महाभारतम्-12-शांतिपर्व-296
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति श्रेयःसाधनप्रतिपादकपराशरगीतानुवादः।। 1।।
युधिष्ठिर उवाच। | 12-296-1x |
अतः परं महाबाहो यच्छ्रेयस्तद्ब्रवीहि मे। न तृप्याम्यमृतस्येव वचसस्ते पितामह।। | 12-296-1a 12-296-1b |
किं कर्म पुरुषः कृत्वा शुभं पुरुषसत्तम। श्रेयः परमवाप्नोति प्रेत्य चेह च तद्वद।। | 12-296-2a 12-296-2b |
भीष्म उवाच। | 12-296-3x |
अत्र ते वर्तयिष्यामि यथा पूर्वं महायशाः। पराशरं महात्मानं पप्रच्छ जनको नृपः।। | 12-296-3a 12-296-3b |
किं श्रेयः सर्वभूतानामस्मिँल्लोके परत्र च। यद्भवेत्प्रतिपत्त्व्यं तद्भवान्प्रब्रवीतु मे।। | 12-296-4a 12-296-4b |
ततः स तपसा युक्तः सर्वधर्मविधानवित्। नृपायानुग्रहमना मुनिर्वाक्यमथाब्रवीत्।। | 12-296-5a 12-296-5b |
पराशर उवाच। | 12-296-6x |
धर्म एव कृतः श्रेयानिह लोके परत्र च। तस्माद्धि परमं नास्ति यथा प्राहुर्मनीषिणः।। | 12-296-6a 12-296-6b |
प्रतिपद्य नरो धर्मं स्वर्गलोके महीयते। धर्मात्मकः कर्मविधिर्देहिनां नृपसत्तम।। | 12-296-7a 12-296-7b |
तस्मिन्त्राश्रमिणः सन्तः स्वकर्माणीह कुर्वते।। | 12-296-8a |
चतुर्विधा हि लोकेऽस्मिन्यात्रा तात विधीयते। मर्त्या यत्रावतिष्ठन्ते सा च कामात्प्रवर्तते।। | 12-296-9a 12-296-9b |
सुकृतासुकृतं कर्म निषेव्य विविधैः क्रमैः। दशार्धप्रविभक्तानां भूतानां विविधा गतिः।। | 12-296-10a 12-296-10b |
सौवर्णं राजतं चापि यथा भाण्डं निषिच्यते। तथा निपिच्यते जन्तुः पूर्वकर्मवशानुगः।। | 12-296-11a 12-296-11b |
नाबीजाज्जायते किंचिन्नाकृत्वा सुखमेधते। सुकृतैर्विन्दते सौख्यं प्राप्य देहक्षयं नरः।। | 12-296-12a 12-296-12b |
दैवं तात न पश्यामि नास्ति दैवस्य साधनम्। स्वभावतो हि संसिद्धा देवगन्धर्वदानवाः।। | 12-296-13a 12-296-13b |
प्रेत्य यान्त्यकृतं कर्म न स्मरन्ति सदा जनाः। ते वै तस्य फलप्राप्तौ कर्म चापि चतुर्विधम्।। | 12-296-14a 12-296-14b |
लोकयात्राश्रयश्चैव शब्दो वेदाश्रयः कृतः। शान्त्यर्थं मनसस्तात नैतद्वृद्धानुशासनम्।। | 12-296-15a 12-296-15b |
चक्षुषा मनसा वाचा कर्मणा च चतुर्विधम्। कुरुते यादृशं कर्म तादृशं प्रतिपद्यते।। | 12-296-16a 12-296-16b |
निरन्तरं च मिश्रं च लभते कर्म पार्थिव। कल्याणं यदि वा पापं न तु नाशोऽस्य विद्यते।। | 12-296-17a 12-296-17b |
कदाचित्सुकृतं तात कूटस्थमिव तिष्ठति। मज्जमानस्य संसारे यावद्दुःखाद्विमुच्यते।। | 12-296-18a 12-296-18b |
ततो दुःखक्षयं कृत्वा सुकृतं कर्म सेवते। सुकृतक्षयाच्च दुष्कृतं तद्विद्धि मनुजाधिप।। | 12-296-19a 12-296-19b |
दमः क्षमा धृतिस्तेजः संतोषः सत्यवादिता। ह्रीरहिंसाऽव्यसनिता दाक्ष्यं चेति सुखावहाः।। | 12-296-20a 12-296-20b |
दुष्कृते सुकृते चापि न जन्तुर्नियतो भवेत्। नित्यं मनः समाधाने प्रयतेत विचक्षणः।। | 12-296-21a 12-296-21b |
नायं परस्य सुकृतं दुष्कृतं चापि सेवते। करोति यादृशं कर्म तादृशं प्रतिपद्यते।। | 12-296-22a 12-296-22b |
सुखदुःखे समाधाय पुमानन्येन गच्छति। अन्येनैव जनः सर्वः संगतो यश्च पार्थिवः।। | 12-296-23a 12-296-23b |
परेषां यदसूयेत न तत्कुर्यात्स्वयं नरः। यो ह्यसूयुस्तथा युक्तः सोऽवहासं नियच्छति।। | 12-296-24a 12-296-24b |
भीरू राजन्यो ब्राह्मणः सर्वभक्ष्यो वैश्योऽनीहावान्हीनवर्णोऽलसश्च। विद्वांश्राशीलो वृत्तहीनः कुलीनः सत्याद्विभ्रष्टो ब्राह्मणस्त्री च तुष्टा।। | 12-296-25a 12-296-25b 12-296-25c 12-296-25d |
रागी युक्तः पचमानोऽऽत्महेतो र्मूर्खो वक्ता नृपहीनं च राष्ट्रम्। एते सर्वे शोच्यतां यान्ति राज न्यश्रायुक्तः स्नेहहीनः प्रजासु।। | 12-296-26a 12-296-26b 12-296-26c 12-296-26d |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि षण्णवत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 296।। |
12-296-18 करस्थमिव तिष्ठतीति थ. पाठः।। 12-296-26 रागी मुक्त इति थ. पाठः।।
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