुर्विघसाशिनः।। | 12-11-24a 12-11-24b |
तस्मात्स्वधर्ममास्थाय सुव्रताः सत्यवादिनः। लोकस्य गुरवो भूत्वा ते भवन्त्यनुपस्कृताः।। | 12-11-25a 12-11-25b |
त्रिदिवं प्राप्य शक्रस्य स्वर्गलोके विमत्सराः। वसन्ति शाश्वतान्वर्षाञ्जना दुष्करकारिणः।। | 12-11-26a 12-11-26b |
अर्जुन उवाच। | 12-11-27x |
ततस्ते तद्वचः श्रुत्वा धर्मार्थसहितं हितम्। उत्सृज्य नास्तिकमतिं गार्हस्थ्यं धर्ममाश्रिताः।। | 12-11-27a 12-11-27b |
तस्मात्त्वमपि सर्वज्ञ धैर्यमालम्ब्य शाश्वतम्। प्रशाधि पृथिवीं कृत्स्नां हतामित्रां नरोत्तम।। | 12-11-28a 12-11-28b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि राजधर्मपर्वणि एकादशोऽध्यायः।। 11।। |
12-11-4 विघसाशिभिः महायज्ञावशिष्टभोजिभिः।। 12-11-6 शास्ति ज्ञापयति। विघसं शीर्णतृणपर्णफलादिकं तददनशीलास्तु वयमेवातो विघसाशिनिः श्रेयांसः स्म इति मेनिरे इत्यर्थः।। 12-11-7 पङ्कदिग्धान्रजस्वलानित्यागन्तुकस्वाभाविकदोषयुक्तत्वमुक्तं क्रमेण। उच्छिष्ठभोजिन इति। प्रायेण शीर्णतृणमर्णफलानि मृगकीटपक्ष्युच्छिष्टानि भवन्ति तद्भोजिनः।। 12-11-8 ते तव वच इति शेषः।। 12-11-10 पन्थानः श्रेयोमार्गाः।। 12-11-12 मन्त्रो मन्त्रोक्तसंस्कारः।। 12-11-15 ईहन्ते सर्वभूतानि तदिदं कर्मसंज्ञितमिति झ. पाठः।। 12-11-22 एतस्मात् गार्हस्थ्यात् अनन्तरं वनमध्ये तप उच्यत इत्यन्वयः।। 12-11-25 अनुपस्कृताः निःसंशयाः।।
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