महाभारतम्-12-शांतिपर्व-223
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भीष्मेण युधिष्ठिरंप्रति जनकोपाख्यानकथनम्।। 1।।
`* युधिष्ठिर उवाच। | 12-223-1x |
किं कारणं महाप्राज्ञ दह्यमानश्च मैथिलः। मिथिलां नेह धर्मात्मा प्राह वीक्ष्य विदाहिताम्।। | 12-223-1a 12-223-1b |
भीष्म उवाच। | 12-223-2x |
श्रृयतां नृपशार्दूल यदर्थं दीपिता पुरा। वह्निना दीपिता सा तु तन्मे शृणु महामते।। | 12-223-2a 12-223-2b |
जनको जनदेवस्तु कर्माण्याध्याय चात्मनि। सर्वभावमनुप्राप्य भावेन विचचार सः।। | 12-223-3a 12-223-3b |
यजन्ददंस्तथा जुह्वन्पालयन्पृथिवीमिमाम्। अध्यात्मविन्महाप्राज्ञस्तन्मयत्वेन निष्ठितः।। | 12-223-4a 12-223-4b |
स तस्य हृदि संकल्पं ज्ञातुमैच्छत्स्वयं प्रभुः। सर्वलोकाधिपस्तत्र द्विजरूपेण संयुतः।। | 12-223-5a 12-223-5b |
मिथिलायां महाबुद्धिर्व्यलीकं किंचिदाचरन्। स गृहीत्वा द्विजश्रेष्ठैर्नृपाय प्रतिवेदितः।। | 12-223-6a 12-223-6b |
अपराधं समुद्दिश्य तं राजा प्रत्यभाषत। न त्वां ब्राह्मण दण्डेन नियोक्ष्यामि कथंचन।। | 12-223-7a 12-223-7b |
मम राज्याद्विनिर्गच्छ यावत्सीमा भुवो मम। तच्छ्रुत्वा ब्राह्मणो गत्वा राजानं प्रत्युवाच ह।। | 12-223-8a 12-223-8b |
करिष्ये वचनं राजन्ब्रवीहि मम जानतः। का सीमा तव भूमेस्तु ब्रूहि धर्मं ममाद्य वै।। | 12-223-9a 12-223-9b |
तच्छ्रुत्वा मैथिलो राजा लज्जयावनताननः। नोवाच वचनं विप्रं तत्वबुद्ध्या समीक्ष्य तत्।। | 12-223-10a 12-223-10b |
पुनःपुनश्च तं विप्रश्चोदयामास सत्वरम्। ब्रूहि राजेन्द्र गच्छामि तव राज्या द्विवासितः।। | 12-223-11a 12-223-11b |
ततो नृपो विचार्यैवमाह ब्राह्मणपुङ्गवम्। आवासो वा न मेऽस्त्यत्र सर्वा वा पृथिवी मम। गच्छ वा तिष्ठ वा ब्रह्मन्निति मे निश्चिता मतिः।। | 12-223-12a 12-223-12b 12-223-12c |
इत्युक्तः स तथा तेन मैथिलेन द्विजोत्तमः। अब्रवीत्तं महात्मानं राजानं मन्त्रिभिर्वृतम्।। | 12-223-13a 12-223-13b |
त्वमेवं पद्मनाभस्य नित्यं पक्षपदाहितः। अहो सिद्धार्थरूपोऽसि गमिष्ये स्वस्ति तेऽस्तु वै।। | 12-223-14a 12-223-14b |
इत्युक्त्वा प्रययौ विप्रस्तज्जिज्ञासुर्द्विजोत्तमान्। अदहच्चाग्निना तस्य मिथिलां भगवान्स्वयम्।। | 12-223-15a 12-223-15b |
प्रदीप्यमानां मिथिलां दृष्ट्वा राजा न कम्पितः। जनैः स परिपृष्टस्तु वाक्यमेतदुवाच ह।। | 12-223-16a 12-223-16b |
अनन्तं वत मे वित्तं भाव्यं मे नास्ति किंचन। मिथिलायां प्रदीप्तायां न मे किंचन दह्यते।। | 12-223-17a 12-223-17b |
तदस्य भाषमाणस्य श्रुत्वा श्रुत्वा हृदि स्थितम्। पुनः संजीवयामास मिथिलां तां द्विजोत्तमः।। | 12-223-18a 12-223-18b |
आत्मानं दर्शयामास वरं चास्नै दद्रौ पुनः। धर्मे तिष्ठस्व सद्भावो बुद्धिस्तेऽर्थे नराधिप।। | 12-223-19a 12-223-19b |
सत्ये तिष्ठस्व निर्विण्णः स्वस्ति तेऽस्तु व्रजाम्यहम्। इत्युक्त्वा भगवांश्चैनं तत्रैवान्तरधीयत। एतत्ते कथितं राजन्किं भूयः श्रोतुमिच्छसि।।' | 12-223-20a 12-223-20b 12-223-20c |
।। इति श्रीमन्महाभारते शान्तिपर्वणि मोक्षधर्मपर्वणि त्रयोविंशत्यधिकद्विशततमोऽध्यायः।। 223।। |
- 223, 223 एतदध्यायद्वयं ध. पुस्तकएव दृश्यते।
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