महाभारतम्-12-शांतिपर्व-150
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शौनकेन जनमेजयप्रार्थनया तदीयब्रह्महत्यापनोदनाङ्गीकरणम्।। 1।।
भीष्म उवाच। | 12-150-1x |
एवमुक्तः प्रत्युवाच तं मुनिं जनमेजयः। गर्ह्यं भवान्गर्हयते निन्द्यं निन्दति मां पुनः।। | 12-150-1a 12-150-1b |
धिक्कार्यं मां धिक्कुरुते तस्मात्त्वाऽहं प्रसादये। सर्वं हीदं स्वकृतं मे ज्वलाम्यग्नाविवाहितम्।। | 12-150-2a 12-150-2b |
स्वकर्माण्यभिसंधाय नाभिनन्दति मे मनः। प्राप्तं घोरं भयं नूनं मया वैवस्वतादपि।। | 12-150-3a 12-150-3b |
तत्तु शल्यमनिर्हृत्य कथं शक्ष्यामि जीवितुम्। सर्वं मन्युं विनीय त्वमभि मां वद शौनक।। | 12-150-4a 12-150-4b |
[महानासं ब्राह्मणानां भूयो वक्ष्यामि सांप्रतम्।] `गन्ता गतिं ब्राह्मणानां भविष्याम्यर्थवान्पुनः।' अस्तु शेषं कुलस्यास्य मा पराभूदिदं कुलम्।। | 12-150-5a 12-150-5b 12-150-5c |
न हि नो ब्रह्मशप्तानां शेषं भवितुमर्हति। स्तुतीरलभमानानां संविदं वेद निश्चयात्।। | 12-150-6a 12-150-6b |
निन्दमानः स्वमात्मानं भूयो वक्ष्यामि सांप्रतम्। भूयश्चैवाभिमज्जन्ति निर्धर्मा निर्जला इव।। | 12-150-7a 12-150-7b |
न ह्ययज्ञा अमुं लोकं प्राप्नुवन्ति कथंचन। अवाक्च प्रपतिष्यन्ति पुलिन्दशवरा इव।। | 12-150-8a 12-150-8b |
अविज्ञायैव मे प्रज्ञां बालस्येव स पण्डितः। ब्रह्मन्पितेव पुत्रस्य प्रीतिमान्भव शौनक।। | 12-150-9a 12-150-9b |
शौनक उवाच। | 12-150-10x |
किमाश्चर्यं यतः प्राज्ञो बहुकुर्यादसांप्रतम्। इति वै पण्डितो भूत्वा भूतानां को नु तप्यते।। | 12-150-10a 12-150-10b |
प्रज्ञाप्रासादमारुह्य अशोच्यः शोचते जनान्। जगतीस्थानिवाद्रिस्थः प्रज्ञया प्रतिपत्स्यति।। | 12-150-11a 12-150-11b |
न चोपलभते कश्चिन्न चाश्चर्याणि पश्यति। निर्विण्णात्मा परोक्षो वा धिक्कृतः सर्वसाधुषु।। | 12-150-12a 12-150-12b |
विदित्वा भवतो वीर्यं माहात्म्यं चैव चागमे। कुरुष्वेह यथाशान्ति ब्रह्मा शरणमस्तु ते।। | 12-150-13a 12-150-13b |
तद्वै वारित्रकं तात ब्राह्मणानामकुप्यताम्। अथवा तप्यसे पापे धर्मं चेदनुपश्यसि।। | 12-150-14a 12-150-14b |
जनमेजय उवाच। | 12-150-15x |
अनुतप्ये च पापेन न चाधर्मं चराम्यहम्। बुभूषेद्भजमानं च प्रीतिमान्भव शौनक।। | 12-150-15a 12-150-15b |
शौनक उवाच। | 12-150-16x |
छित्त्वा दम्भं च मानं च प्रीतिमिच्छामि ते नृप। सर्वभूतहिते तिष्ठ धर्मं चैव प्रतिस्मरन्।। | 12-150-16a 12-150-16b |
न भयान्न च कार्पण्यान्न लोभात्त्वामुपाह्वये। तां मे दैवीं गिरं सत्यां शृणु त्वं ब्राह्मणैः सह।। | 12-150-17a 12-150-17b |
सोऽहं न केनचिच्चार्थी त्वां च धर्मादुपाह्वये। क्रोशतां सर्वभूतानां हाहाधिगिति जल्पताम्।। | 12-150-18a 12-150-18b |
वक्ष्यन्ति मामधर्मज्ञं त्यक्ष्यन्ति सुहृदो जनाः। ता वाचः सुहृदः श्रुत्वा संज्वरिष्यन्ति मे भृशं।। | 12-150-19a 12-150-19b |
केचिदेव महाप्राज्ञाः प्रतिज्ञास्यन्ति कार्यताम्। जानीहि मत्कृतं तात ब्राह्मणान्प्रति भारत।। | 12-150-20a 12-150-20b |
यथा ते सत्कृताः क्षेमं लभेरंस्त्वं तथा कुरु। प्रतिजानीहि चाद्रोहं ब्राह्मणानां नराधिप।। | 12-150-21a 12-150-21b |
जनमेजय उवाच। | 12-150-22x |
नैव वाचा न मनसा पुनर्जातु न कर्मणा। द्रोग्धाऽस्मि ब्राह्मणान्विप्र चरणावेव ते स्पृशे।। | 12-150-22a 12-150-22b |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि आपद्धर्मपर्वणि पञ्चाशदधिकशततमोऽध्यायः।। 150।। |
12-150-2 त्वा त्वाम्।। 12-150-5 ब्राह्मणानां भक्त इति शेषः।। 12-150-8 पुलिन्दाः शबराः म्लेच्छभेदाः।। 12-150-9 ब्रह्मन्ब्राह्मण।। 12-150-10 साधुषु निर्विण्णात्मा विरक्तः परोक्षस्तद्दृष्टिपथादपेतः तैश्च धेक्कृतः सः प्रज्ञानं चोपलभते। तत्सङ्गं विना प्रज्ञा दुर्लभैवेत्यर्थः।। 12-150-13 ब्रह्मा ब्राह्मणः शरणं रक्षिता। यथाशान्ति शान्तिमनतिक्रम्य।। 12-150-17 उपाह्वये शिष्यं करोमीत्यर्थः।। 12-150-18 शैनकं पापिष्ठसंग्रहीतारं धिगिति जल्पतां ताननादृत्य उपाह्वये इत्यर्थः।।
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